ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १३६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १३६ ऋषि - पुरूच्छेपो दैवोदासिः देवता- १-५ मित्रवरुणौ ६-७ लिंगोंक्ता। छंद - अत्यष्टि, ७ त्रिष्टुप प्र सु ज्येष्ठं निचिराभ्यां बृहन्नमो हव्यं मतिं भरता मृळयद्भयां स्वादिष्ठं मृळयद्भयाम् । ता सम्राजा घृतासुती यज्ञेयज्ञ उपस्तुता । अथैनोः क्षत्रं न कुतश्चनाधृषे देवत्वं नू चिदाधृषे ॥१॥ हे मनुष्यो ! वे दोनों मित्र और वरुणदेव अति तेजस्वी, घृताहुतियों का सेवन करने वाले तथा प्रत्येक यज्ञ में प्रार्थना के लिए उपयुक्त हैं। हम सभी श्रद्धा और भक्ति सहित मित्र वरुणदेव को प्रणाम करें तथा उत्तम बुद्धि से उनकी प्रार्थना करें। इनके क्षात्रबल और देवत्व को क्षीण नहीं किया जा सकता ॥१॥ अदर्शि गातुरुरवे वरीयसी पन्था ऋतस्य समयंस्त रश्मिभिश्चक्षुर्भगस्य रश्मिभिः । युक्षं मित्रस्य सादनमर्यम्णो वरुणस्य च । अथा दधाते बृहदुक्थ्यं वय उपस्तुत्यं बृहद्वयः ॥२॥ यज्ञ के लिए वेगवती उषादेवी प्रकाशित हुई हैं। रश्मियों से सूर्यमार्ग आलोकित हुआ हैं । ऐश्वर्यशाली सूर्यदेव की रश्मियों से आँखों में चमक आ गई है। मित्र, अर्यमा और वरुण देव सभी तेजस्विता सम्पन्न हुए हैं, अतएव सम्पूर्ण देवताओं के निमित्त आहुतियों के रूप में प्रशंसनीय हविष्यान्न अर्पित किया जाता है, जिसे वे स्वीकार करते हैं॥२॥ ज्योतिष्मतीमदितिं धारयत्क्षितिं स्वर्वतीमा सचेते दिवेदिवे जागृवांसा दिवेदिवे । ज्योतिष्मत्क्षत्रमाशाते आदित्या दानुनस्पती । मित्रस्तयोर्वरुणो यातयज्जनोऽर्यमा यातयज्जनः ॥३॥ विशिष्ट धारण-क्षमता वाली पृथ्वी तथा दिव्य तेजस्विता युक्त अदिति देवी की सेवा में मित्र और वरुणदेव नित्य जाग्रत् रहकर प्रवृत्त होते हैं। धन के अधिपति आदित्यगण तेजस्वी शक्ति को नित्य ही प्राप्त करते हैं। मित्र, वरुण और अर्यमा तीनों देव मनुष्यों को श्रेष्ठ मार्ग में बढ़ाते हैं॥३॥ अयं मित्राय वरुणाय शंतमः सोमो भूत्ववपानेष्वाभगो देवो देवेष्वाभगः तं देवासो जुषेरत विश्वे अद्य सजोषसः । तथा राजाना करथो यदीमह ऋतावाना यदीमहे ॥४॥ पेय पदार्थों में सबसे उत्कृष्ट तथा देवताओं में महावैभव सम्पन्न यह सोम, मित्र और वरुणदेव दोनों के लिए अति आनन्दप्रद हो । सामञ्जस्य- युक्त सर्विचारों और सद्भावनाओं के प्रेरक समस्त देव समूह इस सोम का सेवन करें। हे तेजस्विता सम्पन्न मित्र और वरुणदेव ! आप श्रेष्ठ कर्मों के प्रेरक हों, हमारी अभीष्ट कामनाओं को निश्चय ही पूर्ण करें ॥४॥ यो मित्राय वरुणायाविधज्जनोऽनर्वाणं तं परि पातो अंहसो दाश्वांसं मर्तमंहसः । तमर्यमाभि रक्षत्यृजूयन्तमनु व्रतम् । उक्थैर्य एनोः परिभूषति व्रतं स्तोमैराभूषति व्रतम् ॥५॥ जो विद्वेष भावना से रहित होकर मित्र वरुण के प्रति सेवाभाव रखते हैं, जो अपने प्रशंसक कर्मों से दोनों को सुशोभित करते हैं; जो वाणी से उनके कर्मों की महिमा बढ़ाते हैं, उन्हें मित्र और वरुणदेव दुष्कर्म रूपी पापों से सुरक्षित करते हैं। जो दानशील सरल और सत्यमार्ग के अवलम्बी तथा श्रेष्ठ व्रतों के प्रति अनुशासित हैं; ऐसे सभी मनुष्यों को अर्यमादेव दुःखदायी पापकर्मों से बचाते हैं॥५॥ नमो दिवे बृहते रोदसीभ्यां मित्राय वोचं वरुणाय मीळ्हुषे सुमृळीकाय मीळ्हुषे । इन्द्रमग्निमुप स्तुहि द्युक्षमर्यमणं भगम् । ज्योग्जीवन्तः प्रजया सचेमहि सोमस्योती सचेमहि ॥६॥ हुम द्यावा - पृथिवी, सुखप्रद मित्रदेव तथा अति सुखदायी वरुणदेव की वन्दना करते हैं। हे मनुष्यो! आप इन्द्र, अग्नि, दीप्तिमान् अर्यमा तथा भगदेव की उपासना करें। जिससे इन सभी देवताओं की कृपा से हम सभी चिरंजीवी होकर सन्तानादि से युक्त हों और सभी प्रकार की सुरक्षा व्यवस्थाओं से युक्त हों ॥६॥ ऊती देवानां वयमिन्द्रवन्तो मंसीमहि स्वयशसो मरुद्भिः । अग्निर्मित्रो वरुणः शर्म यंसन्तदश्याम मघवानो वयं च ॥७॥ हम सभी देवताओं द्वारा प्रदत्त सुखों को प्राप्त करें तथा अपनी यशस्विता और बलों से सम्पन्न होकर देवकृपा से सुरक्षित हों। अग्नि, मित्र तथा वरुणदेव हमें सुखी करें; ऐसे महान् ऐश्वर्यों से युक्त होकर हम सदैव सुखोपभोग करें ॥७॥

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