ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ५७

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ५७ ऋषि - सव्य अंगीरस देवता- इन्द्र। छंद जगती प्र मंहिष्ठाय बृहते बृहद्रये सत्यशुष्माय तवसे मतिं भरे । अपामिव प्रवणे यस्य दुर्धरं राधो विश्वायु शवसे अपावृतम् ॥१॥ अत्यन्त दानी, महान् ऐश्वर्यशाली, सत्य-स्वरूप, पराक्रमी इन्द्रदेव की हम बुद्धिपूर्वक स्तुति करते हैं। नीचे की ओर प्रवाहित ज्ञल – प्रवाहों के समान इनके बलों को कोई भी धारण नहीं कर सकता। जिस बल से प्राप्य ऐश्वर्य को मनुष्यों के लिये जीवन भर प्रदान करने का उनका व्रत खुला हुआ है ॥१॥ अध ते विश्वमनु हासदिष्टय आपो निम्नेव सवना हविष्मतः । यत्पर्वते न समशीत हर्यत इन्द्रस्य वज्रः श्नथिता हिरण्ययः ॥२॥ हे इन्द्रदेव ! आपका स्वर्ण सदृश दीप्तिमान् मारक वज्र मेघों को विदीर्ण करने में तत्पर हुआ, तब हे इन्द्रदेव! सारा जगत् आपके लिए यज्ञ-कर्मों में संलग्न हुआ। जल के नीचे की ओर प्रवाहित होने के समान याजकों के द्वारा समर्पित सोम आपकी ओर प्रवाहित हुआ ॥२॥ अस्मै भीमाय नमसा समध्वर उषो न शुभ्र आ भरा पनीयसे । यस्य धाम श्रवसे नामेन्द्रियं ज्योतिरकारि हरितो नायसे ॥३॥ हे दीप्तिमति उषे ! शत्रुओं के प्रति विकराल और प्रशंसनीय उन इन्द्रदेव के लिये नमस्कार के साथ यज्ञ सम्पादन करें, जिनका धाम (स्थान) अन्नादि दान के लिये अत्यन्त प्रसिद्ध है, जिनकी सामर्थ्य और कीर्ति अश्व के सदृश सर्वत्र संचरित होती है॥३॥ इमे त इन्द्र ते वयं पुरुष्टुत ये त्वारभ्य चरामसि प्रभूवसो । नहि त्वदन्यो गिर्वणो गिरः सघत्क्षोणीरिव प्रति नो हर्य तद्वचः ॥४॥ हे सम्पत्तिवान् एवं बहुप्रशंसित इन्द्रदेव ! आपके संरक्षण में कार्य करते हुए, निष्ठापूर्वक रहते हुए, आपके समान अन्य स्तुत्य देवता के न रहने के कारण, हम आपकी स्तुति करते हैं। सभी पदार्थों को स्वीकार करने वाली पृथ्वी के समान आप भी हमारे स्तोत्रों को स्वीकार करें ॥४॥ भूरि त इन्द्र वीर्यं तव स्मस्यस्य स्तोतुर्मघवन्काममा पृण । अनु ते द्यौर्वृहती वीर्यं मम इयं च ते पृथिवी नेम ओजसे ॥५॥ हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! स्तुति करने वाले इन साधकों की कामनायें पूर्ण करें। आप अत्यन्त बलवान् हैं। यह महान् द्युलोक भी आपके बल पर ही स्थित है और यह पृथ्वी भी आपके बल के आगे झुकती है॥५॥ त्वं तमिन्द्र पर्वतं महामुरुं वज्रेण वज्रिन्पर्वशश्चकर्तिथ । अवासृजो निवृताः सर्तवा अपः सत्रा विश्वं दधिषे केवलं सहः ॥६॥ हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! आपने महान् बलशाली मेघों को अपने वज्र से खण्ड-खण्ड किया और रुके जल-प्रवाहों को बहने के लिए मुक्त किया। केवल आप ही सब संघर्षक शक्तियों को धारण करते हैं, यही सत्य है ॥६॥

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