ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ४३

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ४३ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - इन्द्रः । छंद - त्रिष्टुप आ याह्यर्वाङप वन्धुरेष्ठास्तवेदनु प्रदिवः सोमपेयम् । प्रिया सखाया वि मुचोप बर्हिस्त्वामिमे हव्यवाहो हवन्ते ॥१॥ ॐ इन्द्रदेव ! इथे में अधिष्ठित होकर आप हमारे पास आयें । परिष्कृत, दीप्तिमान् सोमरस का पान करने के लिए आप अपने प्रिय घोड़ो को यज्ञ स्थल के निकट विमुक्त करें, क्योंकि ये ऋत्विग्गण आपका आवाहन करते हैं॥१॥ आ याहि पूर्वीरति चर्षणीराँ अर्य आशिष उप नो हरिभ्याम् । इमा हि त्वा मतयः स्तोमतष्टा इन्द्र हवन्ते सख्यं जुषाणाः ॥२॥ हे स्वामी इन्द्रदेव ! आप अनेक प्रजाजनों को लाँघकर हमारे पास आयें। हमारी प्रार्थना है कि आप अश्वों से हमारे पास आयें। आपकी मित्रता की इच्छा करती हुई स्तोताओं की ये स्तुनियाँ आपका आवाहन कर रही हैं॥२॥ आ नो यज्ञं नमोवृधं सजोषा इन्द्र देव हरिभिर्याहि तूयम् । अहं हि त्वा मतिभिर्जोहवीमि घृतप्रयाः सधमादे मधूनाम् ॥३॥ हे दौप्तिमान् इन्द्रदेव ! प्रसन्न हृदय से आप हमारे अन्नवर्द्धक यज्ञ के पास अच्चों द्वारा शीघ्र ही आयें। सोम-यज्ञों में मृतयुक्त सोम रूप हव्य समर्पित करते हुए हम आपका आवाहन करते हैं॥३॥ आ च त्वामेता वृषणा वहातो हरी सखाया सुधुरा स्वङ्गा । धानावदिन्द्रः सवनं जुषाणः सखा सख्युः शृणवद्वन्दनानि ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! बलवान्, उत्तम, धुरा (या जुआ) में योजित, पुष्ट अंगों वाले मित्र रूप आपके ये अश्व आपको हमारे पास लायें। हविष्यान्न रूप में सोमरस का सेवन करते हुए आप मैत्री भावपूर्ण स्तोनाओं की स्तुतियों का श्रवण करें ॥४॥ कुविन्मा गोपां करसे जनस्य कुविद्राजानं मघवन्नृजीषिन् । कुविन्म ऋषिं पपिवांसं सुतस्य कुविन्मे वस्वो अमृतस्य शिक्षाः ॥५॥ सोमरस की कामना करने वाले ऐश्वर्यवान् हैं इन्द्रदेव! आप हमें लोगों का रक्षक बनायें। हमें प्रज्ञाज्ञनों का स्वामी बनायें । हमें दूरद्रष्टा ऋषि बनायें । हमें अभिपुत सोमपान कर्ता बनायें और हमें अक्षय धन प्रदान करें ॥५॥ आ त्वा बृहन्तो हरयो युजाना अर्वागिन्द्र सधमादो वहन्तु । प्र ये द्विता दिव ऋञ्जन्त्याताः सुसम्मृष्टासो वृषभस्य मूराः ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! रथ में योजित हरि संज्ञक विशालकाय अश्व आपको हमारी ओर ले आयें। हे इष्टवर्धक देव! (प्रेरित किये गये) इन्द्रदेव के शत्रु नाशक ये अञ्च दोनों ओर प्रभाव डालने वाले द्युलोक में आते हैं॥६॥ इन्द्र पिब वृषधूतस्य वृष्ण आ यं ते श्येन उशते जभार । यस्य मदे च्यावयसि प्र कृष्टीर्यस्य मदे अप गोत्रा ववर्थ ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! आप सोम अभिलाषी हैं। श्येन पक्षी आपके निमित्त सोम लाया हैं। पाषाण द्वारा कूटे गये इष्ट प्रदायक सोम का आप पान करें। इसके द्वारा उत्पन्न हुर्ष से आप शत्रुओं को दूर करते हैं॥७॥ शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ । शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु प्घ्नन्तं वृत्राणि संजितं धनानाम् ॥८॥ हम अपने जीवन-संग्राम में संरक्षण प्राप्ति के लिए ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव का आवाहन करते हैं, क्योकि ये इन्द्रदेव पवित्रकर्ता, श्रेष्ठ नेतृत्वकर्ता, स्तुति श्रवण-कर्ता, उम, युद्धों में शत्रुनाशक और धनों के विजेता हैं॥८॥

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