ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त २८

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त २८ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - अग्निः । छंद -१-२, ६ गायत्री, ३ उषणिक, ४ त्रिष्टुप, ५ जगती अग्ने जुषस्व नो हविः पुरोळाशं जातवेदः । प्रातःसावे धियावसो ॥१॥ हे जातवेदा अग्निदेव ! हमारी स्तुतियाँ आपके पास निवास करती हैं। आप प्रातः सवन में हमारे पास आकर पुरोडाश और हव्यादि का सेवन करें ॥१॥ पुरोळा अग्ने पचतस्तुभ्यं वा घा परिष्कृतः । तं जुषस्व यविष्ठ्य ॥२॥ हे अतिशय युवा अग्निदेव! आपके लिए पुरोडाश पकाया गया है और उसे घृतादि द्वारा सुसंस्कृत किया गया है, आप उसे ग्रहण करें ॥२॥ अग्ने वीहि पुरोळाशमाहुतं तिरोअन्यम् । सहसः सूनुरस्यध्वरे हितः ॥३॥ हे अग्निदेव ! सन्ध्या वेला में समर्पित किये गये पुरोड़ाश का आप सेवन करें। आप बल के पुत्र हैं और यज्ञ में सर्वहितकारी हैं॥३॥ माध्यंदिने सवने जातवेदः पुरोळाशमिह कवे जुषस्व । अग्ने यह्वस्य तव भागधेयं न प्र मिनन्ति विदथेषु धीराः ॥४॥ मेधावी और सर्वभूत ज्ञाता हे अग्निदेव ! इस यज्ञ में माध्यन्दिन सवन के समय समर्पित पुरोड़ाश का आप सेवन करें। यज्ञ में धीर अध्वर्युगण आपके भाग को नष्ट नहीं करते ॥४॥ अग्ने तृतीये सवने हि कानिषः पुरोळाशं सहसः सूनवाहुतम् । अथा देवेष्वध्वरं विपन्यया धा रत्नवन्तममृतेषु जागृविम् ॥५॥ बल के पुत्र हे अग्निदेव ! तीसरे सवन में दिए गए पुरोड़ाश को आप स्वीकार करें । तदनन्तर अविनाशी, रलधारक, चैतन्यस्वरूप सोम को देवों के पास पहुँचाएँ ॥५॥ अग्ने वृधान आहुतिं पुरोळाशं जातवेदः । जुषस्व तिरोअन्यम् ॥६॥ हे जातवेदा अग्निदेव ! विवर्धमान आप दिन के अन्त में समर्पित पुरोड़ाश रूपी आहुतियों का सेवन करें ॥६॥

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