Maitreya Upanishad Fourth Chapter (मैत्रायणी उपनिषद) चतुर्थ प्रपाठक

॥ श्री हरि ॥ ॥ मैत्रायण्युपनिषत् ॥ ॥ मैत्रायणी उपनिषद ॥ चतुर्थः प्रपाठकः चतुर्थ प्रपाठक ते ह खल्वथोध्वरतसोऽतिविस्मिता अतिसमेत्योचुर्भगवन्नमस्ते त्वं नः शाधि त्वमस्माकं गतिरन्या न विद्यत इत्यस्य कोऽतिथिर्भूतात्मनो येनेदं हित्वामन्येव सायुज्यमुपैति तान्होवाच ॥ १॥ ब्रह्मा जी के द्वारा दिये हुए उपदेश को सुनकर ऊध्र्वरता (अखण्ड ब्रह्मचारी) श्रेष्ठ मुनि वालखिल्य जी अत्यधिक विस्मित हुए एवं निकट में जाकर कहा-हे भगवन् ! आपको नमस्कार है। आप ही हमें शरण देने वाले हैं। आपके अतिरिक्त अन्य कोई हमारा शरण स्थल नहीं। अतः आप हमें यह समझाएँ कि इस भूतात्मा का अतिथि कौन है, जिसके लिए यह सर्वस्व त्यागकर आत्मा में ही सायुज्य प्राप्त करता है? ॥ १ ॥ अथान्यत्राप्युक्तं महानदीषूर्मय इव निवर्तकमस्य यत्पुराकृतं समुद्रवेलेव दुर्निवार्यमस्य मृत्योरागमनं सदसत्फलमयैर्हि पाशैः पशुरिव बद्धं बन्धनस्थस्येवास्वातन्त्र्यं यमविषयस्थस्यैव बहुभयावस्थं मदिरोन्मत्त इवामोदममदिरोन्मत्तं पाप्मना गृहीत इव भ्राम्यमाणं महोरगदष्ट इव विपदृष्टं महान्धकार इव रागान्धमिन्द्रजालमिव मायामयं स्वप्नमिव मिथ्यादर्शनं कदलीगर्भ इवासारं नट इव क्षणवेषं चित्रभित्तिरिव मिथ्यामनोरममित्यथोक्तम् ॥ शब्दस्पर्शादयो येऽर्था अनर्था इव ते स्थिताः । येष्वासक्तस्तु भूतात्मा न स्मरेच्च परं पदम् ॥ २॥ ब्रह्माजी ने उत्तर दिया कि हे श्रेष्ठ मुने! एक अन्य स्थान में कहा गया है कि जैसे बड़ी-बड़ी नदियों में तरंगें उठती रहती हैं, वैसे ही भूतात्मा में पूर्वकाल में किये हुए कर्म पाये जाते हैं। उन किये हुए कर्मों का फल इसे भोगना ही पड़ता है। पुनः जिस तरह समुद्र का किनारा लहरों के अन्त होने के लिए आवश्यक है, उसी तरह भूतात्मा के लिए मृत्यु भी अति आवश्यक है, वह शुभ व अशुभ कर्मों के परिणाम स्वरूप बन्धनों में पशुओं की तरह आबद्ध हुआ परतन्त्र - सा बन गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि वह (भूतात्मा) यम के राज्य में ही निवास करता है। इस तरह वह भूतात्मा हमेशा डरा हुआ सा ही बना रहता है। विषयवासना की सुखरूपी मदिरा का पान करके वह मतवाला हो जाता है। पापरूपी भूत के द्वारा आवेशित हुआ वह यत्र-तत्र भटकता रहता है। इस प्रकार वह विपत्ति में विषधर सर्प-दंश की भाँति दुःख भोगता है। विषय-वासनाओं की इच्छा के अनुरूप घने अन्धकार में रहता हुआ वह अन्धा ही हो जाता है। जादूगर के जादू की भाँति वह माया से परिपूर्ण है, स्वप्नवत् वह मिथ्या ही परिलक्षित होता है। केले के वृक्ष के अन्तः भाग की भाँति वह सार रहित है और नट (तमाशा दिखाने वाले) की भाँति वह प्रतिक्षण नवीन से नवीनतम वेशों को धारण करता रहता है तथा चित्रों से सुसज्जित दीवार की तरह उसका बाह्य आवरण ही सुन्दर रहता है। इसके पश्चात् यह भी कहा गया है कि शब्द, स्पर्श आदि विषय साररहित हैं। उन सार रहित विषयों में आसक्त हुआ भूतात्मा स्वयं को ही यथार्थतया स्मरण नहीं रख पाता है ॥ २ ॥ अयं वा व खल्वस्य प्रतिविधिर्भूतात्मनो यद्येव विद्याधिगमस्य धर्मस्यानुचरणं स्वाश्रमेष्वानुक्रमणं स्व वधर्म एव सर्वं धत्ते स्तम्भशाखेवेतराण्यनेनोर्ध्वभाग्भवत्यन्यथधः पतत्येष स्वधर्माभिभूतो यो वेदेषु न स्वधर्मातिक्रमेणाश्रमी भवत्याश्रमेष्वेवावस्थितस्तपस्वी चेत्युच्यत एतदप्युक्तं नातपस्कस्यात्मध्यानेऽधिगमः कर्मशुद्धिर्वेत्येवं ह्याह ॥ तपसा प्राप्यते सत्त्वं सत्त्वात्सम्प्राप्यते मनः । म नसा प्राप्यते त्वात्मा ह्यात्मापत्त्या निवर्तत इति ॥ ३॥ इस भूतात्मा की मुक्ति का उपाय ब्रह्मा जी इस प्रकार बताते हैं- ज्ञान की प्राप्ति जिस धर्म से हो सके, ऐसे श्रेष्ठ धर्म का आचरण करना चाहिए तथा अपने आश्रम धर्म का सदा पालन करना चाहिए । अन्य धर्म तो गुल्म (तृण) की शाखा की भाँति असत्य हैं। अतः वह (भूतात्मा) अपने धर्म के द्वारा ही प्रगति को प्राप्त करता है, अन्य तरह के धर्मों से तो उसे अवनति की ओर ही जाना पड़ता है। वेद में वर्णित स्वधर्म का परित्याग करने वाला आश्रमी नहीं कहा जा सकता। जो (व्यक्ति) आश्रम धर्म का निर्वाह करता है, वही तपस्वी है। यह भी कहा गया है कि जो तपस्वी नहीं है, उसका ध्यान आत्मा में नहीं एकाग्र होता। इस कारण से उसकी कर्म शुद्धि नहीं हो पाती । तप के माध्यम से ज्ञान की उपलब्धि होती है और ज्ञान की प्राप्ति होने पर मन अपने वश में हो जाता है। मन के वशीभूत होने पर आत्मतत्त्व की प्राप्ति होती है और आत्मा की उपलब्धि से इस संसार सागर से मुक्ति मिल जाती है ॥ ३॥ अत्रैते श्लोका भवन्ति ॥ यथा निरिन्धनो वह्निः स्वयोनावुपशाम्यति । तथा वृत्तिक्षयाच्चित्तं स्वयोनावुपशाम्यति ॥ १॥ जैसे अग्नि में लकड़ी के जलकर समाप्त होने पर अग्नि स्वयं ही अपने स्थान में शान्त हो जाती है, वैसे ही वृत्तियों का क्षय होने पर चित्त स्वयं ही अपने उत्पत्ति स्थल में शान्त हो जाता है ॥ १ ॥ ४ ॥ स्वयोनावुपशान्तस्य मनसः सत्यगामिनः । इन्द्रियार्थाविमूढस्यानृताः कर्मवशानुगाः ॥ २॥ अपने उद्गम स्थल में शान्त मन जब सत्य की ओर गमन करता है, तब कर्म के वशीभूत इन्द्रियों के प्रति आसक्ति आदि भोग विषय उसे असत्य प्रतीत होते हैं ॥ २ ॥ ४ ॥ चित्तमेव हि संसारस्तत्प्रयत्नेन शोधयेत् । यच्चित्तस्तन्मयो भवति गुह्यमेतत्सनातनम् ॥ ३॥ चित्त ही संसार है, इस कारण प्रयत्नपूर्वक चित्त का शोधन करना चाहिए। जिस प्रकार (व्यक्ति) का चित्त होता है, उसी प्रकार ही उसे गति (दशा) प्राप्त होती है। यही सनातन नियम है ॥ ३ ॥ ४ ॥ चित्तस्य हि प्रसादेन हन्ति कर्म शुभाशुभम् । प्र रसन्नात्मात्मनि स्थित्वा सुखमव्ययमश्नुते ॥ ४॥ चित्त के शान्त होने पर शुभ और अशुभ कर्म विनष्ट हो जाते हैं। चित्त के द्वारा शान्त हुआ व्यक्ति जब (चिन्तन के माध्यम से) आत्मा में स्थित होता है, तभी उसे अक्षय आनन्द की अनुभूति होती है ॥ ४ ॥ ४ ॥ समासक्तं यदा चित्तं जन्तोर्विषयगोचरे । यद्येवं ब्रह्मणि स्यात्तत्को न मुच्येत बन्धनात् ॥ ५॥ मनुष्य का चित्त जितना अधिक विषय-वासनाओं (भोगों) में आसक्त होता है, यदि उतना ही कहीं (उसका चित्त) 'ब्रह्म' के प्रति आसक्त हो जाए, तो फिर उसे वासनादि विषयों के बन्धन से मुक्ति क्यों न मिल जाए? ॥ ५ ॥ ४ ॥ मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुद्धं चाशुद्धमेव च । अशुद्धं कामसङ्कल्पं शुद्धं कामविवर्जितम् ॥ ६॥ शुद्ध और अशुद्ध यह दो स्थितियाँ मन की कही गयी हैं। कामनाओं के संकल्प से युक्त (मन) अशुद्ध है तथा कामनाओं का परित्याग कर देने वाला मन ही शुद्ध है ॥ ६ ॥ ॥ ४ ॥ लयविक्षेपरहितं मनः कृत्वा सुनिश्चलम् । यदा यात्यमनीभावं तदा तत्परमं पदम् ॥ ७॥ लय और विक्षेपरहित 'मन'पूर्णरूपेण निश्चल (स्थिर) हो जाता है और जब मनोभावों (काममाओं) का समापन हो जाता है, तभी वह परम- पद रूप को प्राप्त होता है ॥ ७ ॥ ४ ॥ तावदेव निरोद्धव्यं हृदि यावत्क्षयं गतम् । एतज्ज्ञानं च मोक्षं च शेषास्तु ग्रन्थविस्तराः ॥ ८॥ जब तक मन का क्षय (विनाश) न हो, तब तक ही उसका हृदय में निरोध करना चाहिए। मात्र यही ज्ञान एवं मोक्ष का सार है, अन्य शेष तो ग्रन्थों का विस्तार मात्र है ॥ ८ ॥ ४ ॥ समाधिनिर्धूतमलस्य चेतसो निवेशितस्यात्मनि यत्सुखं लभेत् । न शक्यते वर्णयितुं गिरा तदा स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्यते ॥ ९॥ समाधि के द्वारा जिसके मल का परिशोधन हो गया है तथा जो आत्मा में विलीन हो गया है, ऐसा 'चित्त' ही आनन्दानुभूति की प्राप्ति कर सकता है। तब उसका वर्णन वाणी के द्वारा करने में कोई भी समर्थ नहीं है, उसको तो मात्र अन्तःकरण के द्वारा ही ग्रहण किया जा सकता है ॥ ९ ॥ ४ ॥ अपामपोऽग्निरग्नौ वा व्योम्नि व्योम न लक्षयेत् । एवमन्तर्गतं चित्तं पुरुषः प्रतिमुच्यते ॥ १०॥ जैसे जल में जल, अग्नि में अग्नि और आकाश में आकाश का विलय हो जाने पर उसके सभी भिन्न-भिन्न रूप परिलक्षित नहीं होते, वैसे ही चित्त का (आत्मा में) विलय हो जाने पर 'पुरुष' मुक्ति को । प्राप्त कर लेता है ॥ १० ॥ ४ ॥ मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतमिति ॥ ११॥ 'मन' ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का कारण है। विषयों में आसक्त हुआ मन ही बन्धन का कारण है तथा विषयों से रहित अर्थात् विषयों में आसक्त न रहने वाला 'मन' ही मुक्ति का कारण है ॥ ११ ॥ ४ ॥ अथ यथेयं कौत्सायनिस्तुतिः ॥ त्वं ब्रह्मा त्वं च वै विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं प्रजापतिः । त्वमग्निर्वरुणो वायुस्त्वमिन्द्रस्त्वं निशाकरः ॥ १२॥ इसी प्रकार कौत्सायनि ऋषि की भी प्रशंसोक्ति है-'तुम ब्रह्मा हो, विष्णु हो, रुद्र हो। तुम प्रजापति हो, तुम अग्नि हो, तुम वरुण हो, तुम वायु हो, तुम इन्द्र हो और तुम्हीं निशाकर (चन्द्रमा) हो' ॥ १२ ॥ ४ ॥ त्वं मनुस्त्वं यमश्च त्वं पृथिवी त्वमथाच्युतः । स्वार्थे स्वाभाविकेऽर्थे च बहुधा तिष्ठसे दिवि ॥ १३॥ तुम मनु हो, तुम यम हो, तुम पृथ्वी हो, तुम अच्युत हो, तुम्हींअपने विषय रूप में स्वाभाविक अर्थ हो तथा तुम्हीं स्वयं अपने-आप में भी विभिन्न रूपों में प्रतिष्ठित रहते हो ॥ १३ ॥ ४ ॥ विश्वेश्वर नमस्तुभ्यं विश्वात्मा विश्वकर्मकृत् । विश्वभुग्विश्वमायस्त्वं विश्वक्रीडारतिः प्रभुः ॥ १४॥ हे सर्वेश्वर! आपको नमस्कार है। आप ही सम्पूर्ण विश्व की आत्मा हैं, विश्व के समस्त कार्यों को करने वाले हैं। सभी के भरण-पोषण करने वाले हैं। सब प्रकार की माया को धारण करने वाले, सर्वत्र विश्व-क्रीड़ा में प्रेम रखने वाले आप सभी के प्रभु हैं ॥ १४ ॥ ४ ॥ नमः शान्तात्मने तुभ्यं नमो गुह्यतमाय च । अचिन्त्यायाप्रमेयाय अनादिनिधनाय चेति ॥ १५॥ ॥ ४॥ हे शान्त आत्मा वाले! आपको नमस्कार है। अतिशय गूढ, अचिन्त्य, प्रमाणों से न जान सकने योग्य एवं आदि-अन्त रहित आपके लिए नमन-वंदन है ॥ १५ ॥ ४ ॥ तमो वा इदमेकमास तत्पश्चात्परेणेरितं विषयत्वं प्रयात्येतद्वै रजसो रूपं तद्रजः खल्वीरितं विषमत्वं प्रयात्येतद्वै तमसो रूपं तत्तमः खल्वीरितं तमसः सम्प्रास्रवत्येतद्वै सत्त्वस्य रूपं तत्सत्त्वमेवेरितं तत्सत्त्वात्सम्प्रास्रवत्सोंऽशोऽयं यश्वेतनमात्रः प्रतिपुरुषं क्षेत्रज्ञः सङ्कल्पाध्यवसायाभिमानलिङ्गः प्रजापतिस्तस्य प्रोक्ता अग्यास्तनवो ब्रह्मा रुद्रो विष्णुरित्यथ यो ह खलु वावास्य राजसोंऽशोऽसौ स योऽयं ब्रह्माथ यो ह खलु वावास्य तामसोंऽशोऽसौ स योऽयं रुद्रोऽथ यो ह खलु वावास्य सात्विकोंऽशोऽसौ स एवं विष्णुः स वा एष एकस्त्रिधाभूतोऽष्टधैकादशधा द्वादशधापरिमितधा चोद्भूत उद्भूतत्वा‌द्भूतेषु चरति प्रतिष्ठा सर्वभूतानामधिपतिर्बभूवेत्यसावात्मान्तर्बहिश्चान्तर्बहिस् च ॥ ५॥ सृष्टि-रचना के पूर्व यह (भूतात्मा) केवल अन्धकार (अज्ञान) रूप ही था। तत्पश्चात परमात्मा द्वारा प्रेरणा प्राप्त करके इन्द्रियों के विषय रूप में परिणत हो गया। इन (रूपों) में से यह वस्तु रजोगुण के रूप में है। यह तमोगुण का भी स्वरूप है अर्थात् प्रेरणा प्राप्त तमोगुण ही तमोगुण में से प्रकट होता है। यह सत्त्व गुण का भी रूप है अर्थात् प्रेरणा प्राप्त हुआ सत्त्वगुण ही सत्त्वगुणों में से स्रवित हुआ है। जो यह चेतन सत्ता हर भूत-प्राणियों में क्षेत्रज्ञ जीव रूप से स्थिर है और परमात्मा का अंश है। वह संकल्प युक्त और अध्यवसायी, दृढ़निश्चयी है, अहंकार रूप (मैं पन) से पहचाना जाने वाला तथा समस्त प्रजा का पति है। ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र को ही परमात्मा का सबसे बड़ा और श्रेष्ठ शरीर कहा गया है। उस परमात्मा के रजोगुण अंश को 'ब्रह्मा' कहा गया है, तमोगुण अंश को 'रुद्र' और जो सतोगुण अंश है, उसे 'विष्णु' कहा गया है। इस कारण से वह एक ही परमात्मा तीन (ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र) रूपों में, आठ (अष्टवसु) रूपों में ग्यारह (रुद्र) रूपों में, बारह (आदित्य) रूपों में तथा अन्य (असंख्य संसारी जन रूप) अगणित रूपों में उत्पन्न हुआ है। वह इस तरह 'उद्भूत' होते हुए भी प्रत्येक भूतों-प्राणियों में स्थित है। वही समस्त प्राणियों का अधिष्ठाता है और वही अन्दर-बाहर आत्मा के रूप में विद्यमान है, वही अन्दर और बाहर है॥ ५ ॥ ॥ इति चतुर्थः प्रपाठकः ॥४॥ ॥ चतुर्थ प्रपाठक समात ॥

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