ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ५४

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ५४ ऋषि – प्रजापतिवैश्वामित्रः, प्रजापतिर्वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवाः । छंद - त्रिष्टुप इमं महे विदथ्याय शूषं शश्वत्कृत्व ईड्याय प्र जभुः । शृणोतु नो दम्येभिरनीकैः शृणोत्वग्निर्दिव्यैरजस्रः ॥१॥ स्त्रोतागण महान् यज्ञ के साधन रूप तथा स्तुति योग्य अग्निदेव के लिए इन उत्तम स्तोत्रों को उच्चारित करते हैं। वे अग्नदेव अपने स्थान में तेजोमयों किरणों से उद्दीप्त होकर हमारी स्तुति का श्रवण करें ॥१॥ महि महे दिवे अर्चा पृथिव्यै कामो म इच्छञ्चरति प्रजानन् । ययोर्ह स्तोमे विदथेषु देवाः सपर्यवो मादयन्ते सचायोः ॥२॥ हे स्तोताओं ! यज्ञादि कार्यों में, जिन द्यावा-पृथिवी में, स्तोत्रों को सुनते हुए पूजाभिलाषी देवगण एकत्र एवं प्रसन्न होते हैं। उन महती द्यावा- पृथिवीं को सामर्थ्य को जानते हुए उनकी अर्चना करे । सम्पूर्ण भौगो की इच्छा से मेरा मन विचरणशील हैं॥२॥ युवोर्ऋतं रोदसी सत्यमस्तु महे षु णः सुविताय प्र भूतम् । इदं दिवे नमो अग्ने पृथिव्यै सपर्यामि प्रयसा यामि रत्नम् ॥३॥ सत्यव्रतों में अनुबन्धित हे द्यावा पृथिवि ! अति पुरातन ग्रंषगणों ने आपके सत्य रहस्यों को ज्ञानकर स्तुति की हैं। युद्ध के लिए जाने वाले वीर-पुरुषों में भी आप दोनों की महत्ता को जानकर सर्वदा वन्दना की हैं॥३॥ उतो हि वां पूर्व्या आविविद्र ऋतावरी रोदसी सत्यवाचः । नरश्चिद्वां समिथे शूरसातौ ववन्दिरे पृथिवि वेविदानाः ॥४॥ हे सत्य धर्म वाली द्यावा-पृथिवि ! सत्यवतधारी सनातन ऋषियों ने आपसे हितकारों वांछित फल प्राप्त किया था। हे पृथिवि ! युद्ध क्षेत्र में जाने वाले वीर योद्धा आपको महिमा को जानते हुए आपको नमस्कार करते हैं ॥४॥ को अद्धा वेद क इह प्र वोचद्देवाँ अच्छा पथ्या का समेति । ददृश्र एषामवमा सदांसि परेषु या गुह्येषु व्रतेषु ॥५॥ कौन सा पथ देवों के अभिमुख पहुँचता हैं? कौन इसे निश्चित रूप से जानता हैं कौन उसका वर्णन कर सकता है क्योंकि देवों के जो गुह्य और उच्च स्थान हैं, उनमें से जो निम्नतम स्थान हैं, वे ही दिखाई पड़ते हैं॥५॥ कविनृचक्षा अभि षीमचष्ट ऋतस्य योना विघृते मदन्ती । नाना चक्राते सदनं यथा वेः समानेन क्रतुना संविदाने ॥६॥ दूरदर्शी मनुष्यों के द्रष्टा सूर्यदेव इस द्यावा-पृथिवी को सब ओर से देखते हैं। रसवती, हर्घ प्रदात्री, समान कर्म में परस्पर संयुक्त यह द्यावा-पृथिवीं पक्षियों के घोंसले बनाने के सदृश ज्ञल के गर्भस्थान अन्तरिक्ष में अपने लिए विविध स्थान बनाती हैं॥६॥ समान्या वियुते दूरेअन्ते ध्रुवे पदे तस्थतुर्जागरूके । उत स्वसारा युवती भवन्ती आदु ब्रुवाते मिथुनानि नाम ॥७॥ (गुरुत्वाकर्षण से) परस्पर जुड़े होने पर भी अलग-अलग रहने वाली द्यावा-पृथिवीं कभी भी क्षय को प्राप्त नहीं होतीं । अक्षय, अनंत अन्तरिक्ष में दोनों दो बहनों के समान एकरूप होकर रहती हैं। इस प्रकार ये सृष्टि क्रम को चला रही हैं॥७॥ विश्वदेते जनिमा सं विविक्तो महो देवान्बिभ्रती न व्यथेते । एजध्रुवं पत्यते विश्वमेकं चरत्पतत्रि विषुणं वि जातम् ॥८॥ ये द्यावा-पृथिवीं समस्त प्राणियों और वस्तुओं को पृथक् पृथक् स्थान प्रदान करती हैं। ये महान् सूर्य एवं । इन्द्रादि देव को धारण करके भी व्यथित (कम्पिती नहीं होती हैं। स्थावर और जंगम समस्त प्राणियों को मात्र एक पृथ्वी पर ही आश्चय प्राप्त होता है। पक्षी समूहों के विचरण के लिए द्यावा-पृथिवीं के मध्य का स्थान सुनिश्चित है ॥८॥ सना पुराणमध्येम्यारान्महः पितुर्जनितुर्जामि तन्नः । देवासो यत्र पनितार एवैरुरौ पथि व्युते तस्थुरन्तः ॥९॥ हे द्यावा-स्थिवि ! आप महान् पित्तारूप पोषण कत्र और मातारूप उत्पन्न-क हैं। हम आपके सनातन और पुरातन इन सम्बन्धों को सर्वदा स्मरण करते हैं। आपके मध्य में स्तुति-अभिलाषी देवगण विस्तीर्ण और प्रकाशित पथों में अपने वाहनों से युक्त होकर अवस्थित होते हैं ॥९॥ इमं स्तोमं रोदसी प्र ब्रवीम्यृदूदराः शृणवन्नग्निजिह्वाः । मित्रः सम्राजो वरुणो युवान आदित्यासः कवयः पप्रथानाः ॥१०॥ हे द्यावा-पृथिव ! हम आपके स्तोत्रों का भली प्रकार उच्चारण करते हैं। सोम को उदर में धारण करने वाले, अग्नि रूप जिहा से सोम पान करने वाले, अत्यन्त तेजस्वी तरुण, मेधावान्, प्रख्यात कर्म वाले, मित्र, वरुण और आदित्य देव हमारी स्तुतियाँ सुनें ॥१०॥ हिरण्यपाणिः सविता सुजिह्वस्त्रिरा दिवो विदथे पत्यमानः । देवेषु च सवितः श्लोकमश्रेरादस्मभ्यमा सुव सर्वतातिम् ॥११॥ स्वर्णिम ऐश्वर्य को दान के लिए हाथ में रखने वाले, उत्तम प्रेरणाएँ प्रदान करने वाले सवितादेव, यज्ञ के तीनों सवनों में आकाश में आते हैं। वे देवों के बीच बैठकर हमारे स्तोत्रों को सुनें और हमें सम्पूर्ण इष्ट-फल प्रदान करे ॥११॥ सुकृत्सुपाणिः स्ववाँ ऋतावा देवस्त्वष्टावसे तानि नो धात् । पूषण्वन्त ऋभवो मादयध्वमूर्ध्वग्रावाणो अध्वरमतष्ट ॥१२॥ कल्याणकारी कर्मवाले, मंगलमय हाथों वाले, धन-सम्पन्न, सत्यव्रतों वाले त्वष्टादेन हमें अभीष्ट फल प्रदान करें। हैं भुओं ! सोमाभिषव हेतु पाषाण धारक चिज्ञों ने यज्ञ किया हैं। अतएव आप पूषा के साथ उस सोम का पान करके हर्षित हों ॥१२॥ विद्युद्रथा मरुत ऋष्टिमन्तो दिवो मर्या ऋतजाता अयासः । सरस्वती शृणवन्यज्ञियासो धाता रयिं सहवीरं तुरासः ॥१३॥ विद्युत् के समान देदीप्यमान रथ वाले, आयुध धारण करने वाले, तेजस्वी, शत्रु-विनाशक, यज्ञ से उत्पन्न होने वाले, वेगवान् तथा यजन योग्य मरुद्गण और देवी सरस्वती हमारी स्तुतियों का श्रवण करें। हे शीघ गमनशील मरुद्गणों! हमें उत्तम वीर पुत्रों से युक्त ऐश्वर्य प्रदान करें ॥१३॥ विष्णुं स्तोमासः पुरुदस्ममर्का भगस्येव कारिणो यामनि ग्मन् । उरुक्रमः ककुहो यस्य पूर्वीर्न मर्धन्ति युवतयो जनित्रीः ॥१४॥ सर्वदा तरुणी, सर्व-जनयत्री, विविध दिशाएँ जिन विष्णुदेव की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती, वे विष्णुदेव बहुत पराक्रमी हैं। उन बहुकर्मा विष्णुदेव के पास यज्ञ में उच्चारित हमारे पूजनीय स्तोत्र उसी प्रकार पहुंचे, जैसे सभी कर्मनिष्ठ, धनवान् के पास पहुंचते हैं॥१४॥ इन्द्रो विश्वर्वीर्यैः पत्यमान उभे आ पप्रौ रोदसी महित्वा । पुरंदरो वृत्रहा धृष्णुषेणः संगृभ्या न आ भरा भूरि पश्वः ॥१५॥ सम्पूर्ण सामथ्र्यों से युक्त वे इन्द्रदेव अपनी महत्ता से द्यावा-पृथिवी दोनों को परिपूर्ण कर देते हैं। शत्रु पुरियों के विध्वंसक वृत्रहन्ता, आक्रामक सेना युक्त वे पशुओं का संग्रह करके हमारे लिए विपुल वैभव प्रदान करें ॥१५॥ नासत्या मे पितरा बन्धुपृच्छा सजात्यमश्विनोश्चारु नाम । युवं हि स्थो रयिदौ नो रयीणां दात्रं रक्षेथे अकवैरदब्धा ॥१६॥ अरात्य से दूर रहने वाले है अश्विनीकुमारों! आप दोनों पिता के रामान हम साधकों की अभिलाषा को पूछ कर उन्हें पूर्ण करने वाले हैं । आप दोनों का जन्म से प्रचलित नाम अति सुन्दर है। आप दोनों अपार वैभन, धन ऐश्वर्य सें सम्पन्न हैं, हमें विपुल धन प्रदान करें। आप दोनों अविचलित रहकर हविदाता की रक्षा करें ॥१६॥ महत्तद्वः कवयश्चारु नाम यद्ध देवा भवथ विश्व इन्द्रे । सख ऋभुभिः पुरुहूत प्रियेभिरिमां धियं सातये तक्षता नः ॥१७॥ हे देवो ! आपका यह नाम-यश अत्यन्त महान् और मनोहर है, जिसके कारण आप सब इन्द्रलोक में दिव्य स्थान पाते हैं। बहुतों द्वारा आवाहन किये जाने वाले है इन्द्रदेव! अपने प्रिय भुओं के साथ आप सखाभाव रखते हैं। हमें धनादि लाभ प्रदान करने के लिए हमारी इन रस्तुतियों को उनके साथ स्वीकार करें ॥१७॥ अर्यमा णो अदितिर्यज्ञियासोऽदब्धानि वरुणस्य व्रतानि । युयोत नो अनपत्यानि गन्तोः प्रजावान्नः पशुमाँ अस्तु गातुः ॥१८॥ अर्थमा, देवमाता अदिति, यजनीय देवगण और अविचल नियम- पालक वरुणदेव हमारी रक्षा करें। हमारे (जीवन) मार्गों से निःसन्तान के योग को दूर करें और घर को सन्तानों और पशुओं से युक्त करें ॥१८॥ देवानां दूतः पुरुध प्रसूतोऽनागान्नो वोचतु सर्वताता । शृणोतु नः पृथिवी द्यौरुतापः सूर्यो नक्षत्रैरुर्वन्तरिक्षम् ॥१९॥ विविध भाँति से प्रकट होने वाले, देवों के दूतरूप अग्निदेव हम निष्पाप लोगों को भली प्रकार उपदेश करें। पृश्नी, द्युलोक और जल, सूर्य-नधात्रों से पूर्ण अन्तरिक्ष हमारी स्तुतियाँ सुने ॥१९॥ शृण्वन्तु नो वृषणः पर्वतासो ध्रुवक्षेमास इळ्या मदन्तः । आदित्यैर्नो अदितिः शृणोतु यच्छन्तु नो मरुतः शर्म भद्रम् ॥२०॥ जत-वृष्टि करके मनुष्य का कल्याण करने वाले, वनस्पति आदि से हर्षित करने वाले पर्वतदेय हमारी स्तुतियाँ सुनें । देवमाता अदिति, आदित्यों के साथ हमारी स्तुतियाँ सुने । मरुद्गण हमें कल्याणकारों सुख प्रदान करें ॥२०॥ सदा सुगः पितुमाँ अस्तु पन्था मध्वा देवा ओषधीः सं पिपृक्त । भगो में अग्ने सख्ये न मृध्या उद्रायो अश्यां सदनं पुरुक्षोः ॥२१॥ मारे मार्ग सर्वदा सुगम हों और अन्नों से युक्त हों । हे देवो ! हुमारी ओषधियों को मधुर रस से युक्त करें। हे अग्निदेव ! आपकी मित्रता में हमारा ऐश्वर्य विनष्ट न हों। हम आपके अनुभह से धनादि और अत्रों से परिपूर्ण गृह को प्राप्त करें ॥२१॥ स्वदस्व हव्या समिषो दिदीह्यस्मद्यक्सं मिमीहि श्रवांसि । विश्वाँ अग्ने पृत्सु ताज्जेषि शत्रूनहा विश्वा सुमना दीदिही नः ॥२२॥ हैं अग्ने! आप हुड्य पदार्थों का आस्वादन करें और हमें अत्रादि प्रदान करें। सभी अन्नों को हमारी और प्रेरित करें। आप शत्रुओं को संग्राम में जीतें । उल्लसित मन से युक्त होकर आप सभी दिवसों को प्रकाशित करें ॥२२॥

Recommendations