ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त १७

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त १७ ऋषि - पुरूरात्रेयः देवता - अग्नि । छंद -अनुष्टुप, ५ पंक्ति आ यज्ञैर्देव मर्त्य इत्था तव्यांसमूतये । अग्निं कृते स्वध्वरे पूरुरीळीतावसे ॥१॥ हे अग्निदेव ! जिस प्रकार पूरु ऋषि ने अपने द्वारा सम्पादित उत्तम यज्ञ में अपनी रक्षा की कामना से आपकी स्तुति की, उसी प्रकार मनुष्यगण भी अपने यज्ञ में अपनी रक्षा के लिए उत्तम स्तुतियों के साथ आपका आवाहन करते हैं ॥१॥ अस्य हि स्वयशस्तर आसा विधर्मन्मन्यसे । तं नाकं चित्रशोचिषं मन्द्रं परो मनीषया ॥२॥ हे धर्मानुयायी स्तोताओ ! आप अत्यन्त श्रेष्ठ और यशस्वी कर्म वाले हैं। जो स्तुत्य हैं, जिनका तेज अति विलक्षण है और जो दुःखरहित हैं, ऐसे उन अग्निदेव की आप (स्तोतागण) अपनी श्रेष्ठ बुद्धियुक्त वाणियों से स्तुति करें ॥२॥ अस्य वासा उ अर्चिषा य आयुक्त तुजा गिरा । दिवो न यस्य रेतसा बृहच्छोचन्त्यर्चयः ॥३॥ जो अग्निदेव अपने बल और स्तुतियों से सामर्थ्ययुक्त हैं, जो सूर्यदेव की भाँति दीप्तिमान् हैं, जिनकी विस्तीर्ण ज्वालाओं और तेजों से सम्पूर्ण जगत् प्रकाशयुक्त होता है, इनके वर्चस् से सूर्यदेव भी प्रकाशयुक्त हुए हैं ॥३॥ अस्य क्रत्वा विचेतसो दस्मस्य वसु रथ आ । अधा विश्वासु हव्योऽग्निर्विक्षु प्र शस्यते ॥४॥ श्रेष्ठ बुद्धि-सम्पन्न ऋत्विग्गण उन दर्शनीय अग्निदेव का यजन करके धन-संयुक्त रथ प्राप्त करते हैं। हव्यवाहक वे अग्निदेव सम्पूर्ण प्रजाओं द्वारा सम्यक् रूप से प्रशंसित होते हैं ॥४॥ नू न इद्धि वार्यमासा सचन्त सूरयः । ऊर्जा नपादभिष्टये पाहि शग्धि स्वस्तय उतैधि पृत्सु नो वृधे ॥५॥ हे अग्निदेव ! जिस धन को स्तोतागण आपकी स्तुतियों द्वारा प्राप्त करते हैं, वह वरणीय धन हमें शीघ्र प्राप्त कराये । हे बल संयुक्त अग्निदेव ! हमें अभीष्ट अन्नों को देकर रक्षित करें। हमें कल्याणकारी पशुधन से संयुक्त करें और संग्राम में हमारी वृद्धि का यत्न करें ॥५॥

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