Akshi Upanishad-Chapter-1 (अक्षि उपनिषद प्रथम खण्ड)

॥ श्री हरि ॥ ॥अथ अक्ष्युपनिषत् ॥ ॥ अक्षि उपनिषद ॥ ॥ हरिः ॐ ॥ यत्सप्तभूमिकाविद्यावेद्यानन्दकलेवरम् । विकलेवरकैवल्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ १९॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ श्री हरि ॥ ॥अक्ष्युपनिषत्॥ ॥ अक्षि उपनिषद ॥ प्रथम खण्ड अथ ह सांकृतिर्भगवानादित्यलोकं जगाम । तमादित्यं नत्वा चाक्षुष्मतीविद्यया तमस्तुवत् । ॐ नमो भगवते श्रीसूर्यायाक्षितेजसे नमः। ॐ खेचराय नमः। ॐ महासेनाय नमः। ॐ तमसे नमः । ॐ रजसे नमः । ॐ सत्त्वाय नमः । ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्माऽमृतं गमय । हंसो भगवा- ज्ञ्छुचिरूपः प्रतिरूपः । विश्वरूपं घृणिनं जातवेदसं हिरण्मयं ज्योतीरूपं तपन्तम् । सहस्ररश्मिः शतधा वर्तमानः पुरुषः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः । ॐ नमो भगवते श्रीसूर्यायादित्यायाक्षितेजसेऽ होवाहिनि वाहिनि स्वाहेति । एवं चाक्षुष्मतीविद्यया स्तुतः श्रीसूर्यनारायणः सुप्रीतोऽब्रवीच्चाक्षुष्मती- विद्यां ब्राह्मणो यो नित्यमधीते न तस्याक्षिरोगो भवति । न तस्य कुलेऽन्धो भवति । अष्टौ ब्राह्मणान्ग्राहयित्वाथ विद्यासिद्धिर्भवति । य एवं वेद स महान्भवति ॥ १॥ एक समय की कथा है कि भगवान् सांकृति आदित्य लोक गये। वहाँ पहुँच कर उन्होंने भगवान् सूर्य को नमस्कार कर चाक्षुष्मती विद्या द्वारा उनकी अर्चना की 'नेत्रेन्द्रिय के प्रकाशक भगवान् श्रीसूर्य को नमस्कार है। आकाश में विचरणशील सूर्य देव को नमस्कार है। हजारों किरणों की विशाल सेना रखने वाले महासेन को नमस्कार है। तमोगुण रूप भगवान् सूर्य को प्रणाम है। रजोगुण रूप भगवान् सूर्य को प्रणाम है। सत्त्वगुणरूप सूर्यनारायण को प्रणाम है। हे सूर्यदेव ! हमें असत् से सत्पथ की ओर ले चलें। हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलें। हमें मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलें। भगवान् भास्कर पवित्ररूप और प्रतिरूप (प्रतिबिम्ब प्रकटकर्ता) हैं। अखिल विश्व के रूपों के धारणकर्ता, किरण समूहों से सुशोभित, जातवेदा (सर्वज्ञाता), सोने के समान प्रकाशमान, ज्योतिः स्वरूप तथा तापसम्पन्न भगवान् भास्कर को हम स्मरण करते हैं। ये हजारों रश्मिसमूह वाले, सैकड़ों रूपों में विद्यमान सूर्यदेव सभी प्राणियों के समक्ष प्रकट हो रहे हैं। हमारे चक्षुओं के प्रकाशरूप अदितिपुत्र भगवान् सूर्य को प्रणाम है। दिन के वाहक, विश्व के वहनकर्ता सूर्यदेव के लिए हमारी सर्वस्व समर्पित है।' इस चाक्षुष्मती विद्या से अर्चना किये जाने पर भगवान् सूर्यदेव अतिहर्षित हुए और कहने लगे 'जिस ब्राह्मण द्वारा इस चाक्षुष्मती विद्या का पाठ प्रतिदिन किया जाता है, उसे नेत्ररोग नहीं होते और न उसके वंश में कोई अंधत्व को प्राप्त करता है। आठ ब्राह्मणों को इस विद्या का ज्ञान करा देने पर इस विद्या की सिद्धि होती है। इस प्रकार का ज्ञाता महानता को प्राप्त करता है' ॥१॥ ॥ प्रथम खण्ड समाप्त ॥१॥

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