Tripadvibhutipaha Narayana Upanishad Chapter 7 (त्रिपाद्विभूतिपहानारायणोपनिषत) सातवाँ अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् ॥ ॥ सप्तमोऽध्यायः ॥ ॥ सातवाँ अध्याय ॥ अथोपासकस्तदाज्ञया नित्यं गरुडमारुह्य वैकुण्ठवासिभिः सर्वैः परिवेष्टितो महासुदर्शनं पुरस्कृत्य विश्वक्सेनपरिपालितश्चोपर्युपरि गत्वा ब्रह्मानन्दविभूतिं प्राप्य सर्वत्रावस्थिताब्रह्मानन्द- मयाननन्तवैकुण्ठानवलोक्य निरतिशयानन्दसागरो भूत्वात्मारामानन्दविभूतिपुरुषाननन्तानवलोक्य तान्सर्वानुपचारैः समभ्यर्च्य तैः सर्वैरभिपूजितश्चोपासकस्तत उपर्युपरि गत्वा ब्रह्मानन्दविभूतिं प्राप्यानन्तदिव्यतेजः पर्वतैरलङ्‌कृतान्परमानन्दलहरीवनशोभितानसंख्याकानानन्दसमुद्रा नतिक्रम्य विविधविचित्रानन्तपरमतत्त्वविभूतिसमष्टिविशेषान्परमकौतुकान्ब्रह्मा नन्दविभूतिविशेषनतिक्रम्योपासकः परमकौतुकं प्राप । भगवान् नारायण के पुनः प्रकट होने पर उपासक उनकी आज्ञा से नित्य गरुडपर चढ़कर, समस्त वैकुण्ठवासियों से घिरा हुआ, महासुदर्शन को आगे करके, विष्वक्सेन द्वारा परिपालित (रक्षित) हो, ऊपर जाकर ब्रह्मानन्दविभूति में पहुँच जाता है। वहाँ वह सर्वत्र स्थित ब्रह्मानन्दमय अनन्त वैकुण्ठों का दर्शन करता है; फिर निरतिशय आनन्द-समुद्ररूप होकर वह आत्माराम, आनन्दविभूतिस्वरूप अनन्त पुरुषों को देखता और उन सबका उपचारों से भलीभाँति अर्चन करता है। फिर उन सबसे भी पूजित होकर उपासक, वहाँ से ऊपर जाते हुए, ब्रह्मानन्दविभूति में पहुँच जाता है। तत्पश्चात् अनन्त दिव्य तेजोमय पर्वतों से अलंकृत, परमानन्दरूपतरंगमालाओं से शोभित असंख्य आनन्द-समुद्रों को पार करके तथा विविध विचित्र अनन्त परमतत्त्व-विभूति-समष्टिस्वरूपों को एवं परमाश्चर्यरूप ब्रह्मानन्दविभूति-स्वरूपों को भी अतिक्रमण करके उपासक परमाश्चर्य में डूब जाता है' ॥ १ ॥ ततः सुदर्शनवैकुण्ठपुरमाभाति नित्यमङ्गलमनन्तविभवं ा सहस्रानन्दप्रकारपरिवेष्टितमयुतकुक्ष्युपलक्षित- मनन्तोत्कटज्वलदरमण्डलं निरतिशयदिव्यतेजोमण्डलं वृन्दारकपरमानन्दं शुद्धबुद्धस्वरूपमनन्तानन्द- सौदामिनीपरमविलासं निरतिशयपरमानन्दपारावारमनन्तैरानन्दपुरुषैश्चिद्रूपैरधिष्ठितम् । इसके पश्चात् सुदर्शन नामक वैकुण्ठ नगर प्रकाशित होता है। वह नित्य मङ्गलरूप, अनन्त वैभवपूर्ण, सहस्रों आनन्दरूप प्राचीरों (चारदीवारियों) से घिरा, दस सहस्र कक्षों से युक्त, अनन्त उत्कट प्रज्वलित, प्रकाशमय अरों के मण्डल से युक्त, निरतिशय दिव्य तेजोमण्डलरूप, देवताओं के लिये भी परमानन्दस्वरूप, शुद्ध-बुद्धस्वरूप, अनन्त आनन्दरूप विद्युत के परम विलास के समान प्रकाशमान, निरतिशय परमानन्दसागर तथा अनन्त चिद्रूप (ज्ञानमूर्ति) आनन्दमय पुरुषों से अधिष्ठित है' ॥ २॥ तन्मध्ये च सुदर्शनं महाचक्रम् । चरणं पवित्रं विततं पुराणं येन पूतस्तरति दुष्कृतानि । तेन पवित्रेण शुद्धेन पूता अतिपाप्मानमरातिं तरेम । लोकस्य द्वारमर्चिमत्पवित्रम् । ज्योतिष्मद्भाजमानं महस्वत् । अमृतस्य धारा बहुधा दोहमानम् । चरणं नो लोके सुधितां दधातु । अयुतारं ज्वलन्तमयुतारसमष्ट्याकरं निरतिशयविक्रमविलासमनन्त- दिव्यायुधदिव्यशक्तिसमष्टिरूपं महाविष्णोरनर्गलप्रताप- विग्रहमयुतायुतकोटियोजनविशालमनन्तज्वालजालैरलङ्‌कृतं समस्तदिव्यमङ्गलनिदानमनन्तदिव्यतीर्थानां निजमन्दिरमेवं सुदर्शनं महाचक्रं प्रज्वलति । उसके मध्यमें सुदर्शन नामक महाचक्र है। वह (नित्य) गतिशील, पवित्र, विस्तृत एवं पुरातन है, जिसके द्वारा पवित्र होकर मनुष्य पापों से तर जाता है-उस पवित्र, शुद्ध, परमपावन चक्र के द्वारा पवित्र होकर हम अतिपापरूप शत्रु को पार कर जायँगे। वह गतिशील चक्र भगवद्धाम का द्वाररूप है; वह ज्वालाओं से परिपूर्ण, पवित्र, ज्योतिर्मय, अतिशय प्रकाशमान, अत्यन्त तेजस्वी तथा अमृत की असंख्य धाराओं को स्रवित करनेवाला चक्र हमको लोक में सुबुद्धियुक्त बनाये।' श्रुति इस प्रकार जिसकी स्तुति करती है, वह दस सहस्र अरोंसे युक्त, प्रज्वलित, दस सहस्र अरोंका समष्टिरूप एवं निरतिशय पराक्रम का विलास है, वह अनन्त दिव्यायुधों एवं दिव्य शक्तियों का समष्टिरूप, महाविष्णु का मूर्तिमान् अमोघ प्रताप अयुतायुत-कोटि योजन विशाल, अनन्त ज्वाला-मालाओं से अलंकृत समस्त दिव्य मंगलों का निदान (आदिकारण) तथा अनन्त दिव्य तीर्थो का निज मन्दिरस्वरूप सुदर्शन महाचक्र इस प्रकार प्रज्वलित होता रहता है" ॥ ३-६॥ तस्य नाभिमण्डलसंस्थाने उपलक्ष्यते निरतिशयानन्ददिव्यतेजोराशिः। तन्मध्ये च सहस्रारचक्रं प्रज्वलति । तदखण्डदिव्यतेजोमण्डलाकारं परमानन्दसौदामिनीनिचयोज्ज्वलम् । तदभ्यन्तरसंस्थाने षट्ातारचक्रं प्रज्वलति । तस्यामितपरमतेजः परमविहारसंस्थानविशेषं विज्ञानघनस्वरूपम् । तदन्तराले त्रिशतारचक्रं विभाति । तच्च परमकल्याणविलासविशेषमनन्तचिदादित्यसमष्ट्याकरम् । तदभ्यन्तरे शतारचक्रमाभाति । तच्च परमतेजोमण्डल विशेषम् । तन्मध्ये षष्ट्यरचक्रमाभाति । तच्च ब्रह्मतेजः परमविलासविशेषम् । तदभ्यन्तरसंस्थाने षट्कोणचक्रं प्रज्वलति । तच्चापरिच्छिन्नानन्तदिव्यतेजोराश्याकरम् । तदभ्यन्तरे महानन्दपदं विभाति । तत्कर्णिकायां सूर्येन्दुवह्निमण्डलानि चिन्मयानि ज्वलन्ति । तत्रोपलक्ष्यते निरतिशयदिव्यतेजोराशिः । तदभ्यन्तरसंस्थाने युअगपदुदितानन्तकोटिरविप्रकाशः सुदर्शनपुरुषो विराजते । सुदर्शनपुरुषो महाविष्णुरेव । महविष्णोः मस्तासाधारणचिह्नचिह्नितः । एवमुपासकः सुदर्शनपुरुष ध्यात्वा विविधोपचारैराराध्य प्रदक्षिणनमस्कारान्विधायोपासक स्तेनाभिपूजितस्तदनुज्ञात- श्चोपर्युपरि गत्वा परमानन्दमयानन्तवैकुण्ठानवलोक्योपासकः परमानन्दं प्राप । 'उस (चक्र) के नाभिमण्डलस्थान में निरतिशय आनन्दमयी दिव्य तेजोराशि लक्षित होती है। उसके मध्य में सहस्रारचक्र प्रज्वलित है। वह सहस्रार चक्र अखण्ड दिव्य तेजोमण्डल के आकार का तथा परमानन्दमय विद्युत पुंज के समान उज्वल है। उसके मध्यमें छः सौ अरों का चक्र प्रज्वलित है। उसका भी स्वरूप अमित, परम तेजोमय, श्रेष्ठविहार का स्थान एवं विज्ञान का घनीभूत पुंज है। उसके मध्य में तीन सौ अरों वाला चक्र प्रकाशित है। वह भी परम कल्याण का विलासस्वरूप तथा अनन्त चिन्मय सूर्यो का समष्टिरूप है। उसके भीतर सौ अरों का चक्र प्रकाशमान है। वह भी परम तेजोमण्डलरूप है। उसके बीच में साठ अरों का चक्र प्रकाशित है। वह ब्रह्मतेज का परम विलासरूप है। उसके भीतरी भाग में षट्कोणचक्र प्रज्वलित है। वह अपरिच्छिन्न अनन्त दिव्य तेजोराशिस्वरूप है। उसके भीतर महानन्दपद शोभित है। उसकी कर्णिका में चिन्मय सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि के मण्डल प्रज्वलित हैं। वहाँ निरतिशय दिव्य तेजोराशि दिखायी पड़ती है। उसके भीतरी भाग में एक साथ उदित अनन्तकोटि सूर्यो के समान प्रकाशमय सुदर्शन-पुरुष विराजमान हैं। सुदर्शन-पुरुष महाविष्णु ही हैं; क्योंकि वे महाविष्णु के समस्त असाधारण चिह्नों से चिह्नित हैं। 'उपासक इस प्रकार सुदर्शन-पुरुष का ध्यान करके अनेक प्रकार के उपचारों से उनकी आराधना करके प्रदक्षिणा तथा नमस्कार करता है; फिर वह उपासक उनके द्वारा भी भली प्रकार पूजित होकर, उनकी आज्ञा प्राप्त कर ऊपर को जाता हुआ परमानन्दमय अनन्त वैकुण्ठों को देखकर परमानन्द प्राप्त करता है॥७-१५ ॥ तत उपरि विविधविचित्रानन्तचिद्विलासविभूति- विशेषानतिक्रम्यानन्तपरमानन्दविभूतिसमष्टिविशेषानन्त- निरतिशयानन्तसमुद्रानतीत्योपासकः क्रमेणाद्वैतसंस्थानं प्राप ॥ 'उससे ऊपर विविध विचित्र अनन्त चिद्विलासमय विभूतिस्वरूपों को पार करके तथा अनन्त परमानन्दविभूति के समष्टिरूप अनन्त निरतिशय आनन्द-समुद्रों को लाँघकर उपासक क्रमशः अद्वैत- संस्थान (धाम) को प्राप्त होता है' ॥ १६ ॥ कथमद्वैतसंस्थानम् । अखण्डानन्दस्वरूपमनिर्वाच्यमतिबोधसागरममितानन्दसमुद्रं विजातीयविशेषविवर्जितं सजातीयविशेषविशेषितं निरवयवं निराधारं निर्विकारं निरञ्जनमनन्तब्रह्मानन्दसमष्टिकन्दं परमचिद्विलाससमष्ट्याकारं निर्मलं निरवद्यं निराश्रय- मतिनिर्मलानन्तकोटिरविप्रकाशैकस्फुलिङ्गमन- न्तोपनिषदर्थस्वरूपमखिलप्रमाणातीतं मनोवाचामगोचरं नित्यमुक्तस्वरूपमनाधार- मादिमध्यान्तशून्यं कैवल्यं परमं शान्तं सूक्ष्मतरं महतो महत्तरमपरिमितानन्दविशेषं शुद्धबोधानन्दविभूतिविशेषमनन्तानन्दविभूति- विशेषसमष्टिरूपमक्षरमनिर्देश्यं कूटस्थ- मचलं ध्रुवमदिग्देशकालमन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य परिपूर्ण परमयोगिभिर्विमृग्यं देशतः कालतो वस्तुतः परिच्छेदरहितं निरन्तराभिनवं नित्यपरिपूर्णमखण्डानन्दामृतविशेषं शाश्वतं परमं पदं निरतिशयानन्दानन्ततटित्पर्वताकार- मद्वितीयं स्वयम्प्रकाशमनिशं ज्वलति । परमानन्द- लक्षणापरिच्छिन्नानन्तपरंज्योतिः शाश्वतं शश्वद्विभाति । अद्वैत-संस्थान (कैवल्यधाम) कैसा है? अखण्ड आनन्दस्वरूप, अनिर्वचनीय, अमितबोधसागर, अपार आनन्दका समुद्र, विजातीय विशेषताओं (विशेष) से रहित, सजातीय विशेषताओंसे युक्त, निरवयव, निराधार, निर्विकार, निरञ्जन, अनन्त, ब्रह्मानन्द-समष्टिका घनीभाव, परमचिंद्विलासका समष्टिस्वरूप, निर्मल, निष्कलङ्क एवं दूसरे किसीके आश्रयसे रहित है। अत्यन्त निर्मल अनन्तकोटि सूर्योक प्रकाश उसके सम्मुख एक चिनगारीके समान हैं; जो अनन्त उपनिषदोंका अर्थस्वरूप, समस्त प्रमाणोंसे अतीत, मन एवं वाणीका अविषय और नित्यमुक्तस्वरूप है। उसका कोई आधार नहीं है; वह आंदि-मध्य-अन्तरहित, कैवल्यरूप, परम शान्त, सूक्ष्मसे भी सूक्ष्मतर, महान्से भी परमं महान्, अमित आनन्दस्वरूप, शुद्ध-बोध- आनन्दऐश्वर्यरूप, अनन्त आनन्दमय स्वरूपोंका समष्टिरूप, अविनाशी अनिर्देश्य, कूटस्थ (निर्विकार), अचल, ध्रुव, दिशा-देश एवं कालसे रहित, भीतर और बाहर से भी सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके परिपूर्ण, परम योगियों द्वारा अन्वेषणीय, देशकल तथा वस्तु के परिच्छेद से रहित, निरन्तर नूतन, नित्य परिपूर्ण, अखण्ड आनन्द अमृतरूप, शाश्वत, परमपंद, निरतिशय आनन्दमय अनन्त विद्युत्पर्वतों के समान, अद्वितीय तथा अपने ही प्रकाश से निरन्तर प्रकाशित है। वहाँ परमानन्दस्वरूप अपरिच्छिन्न अनन्त परम ज्योति, जो शाश्वत है, निरन्तर प्रकाशमान है ॥ १७-१८ ॥ तदभ्यन्तरसंस्थानेऽमितानन्दचिद्रूपाचलमखण्डपरमानन्दविशेषं बोधानन्दमहोज्ज्वलं नित्यमङ्गलमन्दिरं चिन्मथनाविर्भूतं चित्सारमनन्ताश्चर्यसागरममिततेजोराश्यन्तर्गत- तेजोविशेषमनन्तानन्दप्रवाहैरलङ्कृतं निरतिशयानन्दपारावाराकारं निरुपमनित्यनिरवद्यनिरतिशयनिरवधिकतेजोराशिविशेषं निरतिशयानन्दसहस्रप्राकारैरलङ्‌कृतं शुद्धबोधसौधावलि- विशेषैरलङ्‌कृतं चिदानन्दमयानन्तदिव्यारामैः सुशोभितं शश्वदमितपुष्पवृष्टिभिः समन्ततः सन्ततम् । तदेव त्रिपाद्विभूति वैकुण्ठस्थानं तदेव परमकैवल्यम् । तदेवाबाधितपरमतत्त्वम् । तदेवानन्तोपनिषद्विमृग्यम् । तदेव परमयोगिभिर्मुमुक्षिभिः सर्वैराशास्यमानम् । तदेव सद्धनम् । तदेव चिद्धनम् । तदेवानन्दघनम् । तदेव शुद्धबोधघनविशेषमखण्डानन्दब्रह्मचैतन्याधिदेवतास्वरूपम् । सर्वाधिष्ठानमद्वयपरब्रह्मविहारमण्डलं निरतिशयानन्दतेजोमण्डलमद्वैतपरमानन्दलक्षण- परब्रह्मणः परमाधिष्ठानमण्डलं निरतिशय परमानन्दपरममूर्तिविशेषमण्डलमनन्तपरम- मूर्तिसमष्टिमण्डलं निरतिशयपरमानन्दलक्षणपरब्रह्मणः परममूर्तिपरमतत्त्वविलासविशेषमण्डलं बोधानन्दमयानन्तपरमविलासविभूतिविशेषसमष्टि मण्डलमनन्तचिद्विलासविभूतिविशेषसमष्टिमण्डल- मखण्डशुद्धचैतन्यनिजमूर्तिविशेषविग्रहं वाचामगोचरानन्तशुद्धबोधविशेषविग्रहमनन्तानन्द- समुद्रसमष्ट्याकारमनन्तबोधाचलैरधिष्ठितं निरतिशयानन्दपरममङ्गलविशेषसमष्ट्याकार- मखण्डाद्वैतपरमानन्दलक्षणपरब्रह्मणः परममूर्ति परमतेजःपुञ्जपिण्डविशेषं चिद्रूपादित्यमण्डलं द्वात्रिंशद्द्व्यूहभेदैरधिष्ठितम् । व्यूहभेदाश्च केशवादिचतुर्विंशतिः । सुदर्शनादिन्यासमन्त्राः । सुदर्शनादि यन्त्रोद्धारः । अनन्तगरुडविश्वक्सेनाश्च निरतिशयानन्दाश्च । उसके भीतर बोधानंन्द-महोज्वल, नित्य मङ्गलमन्दिर, चिन्मय समुद्र के मन्थन से उत्पन्न चित्साररूप, अनन्त आश्चर्यो का सागर, अमित तेजोराशि के अन्तर्गत विशेष तेजः स्वरूप, अनन्त आनन्द प्रवाहों से अलंकृत निरतिशय आनन्द-सागरस्वरूप, निरुपम, नित्य, निर्दोष, निरतिशय, निस्सीम तेजोराशिरूप, निरतिशय आनन्दस्वरूप सहस्रों प्रकारों (चारदीवारियों) से अलंकृत, शुद्ध बोधमय भवनसमूहों से भूषित, चिदानन्दमय अनन्त दिव्य उपवनों से सुशोभित, निरन्तर होनेवाली अपार पुष्पवर्षा से चारों ओर से व्याप्त धाम है। वही त्रिपाद्विभूति वैकुण्ठ-स्थान है।' वही परम कैवल्य है। वही अबाधित परमतत्त्व है। वही अनन्त उपनिषदों द्वारा अन्वेषणीय पद है। वही समस्त परमयोगियों तथा मुमुक्षुओं द्वारा चाहा जाता है। वही घनीभूत सत् है। वही घनीभूत चित् है। वही घनीभूत आनन्द है। वही घनीभूत शुद्धबोधरूप अखण्ड आनन्दमय ब्रह्मचैतन्य का अधिदेवता-स्वरूप है। सबका अधिष्ठान, अद्वय परब्रह्म को विहार-मण्डल, निरतिशय आनन्दरूप तेजोमण्डल, अद्वैत परमानन्दरूप परब्रह्म का परम अधिष्ठानरूप मण्डल, निरतिशय परमानन्द का परममूर्तस्वरूप मण्डल, अनन्त श्रेष्ठ मूर्तियों का समष्टिरूप मण्डल, निरतिशय परमानन्दरूप-स्वरूप परमब्रह्म की परम मूर्तिरूप परमतत्त्व के विलास का स्वरूपभूत मण्डल, बोधानन्दमय अनन्त परम विलासों की विभूतियों का समष्टिरूप मण्डल, अनन्त चिद्विलास की विभूतियों का समष्टिरूप मण्डल, अखण्ड शुद्ध चैतन्य का निजमूर्तिरूप विग्रह, वाणी के अगोचर अनन्त शुद्धबोध का विग्रहरूप, अनन्त आनन्दसमुद्रों का समष्टिरूप, अनन्त बोधस्वरूप पर्वतों तथा अनन्त बोधानन्दरूप पर्वतों से अधिष्ठित, निरतिशय आनन्द एवं परम मङ्गलमय स्वरूपों का समष्टिरूप, अखण्ड अद्वैत परमानन्दस्वरूप परब्रह्म की परममूर्ति के परम तेजःपुंज का पिण्डरूप, चिद्रूप (ज्ञानस्वरूप) सूर्य का मण्डलरूप तथा बत्तीस विभिन्न व्यूहों से अधिष्ठित है। केशवादि चौबीस व्यूह, सुदर्शन आदि के न्यास-मन्त्र, सुदर्शनादि यन्त्रों का उद्धार, अनन्त-गरुड़-विष्वक्सेनादि (पार्षद) तथा निरतिशय आनन्दरूप भी उसी में हैं' ॥ १९-२० ॥ आनन्दव्यूहमध्ये सहस्रकोटियोजनायतोन्नत चिन्मयप्रासादं ब्रह्मानन्दमयविमानकोटिभिरतिमङ्गलमनन्तोपनिषदर्थारामजालसंकु लं सामहंसकूजितैरतिशोभितमानन्दमयानन्तशिखरै- रलङ्कृतं चिदानन्दरसनिझरैरभिव्याप्तमखण्डानन्दतेजोराश्यन्तरस्थितमनन्ता नन्दाश्चर्यसागरं तदभ्यन्तरसंस्थानेऽनन्तकोटिरविप्रकाशातिशयप्राकारं निरतिशयानन्दलक्षणं प्रणवाख्यं विमानं विराजते । शतकोटिशिखरैरानन्दमयैः समुज्ज्वलति । तदन्तराले बोधानन्दाचलोपर्यष्टाक्षरीमण्टपो विभाति । तन्मध्ये च चिदानन्दमयवेदिकानन्दवनविभूषिता । तदुपरि ज्वलति निरतिशयानन्दतेजोराशिः । तदभ्यन्तरसंस्थानेऽष्टाक्षरीपद्मविभूषितं चिन्मयासनं विराजते । प्रणवकर्णिकायां सूर्येन्दुवह्निमण्डलानि चिन्मयानि ज्वलन्ति । तत्राखण्डानन्दतेजोराश्यन्तर्गतं परममङ्ग‌लाकारमनन्तासनं विराजते । तस्योपरि च महायन्त्रं प्रज्वलति । निरतिशय ब्रह्मानन्दपरममूर्तिमहायन्त्रं समस्तब्रह्मतेजोराशिसमष्टिरूपं चित्स्वरूपं निरञ्जनं परब्रह्मस्वरूपं परब्रह्मणः परमरहस्यकैवल्यं महायन्त्रमय परमवैकुण्ठनारायणयन्त्रं विजयते । उपर्युक्त आनन्द-व्यूह के बीच में सहस्रकोटि योजन विस्तीर्ण उन्नत चिन्मय प्रासाद है। (वह) ब्रह्मानन्दमय करोड़ों विमान से युक्त एवं अत्यन्त मङ्गलस्वरूप है। अनन्त उपनिषदों के अर्थस्वरूप उपवन- समुदायों से भरा है। सामवेदरूपी हंसों के कलनाद से उसकी अत्यन्त शोभा होती है। आनन्दमय अनन्त शिखरों से वह अल‌ङ्कृत है। चिदानन्द-रस के झरनों से व्याप्त है। अखण्डानन्दरूप तेजोराशि के भीतर स्थित है। अनन्त आनन्दमय आश्चर्यो का समुद्र है। उसके भीतरी भाग में निरतिशय आनन्दस्वरूप प्रणव नामक विमान है, जिसका प्रकार अनन्तकोटि सूर्यो के प्रकाशसे भी अतिशय प्रकाशमय है। वह विमान आनन्दमय शतकोटि शिखरोंसे जगमगा रहा है। उसके भीतर बोधानन्द-पर्वत के ऊपर अष्टाक्षरीमण्डप सुशोभित है। उस मण्डप के मध्य में आनन्दवन से विभूषित चिदानन्दमयी वेदिका है। उसके ऊपर निरतिशयानन्दस्वरूप तेजोराशि प्रज्वलित हो रही है। उसके भीतर अष्टाक्षरी पद्म से विभूषित चिन्मय आसन विराजमान है। उस आसनरूप पद्म की प्रणवरूपी कर्णिका पर चिन्मय सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि के मण्डल क्रमशः एक के ऊपर एक प्रज्वलित हैं। वहाँ अखण्ड आनन्दरूप तेजोराशि के भीतर परम मङ्गलाकार अनन्तासन विराजमान है। उसके ऊपर महायन्त्र प्रज्वलित है। निरतिशय ब्रह्मानन्द की परममूर्ति रूप वह महायन्त्र समस्त ब्रह्मतेज की राशि का समष्टिस्वरूप, चित्स्वरूप, निर्मल, परब्रह्मस्वरूप एवं परब्रह्म का परम रहस्यमय कैवल्यरूप है। महायन्त्रमय परम वैकुण्ठ का यह नारायण यन्त्र विजयी होता है' ॥ २१-२९॥ तत्स्वरूपं कथमिति । देशिकस्तथेति होवाच । आदौ षट्‌कोणचक्रम् । तन्मध्ये षट्दलपद्मम् । तत्कर्णिकायां प्रणव ॐ इति । प्रणवमध्ये नारायणबीजमिति । तत्साध्यगर्भितं मम सर्वाभीष्टसिद्धि कुरुकुरु स्वाहेति । तत्पद्मदलेषु विष्णुनृसिंहषडक्षरमन्त्रौ ॐ नमो विष्णवे ऐं क्लीं श्रीं ह्रीं क्ष्मों फट् । तद्दलकपोलेषु रामकृष्णषडक्षरमन्त्रौ । रां रामाय नमः । क्लीं कृष्णाय नमः । षट्कोणेषु सुदर्शनषडक्षरमन्त्रः । सहस्रार हुं फडिति । षट्‌कोणकपोलेषु प्रणवयुक्तशिवपञ्चाक्षरमन्त्रः । ॐ नमः शिवायेति । उसका स्वरूप कैसा है?' शिष्यके इस प्रकार पूछनेपर गुरु 'वह ऐसा है' कहकर (यन्त्रको स्वरूप) बतलाते हैं-"पहले षट्‌कोणचक्र बनाना चाहिये। उसके मध्यमें छः दलों का कमल अङ्कित करे। उस कमलकी कर्णिका पर प्रणव (ॐ) लिखे। प्रणव के बीच में नारायण का बीज-मन्त्र (अं) लिखे। वह बीज-मन्त्र साध्य गर्भित होना चाहिये। अर्थात् उसके साथ जिस उद्देश्य से यन्त्र-पूजा करनी हो, उसका सूचक 'मम सर्वाभीष्टसिद्धिं कुरु कुरु स्वाहा' यह वाक्य लिखना चाहिये। कमल के दलों पर विष्णु एवं नृसिंह के षडक्षर मन्त्रों को लिखना चाहिये। विष्णुषडक्षर-मन्त्र 'ॐ विष्णवे नमः' और नृसिंह- षडक्षर मन्त्र 'ऐं क्लीं श्रीं ह्रीं क्षरौं फट्' है। दल-कपोलों में दो दलों के मध्य में श्रीराम तथा श्रीकृष्ण के षडक्षर मन्त्रों को लिखे। राम- षडक्षर-मन्त्र 'रां रामाय नमः' और कृष्ण षडक्षर मन्त्र 'क्लीं कृष्णाय नमः' है। षट्कोणचक्र के छः कोणों में 'सहस्रार हुं फट्' यह सुदर्शन- षडक्षर-मन्त्र लिखे। छहों कोण-कपोलों में (दो कोनों के मध्य अर्थात् रेखाओं के सामने बाहर) 'ॐ नमः शिवाय' यह प्रणवयुक्त शिव- पञ्चाक्षर मन्त्र लिखे" ॥ ३०॥ तद्बहिः प्रणवमालायुक्तं वृत्तम् । वृत्ताद्वहिरष्टदलपद्मम् । तेषु दलेषु नारायणनृसिंह अष्टाक्षरमन्त्रौ । ॐ नमो नारायणाय । जयजय नरसिंह । तद्दलसन्धिषु रामकृष्णश्रीकराष्टाक्षरमन्त्राः । ॐ रामाय हुं फट् स्वाहा। क्लीं दामोदराय नमः । उत्तिष्ठ श्रीकरस्वाहा । "उस षट्‌कोणचक्र के बाहर प्रणव को इस प्रकार माला की भाँति लिखे कि वृत्त बन जाय। वृत्त के बाहर अष्टदल कमल बनाये। उसके दलों पर 'ॐ नमो नारायणाय' यह नारायण-अष्टाक्षर-मन्त्र और 'जय जय नरसिंह' यह नृसिंह-अष्टाक्षर-मन्त्र लिखे। दलों के बीच के स्थानों पर राम, कृष्ण तथा श्रीकर के अष्टाक्षर-मन्त्र लिखे। मन्त्र क्रमशः ये हैं-'ॐ रामाय हुं फट् स्वाहा' 'क्लीं दामोदराय नमः', 'उत्तिष्ठ श्रीकर स्वाहा' ॥ ३१॥ तद्बहिः प्रणवमालायुक्तं वृत्तम् । वृत्तद्वहिर्नवदलपद्मम् । तेषु दलेषु रामकृष्ण- हयग्रीवनवाक्षरमन्त्राः। ॐ रामचन्द्राय नमॐ । क्लीं लीं कृष्णाय गोविन्दाय क्लीम्। ह्रौं हयग्रीवाय नमो ह्रौं । तद्दलकपोलेषु दक्षिणामूर्तिरीश्वरम् । "उस (अष्टदल कमल)- के बाहर प्रणव के माला की तरह लिखते हुए वृत्ताकार बना दे। वृत्त के बाहर नौ दलों का कमल बनाये। कमलके दलों में (क्रमशः) राम, कृष्ण एवं हयग्रीव के नवाक्षर-मन्त्र लिखे। मन्त्र क्रमशः ये हैं-'ॐ रामचन्द्राय नमः ॐ', 'क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय क्लीं', 'सौं हयग्रीवाय नमः सौं।' दलों के मध्यमें ॐ दक्षिणामूर्तिरीश्वरोम्' यह दक्षिणामूर्ति-नवाक्षर-मन्त्र लिखे" ॥ ३२ ॥ तद्बहिर्नारायणबीजयुक्तं वृत्तम् । वृत्तद्बहिर्दशदलपद्मम् । तेषु दलेषु रामकृष्णदशाक्षरमन्त्रौ । हुं जानकीवल्लभाय स्वाहा । गोपीजनवल्लभाय स्वाहा। तद्दलसन्धिषु नृसिंहमालामन्त्रः । ॐ नमो भगवते श्रीमहानृसिंहाय करालदंष्ट्रवदनाय मम विघ्नात्पचपच स्वाहा। तद्वहिर्नृसिंहैकाक्षरयुक्तं वृत्तम् । "उसके बाहर नारायण-बीज (अं) से युक्त अर्थात् अं अं लिखते हुए वृत्त बनाये। वृत्त से बाहर दस दलों का कमल बनाये। उन दलों पर राम तथा कृष्णके दशाक्षर मन्त्र लिखे। वे मन्त्र ये हैं-'हुं जानकीवल्लभाय स्वाहा', 'गोपीजनवल्लभाय स्वाहा'। दलोंके संधिस्थानों में 'ॐ नमो भगवते श्रीमहानृसिंहाय कालदंष्ट्रवदनाय मम विघ्न पच पच स्वाहा' यह नृसिंहमाला-मन्त्र लिखे" ॥ ३३ ॥ क्ष्मों इत्येकाक्षरम् । वृत्ताद्बहिर्द्वादशदलपद्मम् । तेषु दलेषु नारायण- वासुदेवद्वादशाक्षरमन्त्रौ । ॐ नमो भगवते नारायणाय । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । तद्दलकपोलेषु महाविष्णु- रामकृष्णद्वादशाक्षरमन्त्राश्च । ॐ नमो भगवते महाविष्णवे । ॐ ह्रीं भरताग्रज राम क्लीं स्वाहा । श्रीं रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय नमः । "दस दल कमल के बाहर नृसिंह के एकाक्षर-मन्त्र 'क्षरौं' के द्वारा वृत्त बनाये। वृत्त के बाहर बारह दलों का कमल बनाये। दलोंपर नारायण तथा वासुदेव के द्वादशाक्षरमन्त्र लिखे। मन्त्र क्रमशः ये हैं-'ॐ नमो भगवते नारायणाय', 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।' दलों के कपोलों में क्रमशः महाविष्णु, श्रीराम तथा श्रीकृष्ण के द्वादशाक्षर मन्त्र लिखे। मन्त्र इस प्रकार हैं-'ॐ नमो भगवते महाविष्णवे', 'ॐ ह्रीं भरताग्रज राम क्लीं स्वाहा', 'श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय नमः ॥ ३४॥ तद्वहिर्जगन्मोहन बीजयुक्तं वृत्तं क्लीं इति । वृत्तद्वहिश्चतुर्दशदलपद्मम् । तेषु दलेषु लक्ष्मीनारायणहयग्रीवगोपालदधिवामन- मन्त्राश्च । ॐ ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं लक्ष्मीवासुदेवाय नमः । ॐ नमः सर्वकोटिसर्वविद्याराजाय क्लीं कृष्णाय गोपालचूडामणये स्वाहा। ॐ नमो भगवते दधिवामनाय ॐ । तद्दलसन्धिष्वन्नपूर्णेश्वरीमन्त्रः । ह्रीं पद्मावत्यन्नपूर्णे माहेश्वरी स्वाहा । उसके बाहर जगन्मोहन बीज-मन्त्र 'क्लीम्' से वृत्त बनाये। वृत्त से बाहर चौदह दलों का कमल बनाये। उन दलों पर क्रमशः लक्ष्मीनारायण, हयग्रीव, गोपाल तथा दधिवामन के मन्त्रों को लिखे। मन्त्र ये हैं-'ॐ ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं लक्ष्मीवासुदेवाय नमः', 'ॐ नमः सर्वकोटिसर्वविद्याराजाय', 'क्लीं कृष्णाय गोपालचूडामणये स्वाहा', 'ॐ नमो भगवते दधिवामनाय ॐ।' दो दलों के सन्धि-स्थानों पर 'हीं पद्मावत्यन्नपूर्णे माहेश्वरि स्वाहा' यह अन्नपूर्णेश्वरी-मन्त्र लिखे" ॥ ३५॥ तद्बहिः प्रणवमालायुक्तं वृत्तम् । वृत्ताद्वहिः षोडशदलपद्मम् । तेषु दलेषु श्रीकृष्ण- सुदर्शनषोडशाक्षरमन्त्रौ च । ॐ नमो भगवते रुक्मिणीवल्लभाय स्वाहा। ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय हुं फट् । तद्दलसन्धिषु स्वराः सुदर्शनमालामन्त्राश्च । अआइई उ ऊ ऋ ऋ लृलू ए ऐ ओ औ अं अः । सुदर्शनमहाचक्राय दीप्तरूपाय सर्वतो मां रक्षरक्ष सहस्रार हुं फट् स्वाहा । उसके बाहर केवल प्रणव से एक वृत्त बनाये। वृत्त से बाहर सोलह, दलों का कमल बनाये। उसके दलों पर श्रीकृष्ण तथा सुदर्शन के षोडशाक्षर-मन्त्रों को लिखे। मन्त्र क्रमशः इस प्रकार हैं-'ॐ नमो भगवते रुक्मिणीवल्लभाय स्वाहा', 'ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय हुं फट्।' उसके दलों के सन्धि-भागों में सब स्वर तथा सुदर्शन-माला-मन्त्र लिखे। पूरा मन्त्र यह है 'सुदर्शनमहाचक्राय दीप्तरूपाय सर्वतो मां रक्ष रक्ष सहस्रार हुं फट् स्वाहा।' पहले एक-एक स्वर लिखा जायगा, फिर स्वरोंके नीचे क्रमशः प्रत्येक दलपर मन्त्रके दोदो अक्षर जैसे प्रथम दलपर 'सुद' दूसरे पर 'र्शन' इस प्रकार लिखे जायँगे ॥ ३६॥ तद्वहिर्वराहबीजयुक्तं वृत्तम् । तद्धमिति । वृत्तद्वहिरष्टादशदलपद्मम् । तेषु दलेषु श्रीकृष्णवामनाष्टादशाक्षरमन्त्रौ । क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा । ॐ नमो विष्णवे सुरपतये महाबलाय स्वाहा । तद्दलकपोलेषु गरुडपञ्चाक्षरीमन्त्रो गरुडमालामन्त्रश्च । क्षिप ॐ स्वाहा । ॐ नमः पक्षिराजाय सर्वविषभूतरक्षः- कृत्यादिभेदनाय सर्वेष्टसाधकाय स्वाहा । "उसके बाहर वराह-बीज से युक्त वृत्त रहेगा। वह बीज 'हुँ' है। वृत्त से बाहर अठारह दलों का कमल बनाये। उन दलों पर श्रीकृष्ण तथा वामन के अष्टादशाक्षरमन्त्र लिखे। मन्त्र क्रमशः इस प्रकार हैं-'क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा', 'ॐ नमो विष्णवे सुरपतये महाबलाय स्वाहा।' दलों के सन्धि-स्थानों पर गरुड- पञ्चाक्षर-मन्त्र और गरुड-माला-मन्त्र लिखे। मन्त्र क्रमशः ये हैं-'क्षिप ॐ स्वाहा', 'ॐ नमः पक्षिराजाय सर्वविषभूतरक्षः कृत्यादिभेदनाय सर्वेष्टसाधकाय स्वाहा।' इसमें पहले दल पर 'क्षिप', दूसरे पर 'ॐ' तीसरे पर 'स्वाहा', चौथे पर 'ॐ नमः', पाँचवें पर 'पक्षि', छठे पर 'राजाय' और शेष पर शेष मन्त्र भागके दो-दो अक्षर लिखे जायँगे ॥३७॥ तद्बहिर्मायाबीजयुक्तं वृत्तम् । वृत्तद्बहिः पुनरष्टदलपद्मम् । तेषु दलेषु श्रीकृष्णवामनाष्टाक्षरमन्त्रौ । ॐ नमो दामोदराय । ॐ वामनाय नमः ॐ । तद्दलकपोलेषु नीलकण्ठत्र्यक्षरीगरुडपञ्चाक्षरीमन्त्रौ च । प्रे रीं ठः । नमोऽण्डजाय । "उसके बाहर 'हीं' इस माया-बीज से वृत्त बनाये। उसके बाहर फिर अष्टदल कमल बनाये। उन दलों पर श्रीकृष्ण तथा वामन के अष्टाक्षर- मन्त्र' ॐ नमो दामोदराय' और 'ॐ वामनाय नमः ॐ' इनको क्रमशः लिखे। दलों के सन्धि-स्थलों पर नीलकण्ठ के त्र्यक्षर तथा गरुड के पञ्चाक्षर मन्त्रों को पहले तीन दलों पर पहले का एक-एक अक्षर, फिर शेष पर दूसरे का एक-एक अक्षर इस प्रकार लिखें 'प्रे रीं ठः, नमोऽण्डजाय" ॥ ३८॥ तद्वहिर्मन्मथबीजयुक्तं वृत्तम् । वृत्तद्बहिश्चतुर्विंशतिदलपद्मम् । तेषु दलेषु शरणागत- नारायणमन्त्रौ नारायणहयग्रीवगायत्री मन्त्रौ च । श्रीमन्नारायणचरणौ शरणं प्रपद्ये श्रीमते नारायणाय नमः । नारायाणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि । तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् । वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि । तन्नो हंसः प्रचोदयात् । तद्दलकपोलेषु नृसिंहसुदर्शनगायत्रीमन्त्राश्च । वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्णदंष्ट्राय धीमहि । तन्नो नृसिंहः प्रचोदयात् । सुदर्शनाय विद्महे हेतिराजाय धीमहि । तन्नश्चक्रः प्रचोदयात् । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् । "उसके बाहर कामदेव के बीज-मन्त्र क्लीं से वृत्त बनाये। वृत्त से बाहर चौबीस दलों का कमल निर्मित करे। उन दलोंपर शरणागत- मन्त्र एवं नारायण-मन्त्र (पहले एक-एक अक्षर के क्रम से शरणागत- मन्त्र और शेष दलों पर नारायण-मन्त्रके अक्षर) तथा नारायण एवं हयग्रीवके गायत्री मन्त्र क्रमशः लिखे। मन्त्र इस प्रकार हैं- 'श्रीमन्नारायणचरणौ शरणं प्रपद्ये', 'श्रीमते नारायणाय नमः', 'नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्' 'वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्।' उसके दलों के सन्धिभागों में नृसिंह-गायत्री, सुदर्शन-गायत्री तथा ब्रह्मगायत्रीमन्त्र (क्रमशः) लिखे। मन्त्र ये हैं- 'वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्णदंष्ट्राय धीमहि तन्नः सिंहः प्रचोदयात्', 'सुदर्शनाय विद्महे हेतिराजाय धीमहि तन्नश्चक्रः प्रचोदयात् 'तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ ३९॥ तद्बहिर्हयग्रीवैकाक्षरयुक्तं वृत्तं ह्रोसौमिति । वृत्ताद्वहिर्द्वात्रिंशद्दलपद्मम् । तेषु दलेषु नृसिंहहयग्रीवानुष्टुभमन्त्रौ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् । नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् । ऋग्यजुःसामरूपाय वेदाहरणकर्मणे । प्रणवोद्गीथवपुषे महाश्वशिरसे नमः । तद्दलकपोलेषु रामकृष्णानुष्टुभमन्त्रौ । रामभद्र महेश्वास रघुवीर नृपोत्तम । भो दशास्यान्तकास्माकं रक्षां देहि श्रियं च मे । देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः । तद्बहिः प्रणवसम्पुटिताग्निबीजयुक्तं वृत्तम् । ॐ रमोमिति । वृत्तद्बहिः षट्त्रिंशद्दलपद्मम् । तेषु दलेषु हयग्रीवषट्त्रिंशदक्षरमन्त्रः पुनरष्टत्रिंशदक्षर मन्त्रश्च । हंसः । विश्वोत्तीर्णस्वरूपाय चिन्मयानन्दरूपिणे । तुभ्यं नमो हयग्रीव विद्याराजाय विष्णवे । सोऽहम् । ह् रौं ॐ नमो भगवते हयग्रीवाय सर्ववागीश्वरेश्वराय सर्ववेदमयाय सर्वविद्यां मे देहि स्वाहा । तद्दलकपोलेषु प्रणवादिनमोन्ताश्च तुर्थ्यन्ताः केशवादिचतुर्विंशतिमन्त्राश्च । अवशिष्टद्वादशस्थानेषु रामकृष्णगायत्रीद्वयवर्णचतुष्टयमेकैकस्थले । ॐ केशवाय नमः । ॐ नारायणाय नमः । ॐ माधवाय नमः । ॐ गोविन्दाय नमः । ॐ विष्णवे नमः । ॐ मधुसूदनाय नमः । ॐ त्रिविक्रमाय नमः । ॐ वामनाय नमः । ॐ श्रीधराय नमः । ॐ हृषीकेशाय नमः । ॐ पद्मनाभाय नमः । ॐ दामोदराय नमः । ॐ सङ्कर्षणाय नमः । ॐ वासुदेवाय नमः । ॐ प्रद्युम्नाय नमः । ॐ अनिरुद्धाय नमः । ॐ पुरुषोत्तमाय नमः । ॐ अधोक्षजाय नमः । ॐ नारसिंहाय नमः । ॐ अच्युताय नमः । ॐ जनार्दनाय नमः । ॐ उपेन्द्राय नमः । ॐ हरये नमः । ॐ श्रीकृष्णाय नमः । दाशरथाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि । तन्नो रामः प्रचोदयात् । दामोदराय विद्महे वासुदेवाय धीमहि । तन्नः कृष्णः प्रचोदयात् । तद्बहिः प्रणवसम्पुटिताङ्‌कुशबीजयुक्तं वृत्तम् । ॐ क्रोमिति । तद्वहिः पुनर्वृत्तं तन्मध्ये द्वादशकुक्षिस्थानानि सान्तरालानि । तेषु कौस्तुभवनमालाश्रीवत्ससुदर्शनगरुडपद्म- ध्वजानन्तशार्ङ्गगदाशङ्‌खनन्दकमन्त्राः प्रणवादि- नमओन्ताश्चतुर्थ्यन्ताः क्रमेण । ॐ कौस्तुभाय नमः । ॐ वनमालाय नमः । ॐ श्रीवत्साय नमः । ॐ सुदर्शनाय नमः । ॐ गरुडाय नमः । ॐ पद्माय नमः । ॐ ध्वजाय नमः । ॐ अनन्ताय नमः । ॐ शार्ङ्गय नमः । ॐ गदायै नमः । ॐ शङ्खाय नमः । ॐ नन्दकाय नमः । तदन्तरालेषु----ॐ विश्वक्सेनाय नमः । ॐआचक्राय स्वाहा । ॐ विचक्राय स्वाहा । ॐ सुचक्राय स्वाहा । ॐ धीचक्राय स्वाहा । ॐ संचक्राय स्वाहा । ॐ ज्वालचक्राय स्वाहा । ॐ कुद्धोल्काय स्वाहा । ॐ महोत्काय स्वाहा । ॐ वीर्योल्काय स्वाहा । ॐ ह्युल्काय स्वाहा । ॐ सहस्रोल्काय स्वाहा। इति प्रणवादि मन्त्राः । "उसके बाहर 'सौं' इस हयग्रीव के एकाक्षर बीज-मन्त्र से वृत्त बनाये। उसके बाहर बत्तीस दलों का कमल बनाये। उसके दलों पर (क्रमशः) नृसिंह एवं हयग्रीव के अनुष्टुप् मन्त्रों को लिखे। यह मन्त्र हैं- उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्। नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥ ऋग्यजुःसामरूपाय वेदाहरणकर्मणे। प्रणवोद्गीथवपुषे महाश्वशिरसे नमः ॥ दलों के सन्धि-भागों में (क्रमशः) राम तथा कृष्ण के अनुष्टुप्-मन्त्र लिखे- रामभद्र महेष्वास रघुवीर नृपोत्तम । भो दशास्यान्तकास्माकं रक्षां देहि श्रियं च ते ॥ देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते। देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ उसके बाहर प्रणव से सम्पुटित अग्निबीज (ॐ रमोम्) -से वृत्त बनाये। वृत्त से बाहर छत्तीस दलों का कमल बनाये। उसके दलोंपर हयग्रीव का छत्तीस अक्षरोंवाला और फिर (उसके नीचे) अड़तीस अक्षरों वाला मन्त्र लिखे।" मन्त्र क्रमशः इस प्रकार हैं- हंसः' विश्वोत्तीर्णस्वरूपाय चिन्मयानन्दरूपिणे। तुभ्यं नमो हयग्रीव विद्याराजाय विष्णवे 'सोऽहम् ॥ 'हसौं ॐ नमो भगवते हयग्रीवाय सर्ववागीश्वरेश्वराय सर्ववेदमयाय सर्वविद्यां मे देहि स्वाहा।' इस मन्त्रमें ३८ अक्षर होनेसे पहलेके दो 'सौमोम्' प्रथम दलपर तथा 'नमो' दूसरे दलपर और शेषपर एक एक अक्षर लिखे जायँगे। दलोंके सन्धि-स्थलों में आदिमें 'ॐ' तथा अन्तमें 'नमः' लगाकर केशवादि के चतुर्थी विभक्ति युक्त चौबीस नाम मन्त्र प्रत्येक दल पर पूरा एक मन्त्र तथा शेष बारह दलों पर राम-कृष्ण के दोनों गायत्री मन्त्रों के चार- चार अक्षर एक-एक स्थल पर पहली गायत्री के चार-चार अक्षरके बाद दूसरीके चार-चार अक्षर क्रम से लिखे। मन्त्र ये हैं-" ॐ केशवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः, ॐ माधवाय नमः, ॐ गोविन्दाय नमः, ॐ विष्णवे नमः, ॐ मधुसूदनाय नमः, ॐ त्रिविक्रमाय नमः, ॐ वामनाय नमः, ॐ श्रीधराय नमः, ॐ हृषीकेशाय नमः, ॐ पद्मनाभाय नमः, ॐ दामोदराय नमः, ॐ संकर्षणाय नमः, ॐ वासुदेवाय नमः, ॐ प्रद्युम्नाय नमः, ॐ अनिरुद्धाय नमः, ॐ पुरुषोत्तमाय नमः, ॐ अधोक्षजाय नमः, ॐ नारसिंहाय नमः, ॐ अच्युताय नमः, ॐ जनार्दनाय नमः, ॐ उपेन्द्राय नमः, ॐ हरये नमः, ॐ श्रीकृष्णाय नमः। श्रीरामगायत्री- दाशरथाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात्। श्रीकृष्णगायत्री दामोदराय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्। उसके बाहर प्रणवसे सम्पुटित अंकुश-बीज 'ॐ को ॐ' मन्त्र से वृत्त बनाये। उस वृत्त से बाहर कुछ अन्तर छोड़कर उसी मन्त्र से फिर वृत्त बनाये। दोनों वृत्तों के मध्य में बारह कोष्ठ वृत्त बनाये, जिनके मध्य में अन्तर हो। उन कोष्ठों वृत्तों में आदि में प्रणव तथा अन्त में 'नमः' लगाकर चतुर्थी विभक्तियुक्त कौस्तुभ, वनमाला, श्रीवत्स, सुदर्शन, गरुड, पद्म, ध्वज, अनन्त, शाङ्ग, गदा, शंख एवं नन्दक के मन्त्र लिखे। मन्त्र इस प्रकार होंगे ॐ कौस्तुभाय नमः, ॐ वनमालायै नमः, ॐ श्रीवत्साय नमः, ॐ सुदर्शनाय नमः, ॐ गरुडाय नमः, ॐ पद्माय नमः, ॐ ध्वजाय नमः, ॐ अनन्ताय नमः, ॐ शाङ्गय नमः, ॐ गदायै नमः, ॐ श‌ङ्खाय नमः, ॐ नन्दकाय नमः। "कोष्ठोंके अन्तरालों में आदिमें प्रणवयुक्त ये मन्त्र लिखे" ॐ विष्वक्सेनाय नमः, ॐ आचक्राय स्वाहा, ॐ विचक्राय स्वाहा, ॐ सुचक्राय स्वाहा, ॐ धीचक्राय स्वाहा, ॐ संचक्राय स्वाहा, ॐ ज्वालाचक्राय स्वाहा, ॐ क्रुद्धोल्काय स्वाहा, ॐ महोल्काय स्वाहा, ॐ वीर्योल्काय स्वाहा, ॐ विद्योल्काय स्वाहा, ॐ सहस्रोल्काय स्वाहा ॥४०-४२॥ तद्बहिः प्रणवसम्पुटितगरुडपञ्चाक्षरयुक्तं वृत्तम् । ॐ क्षिप ॐ स्वाहाम् । ॐ तच्च द्वादशवत्रैः सान्तरालैरलङ्कृतम् । तेषु वज्रेषु ॐ पद्मनिधये नमः । ॐ महापद्मनिधये नमः । ॐ गरुडनिधये नमः । शङ्खनिधये नमः । ॐ मकरनिधये नमः । ॐ कच्छपनिधये नमः । ॐ विद्यानिधये नमः । ॐ परमानन्दनिधये नमः । ॐ मोक्षनिधये नमः । ॐ लक्ष्मीनिधये नमः । ॐ ब्रह्मनिधये नमः । ॐ श्रीमुकुन्दनिधये नमः । ॐ वैकुण्ठनिधये नमः । तत्सन्धिस्थानेषु---- ॐ विद्याकल्पकतरवे नमः । ॐ मुक्तिकल्पकतरवे नमः । ॐ आनन्दकल्पकतरवे नमः । ॐ ब्रह्मकल्पकतरवे नमः । ॐ मुक्तिकल्पकतरवे नमः । ॐ अमृतकल्पकतरवे नमः । ॐ बोधकल्पकतरवे नमः । ॐ विभूतिकल्पकतरवे नमः । ॐ वैकुण्ठकल्पकतरवे नमः । ॐ वेदकल्पकतरवे नमः । ॐ योगकल्पकतरवे नमः । ॐ यज्ञकल्पकतरवे नमः । ॐ पद्मकल्पकतरवे नमः । तच्च शिवगायत्रीपरब्रह्ममन्त्राणां वर्णैर्वृत्ताकारेण संवेष्ट्य । तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् । श्रिअमन्नारायणो ज्योतिरात्मा नारायणः परः । नारायणपरं ब्रह्म नारायण नमोस्तु ते । तद्बहिः प्रणवसम्पुटितश्रीबीजयुक्तं वृत्तम् । ॐ श्रीमोमिति । वृत्ताद्बहिश्चत्वारिंशद्दलपद्मम् । तेषु दलेषु व्याहृतिशिरः सम्पुटितवेदगायत्रीपादचतुष्टयसूर्याष्टाक्षरमन्त्रौ । ॐ भूः । ॐ भुवः । ॐ सुवः। ॐ महः । ॐ जनः । ॐ तपः । ॐ सत्यम् । ॐ तत्सवितुर्वरेण्यम् । ॐ भर्गो देवस्य धीमहि । ॐ धियो यो नः प्रचोदयात् । ॐ परोरजसे सावदोम् । ॐ आपोज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः सुवरोम् । ॐ घृणिः सूर्य आदित्यः । तद्दलसन्धिषु प्रणवश्रीबीजसम्पुटितनारायणबीजं सर्वत्र । ॐ श्रीमं श्रीमोम् । "उसके बाहर प्रणव से सम्पुटित गरुडपञ्चाक्षर 'ॐ क्षिप ॐ स्वाहा ॐ'-मन्त्र से वृत्त बनाये। दोनों वृत्तों के मध्य भाग में अन्तर छोड़कर बारह वज्र बनाये। उन वज्रों के कोणों में ये मन्त्र लिखे-" ॐ पद्मनिधये नमः, ॐ महापद्मनिधये नमः, ॐ गरुडनिधये नमः, ॐ श‌ङ्खनिधये नमः, ॐ मकरनिधये नमः, ॐ कच्छपनिधये नमः, ॐ विद्यानिधये नमः, ॐ परमानन्दनिधये नमः, ॐ मोक्षनिधये नमः, ॐ लक्ष्मीनिधये नमः, ॐ ब्रह्मनिधये नमः, ॐ मुकुन्दनिधये नमः। 'उन वज्रों के बीच के भागों में ये मन्त्र लिखे ॐ विद्याकल्पकतरवे नमः, ॐ आनन्दकल्पकतरवे नमः, ॐ ब्रह्मकल्पकतरवे नमः, ॐ मुक्तिकल्पकतरवे नमः, ॐ अमृतकल्पकतरवे नमः, ॐ बोधकल्पकतरवे नमः, ॐ विभूतिकल्पकतरवे नमः, ॐ वैकुण्ठकल्पकतरवे नमः, ॐ वेदकल्पकतरवे नमः, ॐ योगकल्पकतरवे नमः, ॐ यज्ञकल्पकतरवे नमः, ॐ पद्मकल्पकतरवे नमः। इस वृत्त को शिवगायत्री तथा परब्रह्म-मन्त्र के अक्षरों द्वारा वृत्तरूप से घेरे। अर्थात् वृत्त के बाहर पहले शिवगायत्री इस प्रकार लिखे कि वृत्त के चारों ओर गोलाई में आधी दूर के लगभग वह लिखी जाय और आगे 'परब्रह्म मन्त्र लिखकर उस गोले को पूरा कर दे। मन्त्र ये हैं शिव-गायत्री- तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्। परब्रह्ममन्त्र- श्रीमन्नारायणो ज्योतिरात्मा नारायणः परः। नारायणपरं ब्रह्म नारायण नमोऽस्तु ते॥ "उसके बाहर प्रणव से सम्पुटितं श्री बीज अर्थात् 'ॐ श्रीमोम्' मन्त्र से वृत्त बनाये। वृत्त के बाहर चालीस दलों का कमल बनाये। उसके दलों पर व्याहृति एवं शिरोभाग से सम्पुटित वेद-गायत्री के चारों पाद तथा सूर्याष्टाक्षर-मन्त्र लिखे।" मन्त्र इस प्रकार होंगे 'ॐ भूः ॐ भुवः ॐ सुवः ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम् ॐ तत्सवितुर्वरेण्यम् ॐ भर्गो देवस्य धीमहि ॐ धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ परो रजसे सावदोम् ओमापो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः सुवरोम् ।' 'ॐ घृणिः सूर्य आदित्यः।" "दलों के सन्धि-स्थलों पर सब कहीं प्रणव और श्रीबीज से सम्पुटित नारायण- बीज अर्थात् 'ॐ श्रीमं श्रीमोम्' यह मन्त्र लिखे" ॥ ४३-४४॥ तद्वहिरष्टशूलाङ्कितभूचक्रम् । चक्रान्तश्चक्षुर्दिक्षु हंसःसोहम्मन्त्रौ प्रणवसम्पुटिता नारायणास्त्रमन्त्राश्च । ॐ हंसः सोहम् । ॐ नमो नारायणाय हुं फट् । "उसके बाहर आठ शूलों से अङ्कित भू-चक्र बनाये। चक्र के भीतर चारों दिशाओं में प्रणव से सम्पुटित 'हंसः सोऽहम्' मन्त्र और नारायणास्त्र-मन्त्र लिखे। पूरा मन्त्र यह है-'ॐ हंसः सोऽहमोम्' 'ॐ नमो नारायणाय हुं फट् ॥ ४५ ॥ तद्बहिः प्रणवमालासंयुक्तं वृत्तम् । वृत्ताद्बहिः पञ्चाशद्दलपद्मम् । तेषु दलेषु मातृका पञ्चाशदक्षरमाला लकारवर्ज्या । तद्दलसन्धिषु प्रणवश्रीबीजसम्पुटितरामकृष्णमालामन्त्रौ । ॐ श्रीमों नमो भगवते रघुनन्दनाय रक्षोघ्नविशदाय मधुरप्रसन्नवदनायामिततेजसे बलाय रामाय विष्णवे नमः । श्रीमों नमः कृष्णाय देवकीपुत्राय वासुदेवाय निर्गलच्छेदनाय ्लीं सर्वलोकाधिपतये सर्वजगन्मोहनाय विष्णवे कामितार्थदाय स्वाहा श्रीमोम् । "उसके बाहर प्रणव-माला से युक्त वृत्त बनाये। वृत्त के बाहर पचास दलों का कमल बनाये। उन दलों में 'ळ' को छोड़कर मातृका के सभी शेष पचास अक्षर (अर्थात् अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋलै लै ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह क्ष) लिखे। उसके दलों की सन्धियों में प्रणव तथा श्रीबीज से सम्पुटित राम एवं कृष्ण के माला-मन्त्र क्रमशः ऊपर-नीचे लिखे। मन्त्र इस प्रकार होंगे (राममाला-मन्त्र-) 'ॐ श्रीमों नमो भगवते रघुनन्दनाय रक्षोघ्नविशदाय मधुरप्रसन्नवदनायामिततेजसे बलाय रामाय विष्णवे नमः श्रीमोम्'। श्रीकृष्णमाला-मन्त्र- 'ॐ श्रीमों नमः कृष्णाय देवकीपुत्राय वासुदेवाय निगलच्छेदनाय सर्वलोकाधिपतये सर्वजगन्मोहनाय विष्णवे कामितार्थदाय स्वाहा श्रीमोम् ॥४६॥ तद्वहिरष्टशूलाङ्कितभूचक्रम् । तेषु प्रणवसम्पुटितमहानीलकण्ठमन्त्रवर्णानि । आऊम्मों नमो नीलकण्ठाय । ॐ शूलाग्रेषु लोकपालमन्त्राः प्रणवादिनमोन्ताश्चतुर्थ्यन्ताः क्रमेण । ॐ इन्द्राय नमः । ॐ अग्नये नमः । ॐ यमाय नमः । ॐ निरृतये नमः । ॐ वरुणाय नमः । ॐ वायवे नमः । ॐ सोमाय नमः । ॐ ईशानाय नमः । उसके बाहर अष्ट शूलों से अङ्कित एक भूचक्र और बनाये। उन शूलों में प्रणवसम्पुटित महानील कण्ठमन्त्र के अक्षर अर्थात् 'ॐ ॐ नमो नीलकण्ठाय ॐ लिखे। शूलों के अग्रभाग में आदि में प्रणव तथा अन्त में नमः लगाकर चतुर्थी विभक्तियुक्त लोकपालों के मन्त्र इस प्रकार क्रमशः लिखे ओमिन्द्राय नमः, ओमग्नये नमः, ॐ यमाय नमः, ॐ निर्ऋतये नमः, ॐ वरुणाय नमः, ॐ वायवे नमः, ॐ सोमाय नमः, ओमीशानाय नमः ॥४७॥ तद्बहिः प्रणवमालायुक्तं वृत्तत्रयम् । तद्वहिर्भूपुरचतुष्टयं चतुर्द्वारयुतं चक्रकोणचतुष्टयमहावज्रविभूषितं तेषु वज्रेषु प्रणवश्रीबीजसम्पुटितामृतबीजद्वयम् । ॐ श्रीं ठं वं श्रीमोमिति । बहिर्भूपुरवीथ्याम् ॐ आधारशक्त्यै नमः । ॐ मूलप्रकृत्यै नमः । ॐ आदिकूर्माय नमः । ॐ अनन्ताय नमः । ॐ पृथिव्यै नमः । मध्यभूपुरवीथ्याम् ॐ क्षीरसमुद्राय नमः । ॐ रत्नद्वीपाय नमः । ॐ मणिमण्डपाय नमः । ॐ श्वेतच्छत्राय नमः । ॐ कल्पकवृक्षाय नमः । ॐ रत्नसिंहासनाय नमः । प्रथमभूपुरवीथ्यामों धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्याधर्माज्ञानावैराग्यानैश्वर्यसत्वरजस्तमोमाया- विद्यानन्तपद्माः प्रणवादिनमोन्ताश्चतुर्थ्यन्ताः क्रमेण । अन्तवृत्तवीथ्यामोमनुग्रहायै नमः । ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मने वासुदेवाय सर्वात्मसंयोग- योगपीठात्मने नमः । वृत्तवकाशेषु बीजं प्राणं च शक्तिं च दृष्टिं वश्यादिकं तथा । मन्त्रयन्त्राख्यगायत्रीप्राणस्थापनमेव च । भूतदिक्पालबीजानि यन्त्रस्याङ्गानि वै दश । मूलमन्त्रमालामन्त्रकवचदिग्बन्धनमन्त्राश्च । एवंविधमेतद्यन्त्रं महामन्त्रमयं योगधीरान्तैः परमन्त्रैरल‌ङ्कृतं षोडशोपचारैरभ्यर्चितं जपहोमादिना साधितमेतद्यन्त्रं शुद्धब्रह्मतेजोमयं सर्वाभयङ्करं समस्तदुरितक्षयकरं सर्वाभीष्ट- सम्पादकं सायुज्यमुक्तिप्रदमेतत्परमवैकुण्ठ- महानारायणयन्त्रं प्रज्वलति । "उसके बाहर प्रणव (ॐ) की माला से युक्त तीन वृत्त बनाये। उसके बाहर चार द्वारोंसे युक्त चार भूपुर बनाये, जिसमें चक्र के चारों कोनों पर महावज्र शोभित हों। उन वज्रों में प्रणव तथा श्रीबीज से सम्पुटित दो अमृत-बीज" ॐ श्रीं वं वं श्रीं ॐ' लिखे। प्रणव-वृत्तों के बाहर सबसे बाहरी भूपुर-वीथी में ये मन्त्र लिखे 'ओमाधारशक्त्यै नमः, ॐ मूलप्रकृत्यै नमः, ओमादिकूर्माय नमः, ओमनन्ताय नमः, ॐ पृथिव्यै नमः।' मध्यभूपुर-मार्गमें ये मन्त्र लिखे ॐ क्षीरसमुद्राय नमः, ॐ रत्नद्वीपाय नमः, ॐ रत्नमण्डपाय नमः, ॐ श्वेतच्छत्राय नमः, ॐ कल्पकवृक्षाय नमः, ॐ रत्नसिंहासनाय नमः।' प्रथम भूपुर-वीथी में आदि में प्रणव तथा अन्त में नमः लगाकर चतुर्थी विभक्ति युक्त धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्वर्य, सत्त्व, रजस्, तमस्, माया, अविद्या, अनन्त एवं पद्म के मन्त्र लिखे। इन मन्त्रों के यह रूप होंगे-ॐ धर्माय नमः, ॐ ज्ञानाय नमः, ॐ वैराग्याय नमः, ओमैश्वर्याय नमः, ओमधर्माय नमः, ओमज्ञानाय नमः, ओमवैराग्याय नमः, ओमनैश्वर्याय नमः, ॐ सत्त्वाय नमः, ॐ रजसे नमः, ॐ तमसे नमः, ॐ मायायै नमः, ओमविद्यायै नमः, ओमनन्ताय नमः, ॐ पद्माय नमः। बाहरी वृत्त की वीथी में-विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्ली, सत्या, ईशाना-इन सबके चतुर्थ्यन्त नाम आदि में प्रणव और अन्त में 'नमः' लगाकर लिखे ॐ विमलायै नमः, ओमुत्कर्षिण्यै नमः, ॐ ज्ञानायै नमः, ॐ क्रियायै नमः, ॐ योगायै नमः, ॐ प्रहृयै नमः, ॐ सत्यायै नमः, ओमीशानायै नमः। भीतरी वृत्त की वीथी में' ओमनुग्रहायै नमः, ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मने वासुदेवाय सर्वात्मसंयोगयोगपीठात्मने नमः' लिखे।" 'वृत्तों के बीचके स्थानों में- मन्त्रों के बीज, प्राण, शक्ति, दृष्टि, वश्य आदि, मन्त्र-यन्त्रों के नाम, गायत्री, प्राणप्रतिष्ठा, भूतशुद्धि तथा दिक्पालों के बीज-ये यन्त्र के दस अङ्ग तथा इनके अतिरिक्त मूलमन्त्र, मालामन्त्र, कवच तथा दिग्बन्धन के मन्त्र भी दिये जाते हैं।' इस प्रकारका यह यन्त्र महायन्त्रमय है। योगके द्वारा जिनका अन्तःकरण ज्ञान से आलोकित हो उठा है, ऐसे पुरुषों द्वारा इसे परम मन्त्रों से अलङ्कत किया गया है। षोडशोपचारों से पूजे जाने पर तथा जपहवनादि से साधित सिद्ध होने पर यह यन्त्र शुद्ध ब्रह्मतेजोमय, सब प्रकार के भयों से छुड़ानेवाला, समस्त पापों का नाशक, सभी अभीष्टों को देनेवाला तथा सायुज्य मुक्ति देनेवाला है। यह परमवैकुण्ठ-महानारायण-यन्त्र प्रकाशमान है॥ ४८-४९ ॥ तस्योपरि च निरतिशयानन्दतेजोराश्यभ्यन्तरसमासीनं वाचामगोचरानन्दतेजोराश्याकारं चित्साराविर्भूतानन्दविग्रहं बोधानन्दस्वरूपं निरतिशयसौन्दर्यपारावारं तुरीयस्वरूपं तुरीयातीतं चाद्वैतपरमानन्दनिरन्तरातितुरीयनिरतिशय- सौन्दर्यानन्दपारावारं लावण्यवाहिनीकल्लोलतटिद्भासुरं दिव्यमङ्ग‌लविग्रहं मूर्तिमद्भिः परममङ्गलैरुपसेव्यमानं चिदानन्दमयैरनन्तकोटिरविप्रकाशैरनन्तभूषणैरलङ्कृतं सुदर्शनपाञ्चजन्यपद्मगदासिशाङ्ग मुसलपरिघाद्यै- श्चिन्मयैरनेकायुधगणैर्मूर्तिमद्भिः सुसेवितम् । बाह्यवृत्तवीथ्यां विमलोत्कर्षिणी ज्ञान क्रिया योग प्रह्वी सत्येशाना प्रणवादिनमोन्ताश्चतुर्थ्यन्ताः क्रमेण । श्रीवत्सकौस्तुभवनमालाङ्कितवक्षसं ब्रह्मकल्पवनामृत- पुष्पवृष्टिभिः सन्ततमानन्दं ब्रह्मानन्दरसनिर्भरै- रसंख्यैरतिमङ्गलं शेषायुतफणाजालविपुलच्छत्रशोभितं तत्फणामण्डलोदर्चिर्मणिद्योतितविग्रहं तदङ्गकान्तिनिझरैस्ततं निरतिशयब्रह्मगन्धस्वरूपं निरतिशयानन्दब्रह्मगन्ध- विशेषकारमनन्तब्रह्मगन्धाकारसमष्टिविशेषमन्तानन्द- तुलसीमाल्यैरभिनवं चिदानन्दमयानन्तपुष्पमाल्यैर्विराजमानं तेजःप्रवाहतरङ्ग तत्परम्पराभिर्ध्वलन्तं निरतिशयानन्दं कान्तिविशेषावर्तेरभितोऽनिशं प्रज्वलन्तं बोधानन्दमयानन्त- धूपदीपावलिनिरतिशोभितं निरतिशयानन्दचामरविशेषैः परिसेवितं निरन्तरनिरुपमनिरतिशयोत्कटज्ञानानन्दानन्तगुच्छ- फलैरल‌ङ्कृतं चिन्मयानन्ददिव्यविमानच्छत्रध्वजराजिभि- र्वि विराजमानं परममङ्गलानन्तदिव्यतेजोभिज्वलन्तमनिशं वाचामगोचरमनन्ततेजोराश्यन्तर्गतमर्धमात्रात्मकं तुर्यं ध्वन्यात्मकं तुरीयातीतमवाच्यं नादबिन्दुकलाध्यात्म- स्वरूपं चेत्याद्यनन्ताकारेणावस्थितं निर्गुणं निष्क्रियं निर्मलं निरवद्यं निरञ्जनं निराकारं निराश्रयं निरतिशयाद्वैत- परमानन्दलक्षणमादिनारायणं ध्यायेदित्युपनिषत् ॥ 'उस यन्त्र के ऊपर भी आदिनारायण का ध्यान करे। वे निरतिशय आनन्दमयी तेजोराशि के भीतर भलीभाँति विराजमान हैं। शब्दातीत आनन्दमय तेजोराशि स्वरूप, चैतन्य (ज्ञान) के सार से आविर्भूत आनन्दमय विग्रहयुक्त, बोधानन्दस्वरूप, निरतिशय सौन्दर्यसिन्धु, तुरीयस्वरूप, तुरीयातीत तथा अद्वैत परमानन्दमय हैं। निरन्तर तुरीयातीत निरतिशय सौन्दर्य एवं आनन्द के पारावार हैं, लावण्यसरिता की लहरोंसे उल्लसित तथा विद्युत जैसी कान्ति से प्रकाशित हैं, उनका विग्रह दिव्य एवं मङ्गलमय है। वे मूर्तिधारी परम मङ्गलों से सेवित हैं। चिदानन्दमय अनन्तकोटि सूर्यों के समान तेजोमय प्रकाशवाले अनन्त भूषणों से अलंकृत हैं। सुदर्शन चक्र, पाञ्चजन्य शङ्ख, पद्म, कौमोद की गदा, नन्दक खड्ग, शार्ङ्गधनुष, मुसल, परिघ आदि चिन्मय अनेकों मूर्तिमान् आयुधों से सुसेवित हैं। श्रीवत्स, कौस्तुभ एवं वनमाला से उनका वक्षःस्थल अंकित (शोभित) है। ब्रह्मरूप कल्पवन के अमृतमय पुष्पों की वर्षासे निरन्तर आनन्दस्वरूप हैं। ब्रह्मानन्दमय रस के असंख्य झरनों से अत्यन्त मङ्गलरूप हैं। शेषनाग के दस सहस्र फणसमूहों के विशाल छत्र से शोभित हैं। उन फणों के मण्डल में स्थित अत्यन्त तेजस्वी मणियों की ज्योति से उनका श्रीविग्रह विशेष देदीप्यमान है तथा शेषनाग की अङ्गकान्ति के निर्झरों से व्याप्त है। वे निरतिशय ब्रह्मगन्ध स्वरूप की निरतिशय आनन्दरूप ब्रह्ममय गन्ध के विशेष घन स्वरूप हैं। अनन्त ब्रह्मगन्ध-मूर्तियों के समष्टिरूप हैं। अनन्त आनन्दमय तुलसी की मालाओंसे नित्य नूतनरूप हैं। चिदानन्दमय अनन्त पुष्प-मालाओं से सुशोभित हैं। तेजप्रवाह की तरंगों के अविरल प्रवाह से प्रकाशमान हैं। निरतिशय अनन्त कान्ति विशेष के आवर्ती से सर्वदा सब ओर प्रज्वलित हैं। बोधानन्दमय अनन्त-धूप दीपावलियों से अत्यन्त शोभित हैं। निरतिशय आनन्दस्वरूप चॅवरों से परिसेवित हैं। निरन्तर निरुपम निरतिशय उत्कट ज्ञानानन्दमय अनन्त फलों के गुच्छों से अल‌ङ्कृत हैं। चिन्मयानन्दरूप दिव्य विमान, छत्र एवं ध्वजसमूहों से विशेष शोभित हैं। परम मङ्गलमय अनन्त दिव्य तेजों से सर्वदा प्रकाशमान हैं। वाणी से अतीत अनन्त तेजोराशि के अन्तर्गत, अर्धमात्रा स्वरूप, तुरीय, अनाहत ध्वनिरूप, तुरीयातीत, अकथनीय तथा नाद-विन्दु-कला एवं अध्यात्म स्वरूप आदि अनन्त रूपोंमें अवस्थित, निर्गुण, निष्क्रिय, निर्मल, निर्दोष, निरञ्जन, निराकार, दूसरे के आश्रय से हीन, निरतिशय अद्वैत परमानन्दस्वरूप (उन) आदिनारायण का ध्यान करे ॥५०॥ ॥ इति सप्तमोऽध्यायः ॥ ॥ सातवाँ अध्याय समाप्त ॥

Recommendations