ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ६

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त ६ ऋषि - वसुश्रुत आत्रेयः देवता - अग्नि । छंद - पंक्ति अग्निं तं मन्ये यो वसुरस्तं यं यन्ति धेनवः । अस्तमर्वन्त आशवोऽस्तं नित्यासो वाजिन इषं स्तोतृभ्य आ भर ॥१॥ सबके आश्रय स्थल उन अग्निदेव से हम परिचित हैं, जिन अग्निदेव को प्रदीप्त जानकर गौएँ गोधूलि वेला में अपने-अपने बाड़े में वापिस लौटती हैं तथा तीव्रगामी अश्व नित्य ही उन अग्निदेव को प्रदीप्त देखकर अश्वशाला में लौटते हैं। हे अग्निदेव ! ऐसे आप याजकों के लिए प्रचुर धन-धान्य प्रदान करें ॥१॥ सो अग्निर्यो वसुर्गुणे सं यमायन्ति धेनवः । समर्वन्तो रघुद्रुवः सं सुजातासः सूरय इषं स्तोतृभ्य आ भर ॥२॥ जो सबके आश्रयरूप एवं सहायक हैं, उन्हीं अग्निदेव की हम प्रार्थना करते हैं। जिनके समीप गौएँ आती हैं और शीघ्र गतिमान् अश्व भी जिनके समीप आते हैं, ऐसे अग्निदेव की श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न होकर सुसंस्कार सम्पन्न विद्वान् पुरुष उपासना करते हैं। इन गुणों से युक्त हे अग्निदेव ! याजकों के लिए आप प्रचुर धन-धान्य प्रदान करें ॥२॥ अग्निर्हि वाजिनं विशे ददाति विश्वचर्षणिः । ं अग्नी राये स्वाभुवं स प्रीतो याति वार्यमिषं स्तोतृभ्य आ भर ॥३॥ ये अग्निदेव निश्चय ही यजमान को अन्न देने वाले, पूज्य और सब पर दृष्टि रखने वाले हैं। वे प्रसन्न होकर यज्ञ में सबको ऐश्वर्य प्रदान करने में किञ्चित् मात्र संकोच नहीं करते। हे अग्निदेव ! आप स्तोताओं को पर्याप्त पोषण दें ॥३॥ आ ते अग्न इधीमहि ह्युमन्तं देवाजरम् । यद्ध स्या ते पनीयसी समिद्दीदयति द्यवीषं स्तोतृभ्य आ भर ॥४॥ हे अग्निदेव ! प्रकाशयुक्त एवं जरारहित (नित्य युवा) आपको हम प्रज्वलित करते हैं। आपकी श्रेष्ठ ज्योति द्युलोक में प्रकाशित होती हैं। आप स्तोताओं को अन्न (पोषण) से परिपूर्ण कर दें ॥४॥ आ ते अग्न ऋचा हविः शुक्रस्य शोचिषस्पते । सुश्चन्द्र दस्म विश्पते हव्यवाट् तुभ्यं हूयत इषं स्तोतृभ्य आ भर ॥५॥ विश्व का पोषण करने वाले, शत्रुओं का विनाश करने वाले, देवताओं को हवि पहुँचाने वाले, आनन्दवर्द्धक, स्वप्रकाशित हे अग्निदेव ! ऋचाओं का उच्चारण करते हुए, याजकगण आपकी ज्वालाओं में आहुति दे रहे हैं; उन स्तोताओं को आप ऐश्वर्य प्रदान करें ॥५॥ प्रो त्ये अग्नयोऽग्निषु विश्वं पुष्यन्ति वार्यम् । ते हिन्विरे त इन्विरे त इषण्यन्त्यानुषगिषं स्तोतृभ्य आ भर ॥६॥ ये अग्निदेव अन्य सब अग्नियों में वरण करने योग्य, सब धनों को पुष्ट करते हैं। वे आनन्द प्रदायक अग्निदेव सबको श्रेष्ठ मार्ग में प्रेरित करते हैं। वे हविष्यान्न की कामना करते हैं, ऐसे हे अग्निदेव! आप स्तोताओं को अभीष्ट अन्नादि से समृद्ध करें ॥६॥ तव त्ये अग्ने अर्चयो महि व्राधन्त वाजिनः । ये पत्वभिः शफानां व्रजा भुरन्त गोनामिषं स्तोतृभ्य आ भर ॥७॥ हे अग्निदेव ! आपकी किरणें आहुतियों से युक्त होकर वृद्धि पाती हैं। आपकी तेजस्वी किरणे शब्दवान् होकर हवि की कामना करती हैं। हे अग्निदेव ! स्तोताओं को अन्नादि से पूर्ण करें ॥७॥ नवा नो अग्न आ भर स्तोतृभ्यः सुक्षितीरिषः । ते स्याम य आनृचुस्त्वादूतासो दमेदम इषं स्तोतृभ्य आ भर ॥८॥ हे अग्निदेव ! हम स्तोताओं को नवीन अन्नों से युक्त उत्तम आवास प्रदान करें, जिससे हम घर-घर में आपकी पूजा करें और आपको दूत रूप में पाकर सुखी हों। हे अग्निदेव स्तोताओं को अभीष्ट अन्नादि से अभिपूरित करें ॥८॥ उभे सुश्चन्द्र सर्पिषो दर्वी श्रीणीष आसनि । उतो न उत्पुपूर्या उक्थेषु शवसस्पत इषं स्तोतृभ्य आ भर ॥९॥ प्रजा का पालन करने वाले, शक्ति-सम्पन्न, देदीप्यमान हे अग्निदेव ! आहुति प्रदान करते समय दोनों पात्र आपके मुख तक पहुँचते हैं । हविष्यान्न द्वारा आपको प्रसन्न करने वाले स्तोताओं को महान् ऐश्वर्य प्रदान करें ॥९॥ एवाँ अग्निमजुर्यमुर्गीर्भिर्यज्ञेभिरानुषक् । दधदस्मे सुवीर्यमुत त्यदाश्वव्यमिषं स्तोतृभ्य आ भर ॥१०॥ हम लोग यज्ञों में उत्तम वाणियों के द्वारा अग्निदेव का पूजन करते हैं। वे अग्निदेव हमें उत्तम, वीर पुत्र-पौत्रादि और बलशाली अप्वों को प्रदान करें। स्तोताओं को अभीष्ट अन्नादि से समृद्ध करें ॥१०॥

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