ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त २१

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त २१ ऋषि - सस आत्रेयः देवता - अग्नि । छंद -अनुष्टुप, ४ पंक्ति मनुष्वत्त्वा नि धीमहि मनुष्वत्समिधीमहि । अग्ने मनुष्वदङ्गिरो देवान्देवयते यज ॥१॥ हे अग्निदेव ! हम मनु के सदृश आपको स्थापित करते और मनु के सदृश ही प्रज्वलित करते हैं। हे अंगिरा अग्निदेव ! मनु के सदृश ही देवों के अभिलाषी यजमानों के निमित्त आप देवों का यज़न करें ॥१॥ त्वं हि मानुषे जनेऽग्ने सुप्रीत इध्यसे । सुचस्त्वा यन्त्यानुषक्सुजात सर्पिरासुते ॥२॥ हे अग्निदेव ! स्तोत्रों द्वारा भली प्रकार प्रसन्न होकर आप मनुष्यों के लिए प्रदीप्त होते हैं। भली प्रकार उत्पन्न हे अग्निदेव ! घृतयुक्त हवियों से भरे पात्र आपको निरन्तर प्राप्त होते हैं ॥२॥ त्वां विश्वे सजोषसो देवासो दूतमक्रत । सपर्यन्तस्त्वा कवे यज्ञेषु देवमीळते ॥३॥ हे क्रान्तदर्शी अग्निदेव ! सब देवों ने प्रसन्न होकर, आपको देवों के दूत रूप में नियुक्त किया है। अतः यज्ञों में यजमान आपकी परिचर्या करते हुए देवों को बुलाने के लिए आपकी स्तुति करते हैं ॥३॥ देवं वो देवयज्ययाग्निमीळीत मर्त्यः । समिद्धः शुक्र दीदिह्यतस्य योनिमासदः ससस्य योनिमासदः ॥४॥ हे तेजस्वी अग्निदेव ! मनुष्यगण देवों का यजन करने के निमित्त आपकी स्तुति करते हैं। आप हवियों द्वारा प्रवृद्ध होकर दीप्तिमान् होते हैं। आप 'सस' अष के यज्ञ की वेदों में प्रतिष्ठित हों अथवा कृषि- हरीतिमा के रूप में प्रकट हों ॥४॥

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