ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त १७

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त १७ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः। देवता- इन्द्रः । छंद - जगती, ८-९ त्रिष्टुप । तदस्मै नव्यमङ्गिरस्वदर्चत शुष्मा यदस्य प्रत्नथोदीरते । विश्वा यद्गोत्रा सहसा परीवृता मदे सोमस्य हंहितान्यैरयत् ॥१॥ इन इन्द्रदेव का पराक्रम आदि काल की तरह ही बढ़ रहा हैं । इन्द्रदेव ने सोमरस के पान से उत्साहित होकर शत्रुओं के सम्पूर्ण सुदृढ़ गढ़ों को अपने बल से ध्वस्त कर दिया था । हे स्तोताओ ! अंगिराओं की तरह उत्तम स्तुतियों द्वारा इन्द्रदेव की उपासना करो ॥१॥ स भूतु यो ह प्रथमाय धायस ओजो मिमानो महिमानमातिरत् । शूरो यो युत्सु तन्वं परिव्यत शीर्षणि द्यां महिना प्रत्यमुञ्चत ॥२॥ जिन इन्द्रदेव ने सर्वप्रथम अपने बल को बढ़ाने के लिए सोम रस का पान किया था, उनका वह बल सदैव बना रहे। शत्रुनाशक इन्द्रदेव ने संग्राम में अपने शरीर पर कवच धारण किया और अपनी महानता से द्युलोक को अपने मस्तक पर धारण किया ॥२॥ अधाकृणोः प्रथमं वीर्यं महद्यदस्याग्रे ब्रह्मणा शुष्ममैरयः । रथेष्ठेन हर्यश्वन विच्युताः प्र जीरयः सिस्रते सध्यक्पृथक् ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! स्तोताओं की स्तुतियों से प्रसन्न होकर, शत्रुनाशक बल दिखाकर आपने महान् पराक्रम प्रकट किया। समर्थ घोड़ों वाले रथ में आरूढ़ आपके शत्रुनाशक स्वरूप को देखकर असुरों का समूह अलग-अलग होकर भाग गया॥३॥ अधा यो विश्वा भुवनाभि मज्मनेशानकृत्प्रवया अभ्यवर्धत । आद्रोदसी ज्योतिषा वह्निरातनोत्सीव्यन्तमांसि दुधिता समव्ययत् ॥४॥ सबसे उत्कृष्ट बलशाली होकर इन्द्रदेव ने अपने महान् पराक्रम से सभी भुवनों का विस्तार किया और सभी के अधिपति हुए । इसके बाद द्यावा-पृथिवी को अपने तेज से संव्याप्त किया तथा दूर-दूर तक फैले हुए अन्धकार को सूर्य की भाँति नष्ट किया ॥४॥ स प्राचीनान्पर्वतान्हंहदोजसाधराचीनमकृणोदपामपः । अधारयत्पृथिवीं विश्वधायसमस्तभ्नान्मायया द्यामवस्रसः ॥५॥ उन महान् इन्द्रदेव ने अपनी सामर्थ्य के द्वारा सभी को आश्रय प्रदान करने वाली पृथिवी को धारण किया तथा धुलोक नीचे न गिरने पाये, इसके लिए थामे रखा। हिलने वाले पर्वतों को अपनी शक्ति से स्थिर किया तथा जल के प्रवाह को नीचे की ओर प्रवाहित किया ॥५॥ सास्मा अरं बाहुभ्यां यं पिताकृणोद्विश्वस्मादा जनुषो वेदसस्परि । येना पृथिव्यां नि क्रिविं शयध्यै वज्रेण हत्व्यवृणक्तुविष्वणिः ॥६॥ सभी जन्मधारी जीवों के पालनकर्ता इन्द्रदेव ने अपने वज्र को सब प्रकार से समर्थ किया । विद्युत् के समान गर्जना करने वाले वज्र से इन्द्रदेव ने 'क्रिवि' नामक राक्षस को मारकर पृथ्वी पर सुला दिया । वह वज्र इन्द्रदेव की भुजाओं को सामर्थ्यवान् बनाये ॥६॥ अमाजूरिव पित्रोः सचा सती समानादा सदसस्त्वामिये भगम् । कृधि प्रकेतमुप मास्या भर दद्धि भागं तन्वो येन मामहः ॥७॥ जिस प्रकार माता-पिता के साथ रहने वाली पुत्री अपने माता-पिता से ही आजीविका की याचना करती है, उसी प्रकार हे देव! हम आप से ऐश्वर्य की याचना करते हैं। आप जिस ऐश्वर्य से स्तोताओं को महान् बनाते हैं, हमारे लिए वह उपयोगी अन्न तथा श्रेष्ठ धन प्रदान करें ॥७॥ भोजं त्वामिन्द्र वयं हुवेम ददिष्टुमिन्द्रापांसि वाजान् । अविड्डीन्द्र चित्रया न ऊती कृधि वृषन्निन्द्र वस्यसो नः ॥८॥ हे इन्द्रदेव ! आप श्रेष्ठ कर्मा तथा अन्न के दाता हैं। हम लोग पालक के रूप में बार-बार आपका आवाहन करते हैं। आप रक्षा साधनों से युक्त होकर हमें संरक्षण प्रदान करें। हे कामनाओं की पूर्ति करने वाले इन्द्रदेव ! आप हमें ऐश्वर्यवान् बनायें ॥८॥ नूनं सा ते प्रति वरं जरित्रे दुहीयदिन्द्र दक्षिणा मघोनी । शिक्षा स्तोतृभ्यो माति धग्भगो नो बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥९॥ हे इन्द्रदेव ! यज्ञ के समय आपके द्वारा स्तोताओं के निमित्त दी गयी ऐश्वर्य युक्त दक्षिणा निश्चित रूप से धन प्रदान कराती है, अतः स्तोताओं के साथ हमें भी वह ऐश्वर्य युक्त दक्षिणा प्रदान करें, जिससे हम यज्ञ में महान् पराक्रम प्रदान करने वाले स्तोत्रों से स्तुतियाँ करें ॥९॥

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