ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ३

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त ३ ऋषि - वसुश्रुत आत्रेयः देवता - अग्नि, ३ मरूदरुद्रविष्णवः। छंद त्रिष्टुप, १२ विराट त्वमग्ने वरुणो जायसे यत्त्वं मित्रो भवसि यत्समिद्धः । त्वे विश्वे सहसस्पुत्र देवास्त्वमिन्द्रो दाशुषे मर्त्याय ॥१॥ हे अग्निदेव ! जब आप प्रकट होते हैं, तो वरुण के सदृश गुण वाले होते हैं और जब आप प्रदीप्त होते हैं, तो मित्र के सदृश होते हैं। आप में ही सम्पूर्ण देवगण स्थित हैं। हे बल के पुत्र अग्निदेव ! आप हविदाता यजमान के लिए इन्द्रदेव के सदृश पूज्य हैं ॥१॥ त्वमर्यमा भवसि यत्कनीनां नाम स्वधावन्गुह्यं बिभर्षि । अज्ञ्जन्ति मित्रं सुधितं न गोभिर्यद्दम्पती समनसा कृणोषि ॥२॥ हे स्वधावान् अग्निदेव ! गुप्त नाम से आप कन्याओं के अर्यमा (नियंत्रक) रहते हैं। जब आप पति-पत्नी द्वारा गो (गौओं अथवा इन्द्रियों) के रस से सिञ्चित किये जाते हैं, तब आप उन्हें समान मन वाले बनाकर सुख देते हैं ॥२॥ तव श्रिये मरुतो मर्जयन्त रुद्र यत्ते जनिम चारु चित्रम् । पदं यद्विष्णोरुपमं निधायि तेन पासि गुह्यं नाम गोनाम् ॥३॥ हे अग्निदेव ! आपकी शोभा बढ़ाने के लिए मरुद्गण शोधन प्रक्रिया चलाते हैं। हे रुद्ररूप ! आपका जन्म सुन्दर और विलक्षण है । विष्णुदेव आपके निमित्त उपमा योग्य पद निर्धारित करते हैं। आप देवों के इन गुह्य अनुग्रहों को संरक्षित करें ॥३॥ तव श्रिया सुदृशो देव देवाः पुरू दधाना अमृतं सपन्त । होतारमग्निं मनुषो नि षेदुर्दशस्यन्त उशिजः शंसमायोः ॥४॥ हे तेजस्वी अग्निदेव ! आपकी समृद्धि से ही सभी देवगण सुन्दर रूप और अत्यन्त तेज को धारण करते हुए अमृत तत्त्व की प्राप्ति करते हैं । कामना करने वाले मनुष्य स्तुतियों के साथ घृत की हवियाँ देते हुए होता रूप अग्निदेव की सेवा करते हैं ॥४॥ न त्वद्धोता पूर्वी अग्ने यजीयान्न काव्यैः परो अस्ति स्वधावः । विशश्च यस्या अतिथिर्भवासि स यज्ञेन वनवद्देव मर्तान् ॥५॥ हे अग्निदेव ! आपसे पूर्व अन्य कोई होता नहीं था। यज्ञ करने वाला भी अन्य कोई नहीं था। हे अन्न अभिपूरित अग्निदेव ! भविष्य में भी आपके सदृश अन्य कोई काव्य स्तोत्रों द्वारा स्तुत्य नहीं होगा। आप जिसके यहाँ अतिथि रूप होते हैं, वह यजमान यज्ञ के द्वारा पुत्र- पौत्रादि प्रजाओं को प्राप्त करता है ॥५॥ वयमग्ने वनुयाम त्वोता वसूयवो हविषा बुध्यमानाः । वयं समर्ये विदथेष्वह्नां वयं राया सहसस्पुत्र मर्तान् ॥६॥ हे अग्निदेव ! धन की कामना करने वाले हम आपको प्रज्वलित कर हवियों से प्रदीप्त करते हैं। आपके अनुग्रह से हम धनों से युक्त होकर आपसे संरक्षित हों। हम सभी छोटे-बड़े युद्धों में नित्य विजय हस्तगत करें। हे बल के पुत्र अग्निदेव! हम धनों से और सन्तानों से युक्त होकर सुखी हों ॥६॥ यो न आगो अभ्येनो भरात्यधीदघमघशंसे दधात । जही चिकित्वो अभिशस्तिमेतामग्ने यो नो मर्चयति द्वयेन ॥७॥ हे अग्निदेव ! जो मनुष्य हमारे प्रति अपराध या पापपूर्ण व्यवहार करता है, उस पाप को आप उस पापी में ही विस्थापित कर दें। हे ज्ञानी अ��्निदेव ! जो हमें पाप या अपराध से प्रताड़ित करता है, आप उस पापी को मार डालें ॥७॥ त्वामस्या व्युषि देव पूर्वे दूतं कृण्वाना अयजन्त हव्यैः । संस्थे यदग्न ईयसे रयीणां देवो मर्तेर्वसुभिरिध्यमानः ॥८॥ हे अग्ने ! रात्रि की समाप्ति अर्थात् उषा की प्राकट्य वेला में पुरातन लोग आपको देवों का दूत बनाकर हवियों से यजन करते हैं। उन श्रेष्ठ मनुष्यों द्वारा प्रज्वलित होकर आप धनों औरयोग्य धामों से संपन्न करते हैं ॥८॥ अव स्पृधि पितरं योधि विद्वान्पुत्रो यस्ते सहसः सून ऊहे । कदा चिकित्वो अभि चक्षसे नोऽग्ने कदाँ ऋतचिद्यातयासे ॥९॥ हे बल के द्वारा उत्पन्न अग्निदेव ! पुत्र द्वारा पिता की सेवा करने के समान जो विद्वान् आपकी सेवा करता है, उसे आप संकटों से पार करें और पापों से मुक्त करें। हे ज्ञानी और यज्ञपालक अग्निदेव ! आप हम पर अपनी कृपा दृष्टि कब करेंगे? और हमें कब श्रेष्ठ मार्ग पर प्रेरित करेंगे? ॥९॥ भूरि नाम वन्दमानो दधाति पिता वसो यदि तज्जोषयासे । कुविद्देवस्य सहसा चकानः सुम्नमग्निर्वनते वावृधानः ॥१०॥ हे आश्रयदाता अग्निदेव! आप पिता रूप में सबके पालनकर्ता हैं। स्तुतियों के साथ वि देने वाले यजमान की वियों से संतुष्ट होकर आप उन्हें बहुत यश प्रदान करते हैं। वृद्धि को प्राप्त होते हुए, तेजयुक्त शोभा और अतीव बलों से संयुक्त ये अग्निदेव उपासक को अत्यन्त सुख देते हैं ॥१०॥ त्वमङ्ग जरितारं यविष्ठ विश्वान्यग्ने दुरिताति पर्षि । स्तेना अदृश्रत्रिपवो जनासोऽज्ञातकेता वृजिना अभूवन् ॥११॥ हे प्रिय युवा अग्निदेव! जो आपको चोर दिखाई देते हैं तथा जो कुटिल शत्रु अनजान मनुष्यों को प्रताड़ित करते हैं, ऐसे सम्पूर्ण आगत संकटों से आप हम स्तोताओं को पार लगायें ॥११॥ इमे यामासस्त्वद्रिगभूवन्वसवे वा तदिदागो अवाचि । नाहायमग्निरभिशस्तये नो न रीषते वावृधानः परा दात् ॥१२॥ हे अग्निदेव ! स्तुति करने वाले हम उपासक अब आपकी ओर अभिमुख हुए हैं। हमें अपने अपराधों को आपके सम्मुख निवेदन कर आपके आश्रय की कामना करते हैं। हमारी स्तुतियों से प्रवृद्ध ये अग्निदेव हमें निन्दकों की ओर और हिंसकों की ओर जाने से बचायें ॥१२॥

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