ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ८५

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ८५ ऋषिः भौमोऽत्रिः देवता - वरुण । छंद - त्रिष्टुप प्र सम्राजे बृहदर्चा गभीरं ब्रह्म प्रियं वरुणाय श्रुताय । वि यो जघान शमितेव चर्मोपस्तिरे पृथिवीं सूर्याय ॥१॥ हे अत्रि वंशजो ! आप विशिष्ट प्रकाशमान, प्रसिद्ध वरुणदेव के लिए अत्यन्त विस्तृत, गंभीर और प्रीतिकर स्तुतियों करें। जैसे व्याध- पशुओं के चर्म को विस्तृत करता है, उसी तरह इन देव ने सूर्यदेव के परिभ्रमण के लिए आकाश को विस्तृत किया हैं ॥१॥ वनेषु व्यन्तरिक्षं ततान वाजमर्वत्सु पय उस्रियासु । हृत्सु क्रतुं वरुणो अप्स्वग्निं दिवि सूर्यमदधात्सोममद्रौ ॥२॥ वरुणदेव ने वन में वृक्षों के ऊपरी भाग पर (मूर्त पदार्थों के अभाव में) अन्तरिक्ष को विस्तृत किया। अश्वों या मनुष्यों में वीर्य-पराक्रम की वृद्धि की। गौओं में दुग्ध को प्रतिष्ठित किया। हृदय में संकल्पशक्ति युक्त मन को, प्राणियों में (पाचन के लिए) जठराग्नि को, द्युलोक में सूर्यदेव को तथा पर्वत पर सोम (आदि ओषधियों) को उत्पन्न किया ॥२॥ नीचीनबारं वरुणः कवन्धं प्र ससर्ज रोदसी अन्तरिक्षम् । तेन विश्वस्य भुवनस्य राजा यवं न वृष्टिर्युनत्ति भूम ॥३॥ वरुणदेव ने द्यावा-पृथिवी और अन्तरिक्ष लोकों के हितार्थ मेघों के मुख को नीचे करके विमुक्त किया। जैसे वृष्टि से यवादि अन्न पुष्ट होते हैं, वैसे उन देव ने वृष्टि से भूमि को उर्वर बनाया है ॥३॥ उनत्ति भूमिं पृथिवीमुत द्यां यदा दुग्धं वरुणो वष्ट्यादित् । समभ्रेण वसत पर्वतासस्तविषीयन्तः श्रथयन्त वीराः ॥४॥ वरुणदेव जब वृष्टिरूप जल की इच्छा करते हैं; तब वे पृथिवी, अन्तरिक्ष और आकाश में जल-सिंचन कर देते हैं, अनन्तर पर्वत शिखर मेघों से आच्छादित होते हैं और मरुद्गण अपनी सामर्थ्य से उत्साहित होकर मेघों को शिथिल करते हैं ॥४॥ इमामू ष्वासुरस्य श्रुतस्य महीं मायां वरुणस्य प्र वोचम् । मानेनेव तस्थिवाँ अन्तरिक्षे वि यो ममे पृथिवीं सूर्येण ॥५॥ जिन वरुणदेव ने मान-दण्ड के समान सूर्यदेव के द्वारा अन्तरिक्ष- पृथिवी को प्रभावित किया, उन प्राण-प्रदाता और प्रसिद्ध वरुणदेव की इस महती क्षमता की हम प्रशंसा करते हैं ॥५॥ इमामू नु कवितमस्य मायां महीं देवस्य नकिरा दधर्ष । एकं यदुद्गा न पृणन्त्येनीरासिञ्चन्तीरवनयः समुद्रम् ॥६॥ जिस प्रकार जल-सिंचन करने वाली प्रवहमान नदियाँ अपने जल से एक समुद्र को भी पूर्ण नहीं कर पाती, उसी प्रकार उन ज्ञान-सम्पन्न वरुणदेव की इस महती क्षमता का अतिक्रमण कोई नहीं कर सकता है ॥६॥ अर्यम्यं वरुण मित्र्यं वा सखायं वा सदमिद्भातरं वा । वेशं वा नित्यं वरुणारणं वा यत्सीमागश्चकृमा शिश्रथस्तत् ॥७॥ हे सर्वदा वरणीय वरुणदेव! यदि हमने कभी अपने दातापुरुष, मित्र, सखा, भ्राता, सर्वदा समीपस्थ पड़ोसी अथवा मूक के प्रति कोई अपराध किया हो, तो उस अपराध से हमें विमुक्त करें ॥७॥ कितवासो यद्रिरिपुर्न दीवि यद्वा घा सत्यमुत यन्न विद्म । सर्वा ता वि ष्य शिथिरेव देवाधा ते स्याम वरुण प्रियासः ॥८॥ हे वरुणदेव ! द्यूतक्रीड़ा में (जुआ खेलने में) यदि हमने कोई प्रवंचना की हो अथवा जानकर या अज्ञानतावश अपराध किया हो, तो हे वरुणदेव ! बन्धनों को शिथिल करने के समान हमें उन सम्पूर्ण अपराधों से विमुक्त करें; ताकि हम आपके प्रिय-पात्र हों ॥८॥

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