ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ५७

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ५७ ऋषिः श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः । छंद - जगती, ७-८ त्रिष्टुप आ रुद्रास इन्द्रवन्तः सजोषसो हिरण्यरथाः सुविताय गन्तन । इयं वो अस्मत्प्रति हर्यते मतिस्तृष्णजे न दिव उत्सा उदन्यवे ॥१॥ इन्द्र के अनुचर, समान प्रीति वाले, स्वर्णिम रथों पर आरूढ़ होने वाले, रुद्रों के पुत्ररूप हे मरुतो ! आप हमारे इस उद्देश्यपूर्ण यज्ञ में आगमन करें । हम आपके निमित्त बुद्धिपूर्वक स्तवन करते हैं। हे तेजस्वी मरुतो ! तृषित और जल अभिलाषी गौतम के निमित्त आपने जैसे जल प्रवाह प्रदान किया, उसी प्रकार हमें भी अनुगृहीत करें ॥१॥ वाशीमन्त ऋष्टिमन्तो मनीषिणः सुधन्वान इषुमन्तो निषङ्गिणः । स्वश्वाः स्थ सुरथाः पृश्निमातरः स्वायुधा मरुतो याथना शुभम् ॥२॥ हे मेधावी मरुतो ! आप कुठारों से युक्त, भालों से युक्त, उत्तम धनुषों से युक्त, बाणों से युक्त, तूणीर धारक, उत्तम अश्वों तथा रथों से युक्त और उत्तम आयुधों से युक्त हैं। आप हमारे कल्याण के निमित्त आगमन करें ॥२॥ धूनुथ द्यां पर्वतान्दाशुषे वसु नि वो वना जिहते यामनो भिया । कोपयथ पृथिवीं पृश्निमातरः शुभे यदुग्राः पृषतीरयुग्ध्वम् ॥३॥ हे मरुतो ! आप अन्तरिक्ष में मेघों को कम्पित करें। उस हविदाता यजमान को धन प्रदान करें। आपके आगमन के भय से वन भी प्रकम्पित होते हैं। हे मातृरूप पृथ्वी के पुत्रो ! जल वृष्टि आदि शुभ कार्य के निमित्त बिन्दुदार (चिह्नित) मृगों को रथ से योजित कर जब आप उम्रता को धारण करते हैं, तो आपके क्रोध से पृथ्वी भी क्षुब्ध हो जाती है ॥३॥ वातत्विषो मरुतो वर्षनिर्णिजो यमा इव सुसदृशः सुपेशसः । पिशङ्गाश्वा अरुणाश्वा अरेपसः प्रत्वक्षसो महिना द्यौरिवोरवः ॥४॥ ये वीर मरुद्गण अत्यन्त तेजस्वी, वृष्टिजल के आच्छादक, जुड़वाँ के तुल्य (समानरूप वाले), उत्तम दर्शनीय और अति रूपवान् हैं। ये बभु वर्ण और अरुणिम वर्ण अश्वों से युक्त, निष्पाप, शत्रुओं के महाविनाशक हैं। अपनी महत्ता से ये आकाश के सदृश विस्तृत हैं ॥४॥ पुरुद्रप्सा अज्जिमन्तः सुदानवस्त्वेषसंदृशो अनवभ्रराधसः । सुजातासो जनुषा रुक्मवक्षसो दिवो अर्का अमृतं नाम भेजिरे ॥५॥ विपुल जलवर्षक, अलंकारों से विभूषित, दानशील, तेजोयुक्त मूर्तिमान्, अक्षय धन से संयुक्त, जन्म से सुजन्मा हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले, पूजनीय दीप्तिमान् मरुद्गण अपने शुभ कार्यों से अमर कीर्ति पाते हैं ॥५॥ ऋष्टयो वो मरुतो अंसयोरधि सह ओजो बाह्वोर्वो बलं हितम् । नृम्णा शीर्षस्वायुधा रथेषु वो विश्वा वः श्रीरधि तनूषु पिपिशे ॥६॥ हे मरुतो ! आपके कन्धों पर भाले रखे हैं। आपकी दोनों भुजाओं में शत्रु-संघर्षक बल सन्निहित है। शीर्षों पर शिरस्त्राण और रथों में सम्पूर्ण आयुध वर्तमान हैं। आपके शरीर विशिष्ट कान्ति से युक्त हैं ॥६॥ गोमदश्वावद्रथवत्सुवीरं चन्द्रवद्राधो मरुतो ददा नः । प्रशस्तिं नः कृणुत रुद्रियासो भक्षीय वोऽवसो दैव्यस्य ॥७॥ 33 हे मरुतो ! आप हमें गौओं से युक्त, अश्वों से युक्त, रथों से युक्त, उत्तम पुत्रों और स्वर्णादि से युक्त अन्नों को प्रदान करें। हे रुद्र पुत्रो ! हमारी समृद्धि बढ़ायें। आपकी दिव्य संरक्षण शक्ति का हम उपभोग करें ॥७॥ हये नरो मरुतो मृळता नस्तुवीमघासो अमृता ऋतज्ञाः । सत्यश्रुतः कवयो युवानो बृहद्गिरयो बृहदुक्षमाणाः ॥८॥ हे मरुतो ! आप हमें सुख से परिपूर्ण करें। आप नेतृत्वकर्ता, प्रभूत धन-सम्पन्न, अविनाशी, यज्ञ के ज्ञाता, वास्तविक ख्याति सम्पन्न, क्रान्तदर्शी, युवा, प्रचण्ड बलवान् और सर्वत्र स्तुति किये जाने योग्य हैं ॥८॥

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