ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ७

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ७ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - अग्निः । छंद - त्रिष्टुप प्र य आरुः शितिपृष्ठस्य धासेरा मातरा विविशुः सप्त वाणीः । परिक्षिता पितरा सं चरेते प्र सति दीर्घमायुः प्रयक्षे ॥१॥ पृष्ठ भाग जिनका नीलवर्ण हैं-ऐसे सर्वधारक अग्निदेव की ज्वालाएँ उन्नत उठती हैं, वे मातृ-पितृ रूपा द्यावा-पृथिवी में एवं प्रवहमान सप्त धाराओं में भी प्रविष्ट होती हैं। सर्वत्र व्यापक इन अग्निदेव के साथ द्यावा-पृथिवी भी संचरित होती है। वे दोनों अग्निदेव को दीर्घायु भी प्रदान करते हैं॥१॥ दिवक्षसो धेनवो वृष्णो अश्वा देवीरा तस्थौ मधुमद्वहन्तीः । ऋतस्य त्वा सदसि क्षेमयन्तं पर्येका चरति वर्तनिं गौः ॥२॥ द्युलोक में संव्याप्त बलशाली अग्नि के अश्व (गतिशील किरणे) धेनु (पोषण करने वाली) भी हैं। वे अग्निदेव (प्रकृति के) मधुर प्रवाहों में भी स्थिर रहते हैं। हे अग्निदेव! आप यज्ञ गृह में रहकर अपनी ज्वालाओं को विस्तारित करते हैं। एक गौ (पृथ्वी अथवा वाणी) आपकी परिचर्या करती हैं॥२॥ आ सीमरोहत्सुयमा भवन्तीः पतिश्चिकित्वात्रयिविद्रयीणाम् । प्र नीलपृष्ठो अतसस्य धासेस्ता अवासयत्पुरुधप्रतीकः ॥३॥ धनों में उत्कृष्टतम धन-सम्पन्न, ज्ञान-सम्पन्न, अधीश्वर अग्निदेव सुनियोजित अश्वों (समिधाओं) पर आरूढ़ होते हैं। नीले पृष्ठ वाले, विविध प्रतीकों के रूप में अग्निदेव ने इन समिधाओं को सतत प्रयोग के लिए अपने पास रख लिया ॥३॥ महि त्वाष्टमूर्जयन्तीरजुर्यं स्तभूयमानं वहतो वहन्ति । व्यङ्गेभिर्दिद्युतानः सधस्थ एकामिव रोदसी आ विवेश ॥४॥ बलवती और प्रवाहित धारायें उन महान् त्वष्टा पुत्र अजर, सर्वभूत धारक अग्निदेव को धारण करती हैं। जैसे पुरुष पत्नी के पास जाता है, वैसे अग्निदेव प्रज्वलित होकर अत्यन्त दीप्तिमान् अंगों को पाकर द्यावा-पृथिवीं में व्याप्त होते हैं ॥४॥ जानन्ति वृष्णो अरुषस्य शेवमुत ब्रध्नस्य शासने रणन्ति । दिवोरुचः सुरुचो रोचमाना इळा येषां गण्या माहिना गीः ॥५॥ उन बलशाली और अहिंसक अग्निदेव के आश्रयरूप सुख को लोग जानते हैं और उनके संरक्षण में आनन्द पूर्वक रहते हैं। जिन अग्निदेव के लिए स्तोताओं की स्तुति रूप वाणी प्रवाहित होती है, वे अग्निदेव आकाश को दीप्तिमान् कर स्वयं भी उत्तम दीप्ति से सुशोभित होते हैं॥५॥ उतो पितृभ्यां प्रविदानु घोषं महो महद्भयामनयन्त शूषम् । उक्षा ह यत्र परि धानमक्तोरनु स्वं धाम जरितुर्ववक्ष ॥६॥ स्तोताओं ने उत्कृष्टतम पितृ-मातृ रूपा द्यावा-पृथिवी में संव्याप्त अग्निदेव को जानकर, उच्च उद्घोषों युक्त स्तुतियों द्वारा सुख को प्राप्त किया। जल सिंचनशील अग्निदेव रात्रि में आच्छादित अपने तेज को स्तोताओं के निमित्त प्रेरित करते हैं॥६॥ अध्वर्युभिः पञ्चभिः सप्त विप्राः प्रियं रक्षन्ते निहितं पदं वेः । प्राञ्चो मदन्त्युक्षणो अजुर्या देवा देवानामनु हि व्रता गुः ॥७॥ पाँच अध्वर्युओं के साथ सात होतागण कान्तियुक्त अग्निदेव के प्रिय स्थान (यज्ञों) की रक्षा करते हैं। जो ऋत्विज पूर्व की ओर मुख करके सोमपान आदि के निमित्त अथक श्रम करते हैं और देवों के व्रतों का अनुगमन करते हैं, उनसे देवगण अतिशय प्रसन्न होते हैं॥७॥ दैव्या होतारा प्रथमा न्यूने सप्त पृक्षासः स्वधया मदन्ति । ऋतं शंसन्त ऋतमित्त आहुरनु व्रतं व्रतपा दीध्यानाः ॥८॥ हम दिव्य और प्रधान अग्निरूप दोनों होताओं को तृप्त करते हैं । अन्नवान् यज्ञ की इच्छा वाले सात ऋत्विज भी इन दोनों को हविष्यान्न से हर्षित करते हैं। वे व्रतपालक और तेजस्वी अंत्वग्गण "यज्ञादि व्रतों का अनुगमन ही सत्य है" ऐसा कहते हैं॥८॥ वृषायन्ते महे अत्याय पूर्वीवृष्णे चित्राय रश्मयः सुयामाः । ं देव होतर्मन्द्रतरश्चिकित्वान्महो देवात्रोदसी एह वक्षि ॥९॥ हे दीप्तिमान् देवों का आवाहन करने वाले अग्निदेव ! आप सब पर प्रकाश से आच्छादित होने वाले, महान् विलक्षण वर्ण वाले और बलवान् हैं । आपकी विविध सुविस्तृत, सर्वत्र गमनशील रश्मियाँ आपको बलशाली बनाती हैं। आप आह्लादक एवं ज्ञानवान् महान् देवों को और द्यावा-पृथिवी को यहाँ ले आएँ ॥९॥ पृक्षप्रयजो द्रविणः सुवाचः सुकेतव उषसो रेवदूषुः । उतो चिदग्ने महिना पृथिव्याः कृतं चिदेनः सं महे दशस्य ॥१०॥ ये सर्वत्र गमनशील, उत्तम धनवती, उत्तम वाणियों से स्तुत होने वाली, उत्तम किरणों वाली देवी उषा हमें धन से युक्त करती हुई प्रकाशित होती हैं। हे अग्निदेव ! आप अपनी व्यापक महिमा से यजमान के पापों को विनष्ट करें ॥१०॥ इळामग्ने पुरुदंसं सनिं गोः शश्वत्तमं हवमानाय साध । स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुमतिर्भूत्वस्मे ॥११॥ हे अग्निदेव ! आप हम स्तोताओं के लिए सर्वदा श्रेष्ठ रहने वाली, अनेक कर्मों में प्रयुक्त होने वाली, गौओं को पुष्ट करने वाली भूमि प्रदान करें। हमारे पुत्र-पौत्रादि से वंश वृद्धि होती रहे। हे अग्निदेव ! आपकी उत्तम बुद्धि से हमें अनुग्रह की प्राप्ति हो ॥११॥

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