Tejobindu Upanishad Chapter 3 (तेजोबिन्दु उपनिषद तृतीय अध्यायः तीसरा अध्याय)

॥ श्री हरि ॥ ॥ तेजोबिन्दु उपनिषद ॥ तृतीय अध्यायः तीसरा अध्याय कुमारः पितरमात्मानुभवमनुब्रूहीति पप्रच्छ । स होवाच परः शिवः । कार्तिकय कुमार ने पिता से पूछा-आत्मा का अनुभव पुनः कहिये, मैं यह सुनने का अभिलाषी हूँ। शिव बोले- परब्रह्मस्वरूपोऽहं परमानन्दमस्म्यहम् । केवलं ज्ञानरूपोऽहं केवलं परमोऽस्म्यहम् ॥ १॥ मैं परब्रह्म स्वरूप हूँ, मैं परमानन्द स्वरूप हूँ, मैं केवलज्ञान हूँ, मैं केवल परम हूँ ॥१॥ केवलं शान्तरूपोऽहं केवलं चिन्मयोऽस्म्यहम् । केवलं नित्यरूपोऽहं केवलं शाश्वतोऽस्म्यहम् ॥ २॥ मैं केवल शान्त-स्वरूप हूँ, मैं केवल चिन्मय हूँ, मैं केवल नित्यस्वरूप हूँ, मैं ही केवल सनातन हूँ ॥२॥ केवलं सत्त्वरूपोऽहमहं त्यक्त्वाहमस्म्यहम् । सर्वहीनस्वरूपोऽहं चिदाकाशमयोऽस्म्यहम् ॥ ३॥ मैं केवल सत्य रूप हूँ, देह अभिमान को छोड़ कर मैं ही मैं हूँ, मैं सर्व रहित स्वरूप हूँ, मुझ में ही समस्त प्रपञ्च स्थित है, मैं चिदाकाशमय हूँ ॥३॥ केवलं तुर्यरूपोऽस्मि तुर्यातीतोऽस्मि केवलः । सदा चैतन्यरूपोऽस्मि चिदानन्दमयोऽस्म्यहम् ॥ ४॥ मैं केवल तुर्यरूप हूँ, मैं केवल तुर्यातीत हूँ, मैं सदा चैतन्य हूँ, मैं सच्चिदानन्दमय हूँ ॥४॥ केवलाकाररूपोऽस्मि शुद्धरूपोऽस्म्यहं सदा । केवलं ज्ञानरूपोऽस्मि केवलं प्रियमस्म्यहम् ॥ ५॥ मैं केवल आकाररूप हूँ, मैं सदा शुद्धरूप हूँ, मैं केवल ज्ञान स्वरूप हूँ, मैं केवल प्रियरूप हूँ ॥५॥ निर्विकल्पस्वरूपोऽस्मि निरीहोऽस्मि निरामयः । सदाऽसङ्गस्वरूपोऽस्मि निर्विकारोऽहमव्ययः ॥ ६॥ मैं निर्विकल्प-स्वरूप हूँ, चेष्टा-रहित हूँ, रोग रहित हूँ, सदा असंग स्वरूप हूँ, मैं अव्यय निर्विकार हूँ ॥६॥ सदैकरसरूपोऽस्मि सदा चिन्मात्रविग्रहः । अपरिच्छिन्नरूपोऽस्मि ह्यखण्डानन्दरूपवान् ॥ ७॥ मैं सदा एकरसरूप हूँ, सदा चिन्मात्र स्वरूप हूँ, अपरिच्छिन्न रूप हूँ, अखण्ड आनन्द वाला हूँ ॥७॥ सत्परानन्दरूपोऽस्मि चित्परानन्दमस्म्यहम् । अन्तरान्तररूपोऽहमवाङ्गनसगोचरः ॥८॥ मैं सत्य परमानन्द रूप हूँ, मैं चित् परानन रूप हूँ, मैं वाणी और मन का अविषय भीतर अथवा बाहर का रूप हूँ ॥८॥ आत्मानन्दस्वरूपोऽहं सत्यानन्दोऽस्म्यहं सदा । आत्मारामस्वरूपोऽस्मि ह्ययमात्मा सदाशिवः ॥ ९॥ मैं आत्मानन्द-स्वरूप हूँ, मैं सदा सत्यानन्द हूँ, मैं आत्माराम स्वरूप हूँ, मैं ही सदा शिव आत्मा हूँ ॥९॥ आत्मप्रकाशरूपोऽस्मि ह्यात्मज्योतिरसोऽस्म्यहम् । आदिमध्यान्तहीनोऽस्मि ह्याकाशसदृशोऽस्म्यहम् ॥ १०॥ मैं आत्म प्रकाश रूप हूँ, मैं आत्म ज्योति रस हूँ, मैं आदि मध्य और अन्त से रहित हूँ, मैं आकाश के समान हूँ ॥१०॥ नित्यशुद्धचिदानन्दसत्तामात्रोऽहमव्ययः । नित्यबुद्धविशुद्धैकसच्चिदानन्दमस्म्यहम् ॥ ११ ॥ मैं नित्य शुद्ध बुद्ध, चित् आनन्द, अव्यय सत्ता मात्र हूँ, मैं नित्य बुद्ध विशुद्ध एक सच्चिदानन्द हूँ ॥११॥ नित्यशेषस्वरूपोऽस्मि सर्वातीतोऽस्म्यहं सदा । रूपातीतस्वरूपोऽस्मि परमाकाशविग्रहः ॥ १२॥ मैं नित्य शेष स्वरूप हूँ, मैं सदा सबसे अतीत हूँ, रूप से अतीत स्वरूप, परम आकाश स्वरूप हूँ ॥१२॥ भूमानन्दस्वरूपोऽस्मि भाषाहीनोऽस्म्यहं सदा । सर्वाधिष्ठानरूपोऽस्मि सर्वदा चिद्धनोऽस्म्यहम् ॥ १३॥ मैं भूमा आनन्द स्वरूप हूँ, मैं सदा भाषारहित हूँ, सर्व का अधिष्ठानरूप हूँ, मैं हमेशा चैतन्यघन हूँ ॥१३॥ देहभावविहीनोऽस्मि चिन्ताहीनोऽस्मि सर्वदा । चित्तवृत्तिविहीनोऽहं चिदात्मैकरसोऽस्म्यहम् ॥ १४॥ मैं देहभाव से रहित हूँ, हमेशा चिंता से रहित हूँ, मैं चित्तवृत्ति रहित हूँ, एक रस चिदात्मा हूँ ॥१४॥ सर्वदृश्यविहीनोऽहं दृग्रूपोऽस्म्यहमेव हि । सर्वदा पूर्णरूपोऽस्मि नित्यतृप्तोऽस्म्यहं सदा ॥ १५॥ मैं सब दृश्य से रहित हूँ, मैं ही दृष्टिरूप हूँ, हमेशा पूर्णरूप हूँ, मैं सदा नित्य तृप्त हूँ ॥१५॥ अहं ब्रह्मैव सर्वं स्यादहं चैतन्यमेव हि । अहमेवाहमेवास्मि भूमाकाशस्वरूपवान् ॥ १६॥ मैं ब्रह्म ही सर्व रूप हूँ, मैं चैतन्य ही हूँ, भूमि आकाश स्वरूप में ही हूँ ॥१६॥ अहमेव महानात्मा ह्यहमेव परात्परः । अहमन्यवदाभामि ह्यहमेव शरीरवत् ॥ १७॥ मैं महान् आत्मा हूँ, मैं ही परात्पर हूँ; मैं ही अन्य के समान भासित होता हूँ', मैं ही शरीर के समान हूँ ॥१७॥ अहं शिष्यवदाभामि ह्ययं लोकत्रयाश्रयः । अहं कालत्रयातीत अहं वेदैरुपासितः ॥ १८॥ मैं शिष्य के समान भासित होता हूँ, तीनों लोकों का आश्रय हूँ, मैं तीनों काल से अतीत हूँ, मैं वेदों से उपासना किया जाता हूँ ॥१८॥ अहं शास्त्रेण निर्णीत अहं चित्ते व्यवस्थितः । मत्त्यक्तं नास्ति किञ्चिद्वा मत्त्यक्तं पृथिवी च वा ॥ १९॥ मैं शास्त्र से निर्णय किया गया हूँ, मैं चित्त में स्थित हूँ, मुझ सिवाय कुछ नहीं है, मुझ सिवाय पृथ्वी नहीं है ॥१६॥ मयातिरिक्तं यद्यद्वा तत्तन्नास्तीति निश्चिनु । अहं ब्रह्मास्मि सिद्धोऽस्मि नित्यशुद्धोऽस्म्यहं सदा ॥ २०॥ मुझ सिवाय जो भी विश्व में स्थित है वह नहीं है, ऐसा निश्चय करो। मैं ब्रह्म हूँ, सिद्ध हूँ, सदा नित्य शुद्ध हूँ ॥२०॥ निर्गुणः केवलात्मास्मि निराकारोऽस्म्यहं सदा । केवलं ब्रह्ममात्रोऽस्मि ह्यजरोऽस्म्यमरोऽस्म्यहम् ॥ २१॥ मैं निर्गुण केवल आत्मा हूँ, मैं सदा निराकार हूँ, केवल ब्रह्ममात्र हूँ, मैं अजर अमर हूँ ॥२१॥ स्वयमेव स्वयं भामि स्वयमेव सदात्मकः । स्वयमेवात्मनि स्वस्थः स्वयमेव परा गतिः ॥ २२॥ मैं अपने आप ही अर्थात अपने प्रकाश से भासित होता हूँ, मैं स्वयं ही सदात्मा स्वरूप हूँ, मैं स्वयं ही आत्मा में स्थित परम गति हूँ ॥२२॥ स्वयमेव स्वयं भज्ने स्वयमेव स्वयं रमे । स्वयमेव स्वयं ज्योतिः स्वयमेव स्वयं महः ॥ २३॥ मैं स्वयं ही भोक्ता हूँ, स्वयं ही अपने में रमण करता हूँ, स्वयं ही ज्योति हूँ, स्वयं ही महान् हूँ ॥२३॥ स्वस्यात्मनि स्वयं रंस्ये स्वात्मन्येव विलोकये । स्वात्मन्येव सुखासीनः स्वात्ममात्रावशेषकः ॥ २४॥ आप ही अपने आत्मा को देखने को अपने आत्मा में आप प्रवेश करता हूँ। अपने आत्मा की विशेष मात्र से अपने आत्मा में ही सुख से बैठा हुआ हूँ ॥२४॥ स्वचैतन्ये स्वयं स्थास्ये स्वात्मराज्ये सुखे रमे । स्वात्मसिंहासने स्थित्वा स्वात्मनोऽन्यन्न चिन्तये ॥ २५॥ अपने चैतन्य में आपने आप स्थित होता हूँ, स्वयं अपने आत्म-राज्य के सुख में रमण करता हूँ, स्वयं अपनी आत्मा के सिंहासन पर बैठकर अपने आत्मा से अन्य का चितवन नहीं करता ॥२५॥ चिद्रूपमात्रं ब्रह्मैव सच्चिदानन्दमद्वयम् । आनन्दघन एवाहमहं ब्रह्मास्मि केवलम् ॥ २६॥ चित्तरूप मात्र ब्रह्म ही सच्चिदानन्द रूप अद्वितीय आनन्द घन मैं ही हूँ। मैं ही केवल ब्रह्मा हूँ ॥२६॥ सर्वदा सर्वशून्योऽहं सर्वात्मानन्दवानहम् । नित्यानन्दस्वरूपोऽहमात्माकाशोऽस्मि नित्यदा ॥ २७॥ मैं हमेशा सब से शून्य हूँ, मैं सर्व आत्मानन्द वाला हूँ, मैं नित्यानन्द स्वरूप हूँ, मैं नित्य आत्म प्रकाश रूप हूँ ॥२७॥ अहमेव हृदाकाशश्चिदादित्यस्वरूपवान् । आत्मनात्मनि तृप्तोऽस्मि ह्यरूपोऽस्म्यहमव्ययः ॥ २८॥ मैं ही चैतन्य आदित्य स्वरूप वाला हृद्याकाश हूँ। परमात्मा से तृप्त आत्मा मैं हूँ। मैं अव्यय रूप रहित स्वरूप वाला हूँ ॥२८॥ एकस‌ङ्ख्याविहीनोऽस्मि नित्यमुक्तस्वरूपवान् । आकाशादपि सूक्ष्मोऽहमाद्यन्ताभाववानहम् ॥ २९॥ मैं नित्य मुक्त स्वरूप वाला एक की संख्या से रहित हूँ, मैं आकाश से भी सूक्ष्म हूँ, मैं आदि अन्त के अभाव वाला हूँ, ॥२९॥ सर्वप्रकाशरूपोऽहं परावरसुखोऽस्म्यहम् । सत्तामात्रस्वरूपोऽहं शुद्धमोक्षस्वरूपवान् ॥ ३०॥ मैं सर्व प्रकाश रूप हूँ, मैं पर अवर सुख हूँ, मैं सत्ता मात्र स्वरूप हूँ, शुद्ध मोक्ष स्वरूप वाला मैं हूँ ॥३०॥ सत्यानन्दस्वरूपोऽहं ज्ञानानन्दघनोऽस्म्यहम् । विज्ञानमात्ररूपोऽहं सच्चिदानन्दलक्षणः ॥ ३१॥ मैं सत्य आनन्द स्वरूप हूँ, मैं ज्ञान आनन्दघन हूँ, मैं सचिदानन्दं लक्षण वाला विज्ञान मात्र स्वरूप हूँ ॥३१॥ ब्रह्ममात्रमिदं सर्वं ब्रह्मणोऽन्यन्न किञ्चन । तदेवाहं सदानन्दं ब्रह्मैवाहं सनातनम् ॥ ३२॥ यह सर्व ब्रह्म है, ब्रह्म के सिवाय कुछ नहीं है, वह ही सदानन्द मैं हूँ, मैं ही सनातन ब्रह्म हूँ ॥३२॥ त्वमित्येतत्तदित्येतन्मत्तोऽन्यन्नास्ति किञ्चन। चिच्चैतन्यस्वरूपोऽहमहमेव शिवः परः ॥ ३३॥ तुम और यह, वह और यह मुझ सिवाय कुछ नहीं है, मैं ही चित् चैतन्यस्वरूप हूँ, मैं ही परम शिव हूँ ॥३३॥ अतिभावस्वरूपोऽहमहमेव सुखात्मकः । साक्षिवस्तुविहीनत्वात्साक्षित्वं नास्ति मे सदा ॥ ३४॥ अत्यन्त भाव स्वरूप मैं हूँ, मैं ही सुख स्वरूप हूँ, साक्ष्य वस्तु के अभाव से मुझ में सदा साक्षीपना नहीं है ॥३४॥ केवलं ब्रह्ममात्रत्वादहमात्मा सनातनः । अहमेवादिशेषोऽहमहं शेषोऽहमेव हि ॥ ३५॥ केवल ब्रह्ममात्र-पने से मैं सनातन आत्मा हूँ, मैं ही आदि शेष हूँ, मैं ही मैं शेष हूँ ॥३५॥ नामरूपविमुक्तोऽहमहमानन्दविग्रहः । इन्द्रियाभावरूपोऽहं सर्वभावस्वरूपकः ॥ ३६॥ मैं नामरूप रहित हूँ, मैं आनन्द स्वरूप हूँ सर्वभाव स्वरूप वाला, इन्द्रियों का अभावरूप हूँ ॥३६॥ बन्धमुक्तिविहीनोऽहं शाश्वतानन्दविग्रहः । आदिचैतन्यमात्रोऽहमखण्डैकरसोऽस्म्यहम् ॥ ३७॥ मैं सदानन्द-स्वरूप बन्ध और मोक्ष से रहित हूँ, मैं आदि चैतन्य मात्र हूँ, मैं अखण्ड का रस हूँ ॥३७॥ वाङ्ग‌नोऽगोचरश्चाहं सर्वत्र सुखवानहम् । सर्वत्र पूर्णरूपोऽहं भूमानन्दमयोऽस्म्यहम् ॥ ३८॥ मैं वाणी और मन का अविषय हूँ, मैं सर्वत्र सुख वाला हूँ, मैं सर्वत्र पूर्ण रूप हूँ, मैं भूमानन्दमय हूँ ॥३८॥ सर्वत्र तृप्तिरूपोऽहं परामृतरसोऽस्म्यहम् । एकमेवाद्वितीयं सद्ब्रह्मैवाहं न संशयः ॥ ३९॥ मैं सर्व तृप्तरूप हूँ, मैं परम अमृत का रस हूँ। एक अद्वितीय सत् ब्रह्म मैं ही हूँ, इसमें संशय नहीं है ॥३९॥ सर्वशून्यस्वरूपोऽहं सकलागमगोचरः । मुक्तोऽहं मोक्षरूपोऽहं निर्वाणसुखरूपवान् ॥ ४०॥ मैं सर्व वेदों का विषय सर्व शून्य-स्वरूप हूँ, मैं मुक्त हूँ, मैं मोक्षरूप हूँ, मैं निर्वाण सुखरूप वाला हूँ ॥४०॥ सत्यविज्ञानमात्रोऽहं सन्मात्रानन्दवानहम् । तुरीयातीतरूपोऽहं निर्विकल्पस्वरूपवान् ॥ ४१॥ मैं सत्य विज्ञानमात्र हूँ, मैं सन्मात्र आनन्द वाला हूँ, मैं निर्विकल्प स्वरूप तुरीयातीत रूप हूँ ॥४१॥ सर्वदा ह्यजरूपोऽहं नीरागोऽस्मि निरञ्जनः । अहं शुद्धोऽस्मि बुद्धोऽस्मि नित्योऽस्मि प्रभुरस्म्यहम् ॥ ४२॥ मैं सर्वदा अज रूप हूँ, निरंजन निराग हूँ, शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, नित्य हूँ, मैं प्रभु हूँ ॥४२ ॥ ओङ्कारार्थस्वरूपोऽस्मि निष्कलङ्कङ्गमयोऽस्म्यहम् । चिदाकारस्वरूपोऽस्मि नाहमस्मि न सोऽस्म्यहम् ॥ ४३॥ मैं ओंकार का अर्थ स्वरूप हूँ, मैं निष्कलंक हूँ, मैं चैतन्याकार- स्वरूप हूँ, न मैं यह हूँ न वह मैं हूँ ॥४३॥ न हि किञ्चित्स्वरूपोऽस्मि निर्व्यापारस्वरूपवान् । निरंशोऽस्मि निराभासो न मनो नेन्द्रियोऽस्म्यहम् ॥ ४४॥ व्यापार रहित स्वरूप वाला मैं किंचित् स्वरूप नहीं हूँ, मैं आभास रहित हूँ हूँ और अंशरहित हूँ, न मन हूँ, न इन्द्रिय हूँ ॥४४॥ न बुद्धिर्न विकल्पोऽहं न देहादित्रयोऽस्म्यहम् । न जाग्रत्स्वप्नरूपोऽहं न सुषुप्तिस्वरूपवान् ॥ ४५॥ मैं न, बुद्धि हूँ, न विकल्प हूँ, न मैं देहादि तीनों ही हूँ, मैं जाग्रत् स्वरूप नहीं हूँ, न सुषुप्ति स्वरूप वाला हूँ ॥४५॥ न तापत्रयरूपोऽहं नेषणात्रयवानहम् । श्रवणं नास्ति मे सिद्धेर्मननं च चिदात्मनि ॥ ४६॥ न मैं तीन ताप रूप हूँ न तीन एषणा वाला हूँ, मुझ चैतन्य आत्मा में श्रवण और मनन सिद्ध नहीं होता ॥४६॥ सजातीयं न मे किञ्चिद्विजातीयं न मे क्वचित् । स्वगतं च न मे किञ्चिन्न मे भेदत्रयं क्वचित् ॥ ४७॥ मुझ में कुछ सजातीय नहीं है, न मुझमें कहीं विजातीय है, न मेरा स्वगत है, न मुझ में कहीं तीनों भेद हैं ॥४७॥ असत्यं हि मनोरूपमसत्यं बुद्धिरूपकम् । अहङ्कारमसिद्धीति नित्योऽहं शाश्वतो ह्यजः ॥ ४८॥ मनरूप असत्य है, बुद्धिरूप असत्य है, अहंकार की सिद्धि नहीं है, इसलिए मैं शाश्वत और अजन्मा हूँ। ॥४८॥ देहत्रयमसद्विद्धि कालत्रयमसत्सदा । गुणत्रयमसत्विद्धि ह्ययं सत्यात्मकः शुचिः ॥ ४९॥ तीनों देहों को असत्य जानो, तीनों काल को हमेशा असत् जानो, तीनों गुणों को असत् जानो, क्योंकि मैं ही एक पवित्र सत्यस्वरूप हूँ ॥४९॥ श्रुतं सर्वमसद्विद्धि वेदं सर्वमसत्सदा । शास्त्रं सर्वमसद्विद्धि ह्यहं सत्यचिदात्मकः ॥ ५०॥ सब सुने हुये को असत्य जानो, सब वेदों को सदा असत्य जानो, सर्व शास्त्रों को असत्य जानो, मैं ही सत्य चैतन्यस्वरूप हूँ ॥५०॥ मूर्तित्रयमसद्विद्धि सर्वभूतमसत्सदा । सर्वतत्त्वमसद्विद्धि ह्ययं भूमा सदाशिवः ॥ ५१॥ तीनों मूर्तियों को असत् जानो, सब भूतों को सदा असत् जानो, तत्त्वों को असत् जानो, मैं भूमा तीन रिच्छेद से रहित सुखरूप सदा शिव हूँ ॥५१॥ गुरुशिष्यमसद्विद्धि गुरोर्मन्त्रमसत्ततः । यदृश्यं तदसद्विद्धि न मां विद्धि तथाविधम् ॥ ५२॥ गुरु शिष्य को असत् जानो, गुरु का मन्त्र असत्य जानो, जो दृश्य है उसको असत् जानो, मुझ को ऐसा नहीं जानना, मैं सत्यस्वरूप वाला हूँ ॥५२॥ यच्चिन्त्यं तदसद्विद्धि यन्यायं तदसत्सदा । यद्धितं तदसद्विद्धि न मां विद्धि तथाविधम् ॥ ५३॥ जो चिन्तवन करने योग्य है उसको असत् जानो, जो न्याय युक्ति दृष्टान्त है उसे सदा असत् जानो, जो हित है उसको असत् जानो, मैं सत्यस्वरूप हूँ मुझ को सत्य ही जानो ॥५३॥ सर्वान्प्राणानसद्विद्धि सर्वान्भोगानसत्त्विति । दृष्टं श्रुतमसद्विद्धि ओतं प्रोतमसन्मयम् ॥ ५४॥ सर्व प्राणों को असत् जानो, सर्व भोगों को असत् जानो, देखे हुये और सुने हुये को असत् जानो, ओत प्रोत सर्व असत्यमय है ॥५४॥ कार्याकार्यमसद्विद्धि नष्टं प्राप्तमसन्मयम् । दुःखादुःखमसद्विद्धि सर्वासर्वमन्मयम् ॥ ५५॥ कार्याकार्य (कारण) को असत् जानो, नष्ट हुये और प्राप्त हुये को असत् जानो, दुखः अदुख को असत् जानो, सर्व और असर्व को भी असत् जानो ॥५५॥ पूर्णापूर्णमसद्विद्धि धर्माधर्ममसन्मयम् । लाभालाभावसद्विद्धि जयाजयमसन्मयम् ॥ ५६॥ अपूर्ण को असत् जानो, धर्म-अधर्म को असत् जानो, लाभ - अलाभ को असत् जानो, जीत-हार को असत् जानो ॥५६ ॥ शब्दं सर्वमसद्विद्धि स्पर्श सर्वमसत्सदा । रूपं सर्वमसद्विद्धि रसं सर्वमसन्मयम् ॥ ५७॥ सर्व शब्दों को असत जानो, सर्व स्पर्शों को असत् जानो, सर्व रूप को असत् जानो, सर्व रसों को असत जानो ॥५७॥ गन्धं सर्वमसद्विद्धि सर्वाज्ञानमसन्मयम् । असदेव सदा सर्वमसदेव भवोद्भवम् ॥ ५८॥ सर्व गन्ध को असंख्य जानो। सर्व अज्ञान को असत्य जानो। सदा सम्पूर्ण असत्य जानो। संसार की उत्पत्ति असत्य है ॥५८॥ असदेव गुणं सर्वं सन्मात्रमहमेव हि । स्वात्ममन्त्रं सदा पश्येत्स्वात्ममन्त्रं सदाभ्यसेत् ॥ ५९॥ सर्व गुण भी असत्य हैं। मैं असत्य मात्र हूँ। अपने आत्म मन्त्र को सदा देखे । अपने परम मन्त्र का अभ्यास करे ॥५९॥ अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं दृश्यपापं विनाशयेत् । अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयमन्यमन्त्रं विनाशयेत् ॥ ६०॥ 'मैं ब्रह्म हूँ। यह मन्त्र दृश्य पापों का नाश करता है। 'मैं ब्रह्म हूँ यह मन्त्र अन्य मन्त्रों का नाश करता है ॥६०॥ अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं देहदोषं विनाशयेत् । अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं जन्मपापं विनाशयेत् ॥ ६१॥ हे स्वामी कार्तिकेय ! मैं ब्रह्म हूँ यह मन्त्र देह के दोषों का नाश करता है। 'मैं ब्रह्म हूँ' यह मन्त्र जन्म पाप का नाश करता है ॥६१॥ अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं मृत्युपाशं विनाशयेत् । अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं द्वैतदुःखं विनाशयेत् ॥ ६२॥ मैं ब्रह्म हूँ! यह मन्त्र मृत्यु के पाश का नाश करता है। 'मैं ब्रह्म हूँ' यह मन्त्र द्वैत के दुःखों का नाश करता है ॥ ६२॥ अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं भेदबुद्धि विनाशयेत् । अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं चिन्तादुःखं विनाशयेत् ॥ ६३॥ 'मैं ब्रह्म हूँ! यह मन्त्र भेदबुद्धि का नाश करता है। 'मैं ब्रह्म हूँ' यह मन्त्र चिन्ता के दुःखों का नाश करता है ॥६३॥ अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं बुद्धिव्याधिं विनाशयेत् । अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं चित्तबन्धं विनाशयेत् ॥ ६४॥ मैं ब्रह्म हूँ यह मन्त्र बुद्धि की व्याधि का नाश करता है। 'मैं ब्रह्म हूँ! यह मन्त्र चित्त के बन्धन का नाश करता है ॥६४॥ अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं सर्वव्याधीन्विनाशयेत् । अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं सर्वशोकं विनाशयेत् ॥ ६५॥ 'मैं ब्रह्म हूँ' यह मन्त्र सर्व व्याधियों का नाश करता है। मैं ब्रह्म हूँ यह मन्त्र समस्त शोकों का नाश करता है ॥६५॥ अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं कामादीन्नाशयेत्क्षणात् । अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं क्रोधशक्तिं विनाशयेत् ॥ ६६॥ 'मैं ब्रह्म हूँ। यह मन्त्र कामादि का क्षण में नाश करता है। 'मैं ब्रह्म हूँ यह मन्त्र क्रोध शक्ति का नाश करता है ॥६६ ॥ अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं चित्तवृत्तिं विनाशयेत् । अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं सङ्कल्पादीन्विनाशयेत् ॥ ६७॥ 'मैं ब्रह्म हूँ' यह मन्त्र चित्तवृत्ति का नाश करता है। 'मैं ब्रह्म हूँ! यह मन्त्र संकल्पादिकों का नाश करता है ॥६७॥ अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं कोटिदोषं विनाशयेत् । अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं सर्वतन्त्रं विनाशयेत् ॥ ६८॥ 'मैं ब्रह्म हूँ। यह मन्त्र करोड़ों दोषों का नाश करता है। 'मैं ब्रह्म हूँ यह मन्त्र सर्व तन्त्रों का नाश करता है ॥६८॥ अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयमात्माज्ञानं विनाशयेत् । अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयमात्मलोकजयप्रदः ॥ ६९॥ मैं ब्रह्म हूँ यह मन्त्र आत्मा के अज्ञान को नाश करता है। मैं ब्रह्म हूँ! यह मन्त्र आत्मलोक की जय देने वाला है ॥६९॥ अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयमप्रतर्व्यसुखप्रदः । अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयमजडत्वं प्रयच्छति ॥ ७०॥ मैं ब्रह्म हूँ! यह मन्त्र अखण्ड सुख प्रदान करने वाला है। मैं ब्रह्म हूँ! यह मन्त्र चैतन्यता के देने वाला है ॥७०॥ अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयमनात्मासुरमर्दनः । अहं ब्रह्मास्मि वज्रोऽयमनात्माख्यगिरीन्हरेत् ॥ ७१॥ हे स्वामी कार्तिकय ! 'मैं ब्रह्म हूँ' यह मन्त्र अनात्म रूपी असुर को मारने वाला है। "मैं ब्रह्म हूँ' यह मन्त्र अनात्मरूप पर्वत को गिराने वाला है और अनात्म भाव को हरने वाला है ॥७१॥ अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयमनात्माख्यासुरान्हरेत् । अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं सर्वांस्तान्मोक्षयिष्यति ॥ ७२॥ मैं ब्रह्म हूँ' यह मन्त्र अनात्मा रूपी असुरों को हरण करता है। मैं ब्रह्म हूँ यह मन्त्र उन सबसे छुड़ा देता है ॥७२॥ अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं ज्ञानानन्दं प्रयच्छति । सप्तकोटिमहामन्त्रं जन्मकोटिशतप्रदम् ॥ ७३॥ 'मैं ब्रह्म हूँ! यह मन्त्र ज्ञान आनन्द को देता है हे कुमार! सात करोड़ महामन्त्र हैं वे सौ करोड़ जन्म देने वाले हैं ॥७३॥ सर्वमन्त्रान्समुत्सृज्य एतं मन्त्रं समभ्यसेत् । सद्यो मोक्षमवाप्नोति नात्र सन्देहमण्वपि ॥ ७४॥ इसलिये इन सभी मन्त्रों को त्याग कर इसी मन्त्र (अहं ब्रह्मास्मि) का जो अभ्यास करे वह शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करता है। इसमें जरा भी सन्देह नहीं है ॥७४॥ इति तृतीयोध्यायः ॥ ३॥

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