ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ५८

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ५८ ऋषि-नौधा गौतम देवता - अग्नि छंद - जगती, ६-९ त्रिष्टुप नू चित्सहोजा अमृतो नि तुन्दते होता यद्वतो अभवद्विवस्वतः । वि साधिष्ठेभिः पथिभी रजो मम आ देवताता हविषा विवासति ॥१॥ निश्चित रूप से बलों से उत्पन्न (अरणि मन्थन द्वारा उत्पन्न) यह अमर अग्निदेव कभी संतप्त नहीं होते। वे यजमान के दूत रूप में सहायक होते हैं। वे अपने उत्तम मार्गों से अन्तरिक्ष में प्रकाशित होते हुए गमन करते हैं। देवों को समर्पित हविष्यान्न उन तक पहुँचाकर सम्मानित करते हैं॥१॥ आ स्वमद्म युवमानो अजरस्तृष्वविष्यन्नतसेषु तिष्ठति । अत्यो न पृष्ठं पुषितस्य रोचते दिवो न सानु स्तनयन्नचिक्रदत् ॥२॥ कभी जीर्णता को न प्राप्त होने वाले अग्निदेव, हवियों के साथ मिलकर इनका भक्षण करते हुए समिधाओं पर दीप्तिमान् होते हैं। घृत के सिंचन से ऊपर उठती हुई इनकी ज्वालायें सज्जित अश्व के सदृश सुशोभित होती हैं। ये आकाशस्थ मेघ के गर्जन के समान शब्द करते हुए वृद्धि को प्राप्त होते हैं॥२॥ क्राणा रुद्रेभिर्वसुभिः पुरोहितो होता निषत्तो रयिषाळमर्त्यः । रथो न विवृञ्जसान आयुषु व्यानुषग्वार्या देव ऋण्वति ॥३॥ यज्ञादि कर्मों के सम्पादन में कुशल, रुद्रों और वसुओं द्वारा अग्रिम रूप में स्थापित, होता रूप, अविनाशी, धन-प्रदाता, प्रतिष्ठित अग्निदेव, याजकों की स्तुतियों से, रथ के समान बढ़ती हुई प्रजाओं में क्रमशः वरण करने योग्य श्रेष्ठ धनों को स्थापित करते हैं॥३॥ वि वातजूतो अतसेषु तिष्ठते वृथा जुहूभिः सृण्या तुविष्वणिः । तृषु यदग्ने वनिनो वृषायसे कृष्णं त एम रुशदूर्मे अजर ॥४॥ वायु के संयोग से समिधाओं पर प्रज्वलित अग्निदेव तेजस्वी ज्वालाओं के साथ शब्दायमान होते हुए सुशोभित हो रहे हैं। हे अजर, दीप्तिमान् अग्निदेव ! आप अपनी प्रखर शक्ति से वनों को (समिधाओं को) प्रभावित करते हुए काले धूम्र के रूप में उठकर अपनी उपस्थिति का बोध करा रहे हैं॥४॥ तपुर्जम्भो वन आ वातचोदितो यूथे न साह्वाँ अव वाति वंसगः । अभिव्रजन्नक्षितं पाजसा रजः स्थातुश्चरथं भयते पतत्रिणः ॥५॥ वायु द्वारा प्रेरित, प्रज्वलित तेजस्वी झ्यालाओं रूपी दाढ़ वाले अग्निदेव वनों में गो समूह के बीच स्वच्छन्द बैल की तरह घूमते हैं। जब ये अनन्त अन्तरिक्ष में पक्षों के समान वेग से घूमते हैं, तो सारे स्थावर जंगम भयभीत हो उठते हैं॥५॥ दधुष्वा भृगवो मानुषेष्वा रयिं न चारुं सुहवं जनेभ्यः । होतारमग्ने अतिथिं वरेण्यं मित्रं न शेवं दिव्याय जन्मने ॥६॥ हे अग्निदेव ! मनुष्यों द्वारा सुख प्राप्ति के निमित्त, आहवनीय, होतारूप, अतिथिरूप, पूज्य, वरण करने योग्य, मित्र तुल्य, सुखद, तेजस्वी, धन के सदृश सुन्दर रूप वाले आपको, भृगुओं ने मनुष्यों में देवत्व की प्राप्ति के लिए स्थापित किया ॥६॥ होतारं सप्त जुह्वो यजिष्ठं यं वाघतो वृणते अध्वरेषु । अग्निं विश्वेषामरतिं वसूनां सपर्यामि प्रयसा यामि रत्नम् ॥७॥ आवाहन करने वाले सात ऋत्विज और होतागण यज्ञों में श्रेष्ठ होता रूप अग्निदेव का वरण करते हैं। उन सम्पूर्ण धनों को देने वाले अग्निदेव की हविष्यान्न द्वारा सेवा करते हुए, हम उनसे रत्नों की याचना करते हैं॥७॥ अच्छिद्रा सूनो सहसो नो अद्य स्तोतृभ्यो मित्रमहः शर्म यच्छ । अग्ने गृणन्तमंहस उरुष्योर्जी नपात्पूर्भिरायसीभिः ॥८॥ बल के पुत्र, श्रेष्ठ मित्र रूप में अग्निदेव ! हम स्तोताओं को आज श्रेष्ठ सुख प्रदान करें । बलों को न क्षीण करने वाले हे अग्निदेव ! आप अपने फौलादी दुर्गों से जैसे हम स्तोताओं की रक्षा करते हैं, वैसे आप हमें पापों से रक्षित करें ॥८॥ भवा वरूथं गृणते विभावो भवा मघवन्मघवद्भयः शर्म । उरुष्याग्ने अंहसो गृणन्तं प्रातर्मधू धियावसुर्जगम्यात् ॥९॥ हे देदीप्यमान् अग्निदेव ! स्तोता के लिये आप आश्रयरूप हों। हे ऐश्वर्यंशालिन् अग्निदेव ! आप धन वाले याजक के लिये सुख प्रदायक हों। स्तोताओं को पापों से रक्षित करें। विचारपूर्वक वैभव देने वाले हैं। अग्निदेव ! आप प्रातःकाल (यज्ञ में) शीघ्र पधारें ॥९॥

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