ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त ३७

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त ३७ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः। देवता- ऋतुदेवता । छंद - जगती मन्दस्व होत्रादनु जोषमन्धसोऽध्वर्यवः स पूर्णां वष्ट्यासिचम् । तस्मा एतं भरत तद्वशो ददिर्होत्रात्सोमं द्रविणोदः पिब ऋतुभिः ॥१॥ हे धन प्रदाता अग्निदेव ! होताओं के द्वारा समर्पित किये गये सोमरस का प्रसन्नतापूर्वक पान करके हर्षित हों। है अध्वर्युगण ! अग्नेदिव पूर्णाहुति की कामना करते हैं, अतः उनके लिए सोमरस प्रदान करें । सोम की कामना वाले ये अग्निदेव तुम्हें धन प्रदान करेंगे। हे अग्निदेव ! यज्ञ में होताओं के द्वारा समर्पित किये गये इस सोमरस का ऋतु के अनुरूप पान करें ॥१॥ यमु पूर्वमहुवे तमिदं हुवे सेदु हव्यो ददिर्यो नाम पत्यते । अध्वर्युभिः प्रस्थितं सोम्यं मधु पोत्रात्सोमं द्रविणोदः पिब ऋतुभिः ॥२॥ जिन अग्निदेव को हमने पहले भी बुलाया था, उन्हें अब भी आवाहित करते हैं। ये अग्निदेव निश्चित ही याजकों को धन प्रदान करने वाले तथा सभी के स्वामी हैं, आवाहन के योग्य हैं। इन देव के लिए याजकों द्वारा सोमरस शोधित किया गया है। हे अग्निदेव ! इस पवित्र यज्ञ में ऋतु के अनुरूप सोमरस का पान करें ॥२॥ मेद्यन्तु ते वह्नयो येभिरीयसेऽरिषण्यन्वीळयस्वा वनस्पते । आयूया धृष्णो अभिगूर्या त्वं नेष्ट्रात्सोमं द्रविणोदः पिब ऋतुभिः ॥३॥ हे द्रविणोदादेव ! आप जिस अश्व पर आरूढ़ होते हैं, वह तृप्त हो । हे वनस्पतिदेव ! आप हमें हिसित न करके शक्तिशाली बनायें। हे शत्रुनाशक देव ! आप यज्ञ में पधार कर याज्ञिकों द्वारा समर्पित किये गये सोमरस का पान ऋतु के अनुरूप करें ॥३॥ अपाद्धोत्रादुत पोत्रादमत्तोत नेष्टादजुषत प्रयो हितम् । तुरीयं पात्रममृक्तममर्त्य द्रविणर्णादाः पिबतु द्राविणोदसः ॥४॥ जो द्रविणोदादेव नेष्टा के यज्ञ में पवित्र सोमरस का पान करके आनन्दित हुए, वे धन प्रदाता देव भली-भाँति शोधित किये गये, अमरत्व प्रदान करने वाले सोमरस का पान करें ॥४॥ अर्वाञ्चमद्य यय्यं नृवाहणं रथं युञ्जाथामिह वां विमोचनम् । पृङ्क्तं हवींषि मधुना हि कं गतमथा सोमं पिबतं वाजिनीवसू ॥५॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप अपने अभीष्ट स्थान पर ले जाने वाले द्रुतगामी रथ को हमारे यज्ञ स्थल में आने के लिए नियोजित करें। हमारे यज्ञ में आकर हमारे हविष्यान्न को सुस्वादु बनायें । हे आश्रयं प्रदाता अश्विनीकुमारो ! आप दोनों सोम रस का पान करें ॥५॥ जोष्यग्ने समिधं जोष्याहुतिं जोषि ब्रह्म जन्यं जोषि सुष्टुतिम् । विश्वभिर्विश्वाँ ऋतुना वसो मह उशन्देवाँ उशतः पायया हविः ॥६॥ हे अग्निदेव ! आप हमारी समिधाओं से प्रदीप्त होकर आहुतियों को ग्रहण कर याजकों द्वारा की गयी सुन्दर स्तुतियों को स्वीकार करें । सोमपान की अभिलाषा वाले हे अग्निदेव! आप सभी के आश्रय दाता हैं। आप सभी देवों, ऋभुओं और विश्वेदेवों के साथ सोमरस का पान करें ॥६॥

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