ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ६१

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ६१ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - उषाः । छंद - त्रिष्टुप उषो वाजेन वाजिनि प्रचेताः स्तोमं जुषस्व गृणतो मघोनि । पुराणी देवि युवतिः पुरंधिरनु व्रतं चरसि विश्ववारे ॥१॥ अन्नवती और ऐश्वर्यशालिनी हे उषा! आप प्रखर ज्ञानवती होकर स्तोताओं के स्तोत्रों का श्रवण करें। सबके द्वारा धारण करने योग्य हे उषा देवि ! आप पुरातन होकर भी तरुणी की तरह शोभायमान हों। आप विशेष बुद्धिमती होकर इस यज्ञ की और आगमन करें ॥१॥ उषो देव्यमर्त्या वि भाहि चन्द्ररथा सूनृता ईरयन्ती । आ त्वा वहन्तु सुयमासो अश्वा हिरण्यवर्णां पृथुपाजसो ये ॥२॥ स्वर्णिम आभा वाले रथ पर विराजमान हे अमर उषा देवि ! आप प्रीति युक्त, सत्यरूप वचनों को उच्चारित करने वाली हैं। आप सूर्य किरणों द्वारा प्रकाशित हैं। विशेष बलशाली तथा सुवर्ण के समान तेजस्वी जो अश्व भली प्रकार रथ के साथ जोड़े जा सकते हैं, वे आपको लेकर यज्ञ स्थल पर पधारें ॥२॥ उषः प्रतीची भुवनानि विश्वोर्ध्वा तिष्ठस्यमृतस्य केतुः । समानमर्थं चरणीयमाना चक्रमिव नव्यस्या ववृत्स्व ॥३॥ हे उषा देवि ! आप सम्पूर्ण भुवनों में भ्रमण करने वालों अमृत स्वरूपा हैं। सूर्यदेव के ध्वज के समान आकाश में उन्नत स्थान पर रहती हैं। है नित्य नूतन इषा देवि ! आप एक ही मार्ग में गमन करती हुई, आकाश में विचरणशील सूर्यदेव के चक्राङ्गों के समान पुनः पुनः उसी मार्ग पर चलती रहें ॥३॥ अव स्यूमेव चिन्वती मघोन्युषा याति स्वसरस्य पत्नी । स्वर्जनन्ती सुभगा सुदंसा आन्ताद्दिवः पप्रथ आ पृथिव्याः ॥४॥ जो ऐश्वर्यशालिनी उषा वस्त्र के समान ढकने वाली (शोभा बढ़ाने वाली) हैं। वे विस्तृत अन्धकार को दूर करती हुई सूर्य की पत्नी रूप में गमन करती हैं। वहीं सौभाग्यशालिनी और सत्कर्मशीता उषा द्युलोक और पृथ्वी के अन्तिम भाग तक प्रकाशित होती हैं॥४॥ अच्छा वो देवीमुषसं विभातीं प्र वो भरध्वं नमसा सुवृक्तिम् । ऊर्ध्वं मधुधा दिवि पाजो अश्रेत्प्र रोचना रुरुचे रण्वसंदृक् ॥५॥ हे स्तोताओं ! आप सबके सम्मुख प्रकाशित होने वाली उषादेवीं की नमनपूर्वक स्तुति करें। मधुरता को थारण करने वाली उषा द्युलोक के ऊँचे भाग पर अपनी तेजस्विता को स्थिर रखती हैं। रमणीय शोभा को धारण करने वाली तेजस्विनी उषा अत्यन्त दीप्तिमान् हो रही हैं॥५॥ ऋतावरी दिवो अर्कैरबोध्या रेवती रोदसी चित्रमस्थात् । आयतीमग्न उषसं विभातीं वाममेषि द्रविणं भिक्षमाणः ॥६॥ सत्यवती उषा द्युलोक से परे आगमन करने वाली किरणों द्वारा प्रकट होती हैं । ऐश्वर्यशालिनी उषा विविध रूपों से युक्त होकर द्युलोक और पृथिवी को संव्याप्त करती हैं। हैं अग्निदेव ! सम्मुख प्रकट होने वाली प्रकाशित उषा से वंय की कामना करने वाले आप, श्रेष्ठधनों को उपलब्ध करते हैं॥६॥ ऋतस्य बुध्न उषसामिषण्यन्वृषा मही रोदसी आ विवेश । मही मित्रस्य वरुणस्य माया चन्द्रेव भानुं वि दधे पुरुत्रा ॥७॥ वृष्टि के प्रेरक सूर्यदिव दिन के प्रारम्भ में आ, को प्रेरित करते हुए द्यावा-पृथिवीं के मध्य प्रकट होते हैं तब । उषा, मित्र और वरुणदेवों की प्रभारूपा होकर सुवर्ण के सदृश ही अपने प्रकाश को चारों ओर प्रसारित करती हैं॥७॥

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