Pranava Upanishad (प्रणव उपनिषद)

॥ श्री हरि ॥ ॥अथ प्रणवोपनिषत् ॥ ॥ हरिः ॐ ॥ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ १९॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ प्रणवोपनिषत् ॥ प्रणव उपनिषद पुरस्ताद्ब्रह्मणस्तस्य विष्णोरद्भुतकर्मणः । रहस्यं ब्रह्मविद्याया धृताग्निं सम्प्रचक्षते ॥ ॥१॥ अब ब्रह्म स्वरूप भगवान् विष्णु के अद्भुत कर्मों से युक्त, (संचित कर्मों को भस्मसात् करने में समर्थ) अग्नि को धारण करने वाली ब्रह्मविद्या का रहस्य वर्णित किया जा रहा है ॥ १ ॥ ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म यदुक्तं ब्रह्मवादिभिः । शरीरं तस्य वक्ष्यामि स्थानकालत्रयं तथा ॥ ॥२॥ ब्रह्मवेत्ताओं ने ॐकार को ही एक अद्वितीय, अविनाशी ब्रह्म कहा है, उसके शरीर, स्थान और कालत्रय (भूत, भविष्यत् और वर्तमान) का विवेचन अब किया जाता है ॥ २ ॥ तत्र देवास्त्रयः प्रोक्ता लोका वेदास्त्रयोऽग्नयः । तिस्रो मात्रार्धमात्रा च प्रत्यक्षस्य शिवस्य तत् ॥ ॥३॥ उस ॐकार रूप ब्रह्म में तीन देवता, (ब्रह्मा, विष्णु, महेश), तीन लोक (भूः, भुवः, स्वः), तीन वेद (ऋक्, यजुष्, साम), तीन अग्नियाँ (गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, आहवनीय), तीन पूर्ण मात्रा और एक अर्धमात्रा (अ, उ, म् एवं अनुस्वार) सन्निहित है। वही उसका साक्षात् कल्याणकारी शिव स्वरूप है ॥ ३ ॥ ऋग्वेदो गार्हपत्यं च पृथिवी ब्रह्म एव च । अकारस्य शरीरं तु व्याख्यातं ब्रह्मवादिभिः ॥ ॥४॥ ऋग्वेद, पृथ्वी, गार्हपत्य अग्नि और देव ब्रह्मा – ये तत्त्व ब्रह्मवेत्ताओं ने ॐकार के तीन अक्षरों में 'अकार' के शरीर रूप में बताये हैं ॥४॥ यजुर्वेदोऽन्तरिक्षं च दक्षिणाग्निस्तथैव च । विष्णुश्च भगवान् देव उकारः परिकीर्तितः ॥ ॥५॥ यजुर्वेद, अन्तरिक्ष, दक्षिणाग्नि और भगवान् विष्णु ये सब तत्त्व ॐकार के तीन अक्षरों में 'उकार' के स्वरूप में निरूपित किये गये हैं ॥ ५ ॥ सामवेदस्तथा द्यौश्चाहवनीयस्तथैव च । ईश्वरः परमो देवो मकारः परिकीर्तितः ॥ ॥६॥ सामवेद, द्युलोक, आहवनीय अग्नि और महादेव शिव- ये सब ॐकार के तीन अक्षरों में से 'मकार' के स्वरूप में निरूपित हुए हैं ॥ ६ ॥ सूर्यमण्डलमाभाति ह्यकारश्चन्द्रमध्यगः । उकारश्चन्द्रसङ्काशस्तस्य मध्ये व्यवस्थितः ॥ ॥७॥ सूर्य मण्डल का जो स्वरूप है, वह ॐकार के अक्षरों में 'अकार' का स्वरूप है। चन्द्रमण्डल का, स्वरूप 'उकार' से निरूपित है, जो इस ॐकार के मध्य में अवस्थित है ॥ ७ ॥ मकारश्चाग्निसङ्काशो विधूमो विद्युतोपमः । तिस्रो मात्रास्तथा ज्ञेयाः सोमसूर्याग्नितेजसः ॥ ॥८॥ ॐकार का अन्तिम अक्षर मकार, उस अग्नि स्वरूप में है, जो धूम्ररहित है, विद्युत् सदृश है। ॐकार की तीनों मात्राओं को चन्द्र, सूर्य और अग्नि के तेजस् के स्वरूप में समझना चाहिए ॥ ८ ॥ शिखा च दीपसङ्काशा यस्मिन्नु परिवर्तते । अर्धमात्रा तथा ज्ञेया प्रणवस्योपरि स्थिता ॥ ॥९॥ दीपक की ज्योतिशिखा के स्वरूप में, जिसमें शिखा ऊर्ध्वगामी हो, उस प्रणव अक्षर 'ॐकार' के ऊपर स्थित अर्द्धचन्द्र-अर्द्ध मात्रा को समझना चाहिए ॥९॥ पद्मसूत्रनिभा सूक्ष्मा शिखाभा दृश्यते परा । नासादिसूर्यसङ्काशा सूर्य हित्वा तथापरम् ॥ ॥१०॥ दूसरी कमल सूत्र (कमल नाल) के सदृश सूक्ष्म शिखा की कान्ति (मस्तक प्रदेश में) दृष्टिगोचर होती है, वह नासारन्ध्र से सूर्यवत् तेज को धारण कर सूर्यमण्डल का भेदन कर वहाँ स्थित है ॥१० ॥ द्विसप्ततिसहस्राणि नाडिभिस्त्वा तु मूर्धनि । वरदं सर्वभूतानां सर्वं व्याप्यैव तिष्ठति ॥ ॥११॥ अग्नि स्वरूप में वह शिखा (ॐकार की अर्द्धमात्रा) बहत्तर हजार नाड़ियों के द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों को वर (जीवन-प्राण) देने वाली और सबको व्याप्त करके अवस्थित है ॥ ११ ॥ कांस्यधण्टानिनादः स्याद्यदा लिप्यति शान्तये । ओङ्कारस्तु तथा योज्यः श्रुतये सर्वमिच्छति ॥ ॥१२॥ जब मुमुक्षु मोक्ष प्राप्ति के निकट शान्त स्थिति को प्राप्त होता है, तो काँसे के घण्टे के समान निनाद सुनाई देता है, यह ॐ कार का ही स्वरूप है। इस स्वरूप को सभी साधक सुनने की इच्छा करते हैं ॥ १२ ॥ यस्मिन् स लीयते शब्दस्तत्परं ब्रह्म गीयते । सोऽमृतत्वाय कल्पते सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ इति ॥ ॥१३॥ जो साधक (उक्त) ओङ्कार स्वरूप शब्द नाद में लीन हो जाता है, वह ब्रह्मस्वरूप ही कहा जाता है। वहीं अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है, यह सुनिश्चित है ॥ १३ ॥ इति प्रणवोपनिषत् समाप्ता । ॥ हरिः ॐ ॥ शान्तिपाठ ॥ हरिः ॐ ॥ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ १९॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ ॥ इति प्रणवोपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ प्रणव उपनिषद समात ॥

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