Brihadaranyaka Upanishad Chapter 3 (बृहदारण्यक उपनिषद) तृतीय अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ तृतीयोध्यायः - प्रथमं ब्राह्मणम् तृतीय अध्याय प्रथम ब्राह्मण आश्वल ब्राह्मण ॐ जनको ह वैदेहो बहुदक्षिणेन यज्ञेनेजे। तत्र ह कुरुपञ्चालानां ब्राह्मणा अभिसमेता बभूवुस्तस्य ह जनकस्य वैदेहस्य विजिज्ञासा बभूव कः स्विदेषां ब्राह्मणानामनूचानतम इति । स ह गवा सहस्रमवरुरोध दशदश पादा एकैकस्याः शृङ्गयोराबद्धा बभूवुः ॥१॥ जनक वैदेह ने एक बहुत दक्षिणा वाला (अश्वमेध) यज्ञ किया। वहाँ कुरुओं और पंचालों के ब्राह्मण इक्कठे हुए थे। राजा जनक को यह जाननेकी इच्छा हुई, कि इन ब्राह्मणों में अनुवचन (प्रवचन) करने में सबसे बढ़कर कौन है? इसलिये उसने एक सहस्र गौएँ गोशालामें रोक लीं। उनमें से प्रत्येक के सींगों में दस-दस पाद (सोने का सिक्का) सुवर्ण बँधे हुए थे। ॥१॥ तान्होवाच ब्राह्मणा भगवन्तो यो वो ब्रह्मिष्ठः स एता गा उदजतामिति । ते ह ब्राह्मणा न दधृषुरथ ह याज्ञवल्क्यः स्वमेव ब्रह्मचारिणमुवाचैताः सौम्योदज सामश्रवा३ इति । ता होदाचकार । ते ह ब्राह्मणाश्चक्क्रुधुः कथं नु नो ब्रह्मिष्ठो ब्रुवीतेत्यथ ह जनकस्य वैदेहस्य होताऽश्वलो बभूव । स हैनं पप्रच्छ त्वं नु खलु नो याज्ञवल्क्य ब्रह्मिष्ठोऽसी३ इति । स होवाच नमो वयं ब्रह्मिष्ठाय कुर्मी गोकामा एव वय स्म इति । त ह तत एव प्रष्टुं दधे होताऽश्वलः ॥ २॥ जनक ने उनसे कहा- 'पूज्य ब्राह्मणगण! आप सभी में जो श्रेष्ठ ब्रह्म हो वह इन गौओं को ले जाय।' किंतु उन ब्राह्मणों में से किसी का साहस नही हुआ। तब याज्ञवल्क्य ने अपने एक ब्रह्मचारी से कहा, 'हे सोम्य सामश्रवा ! तुम इन्हें ले जाओ। तब वह उन्हें घेर कर ले चला। यह देख कर वह ब्राह्मण कुद्ध हुए की यह हम सब में से यह अपने आप को वरिष्ठ कैसे कहता है। अब जो उनमें विदेहराज जनक का होता अश्वल था, उसने याज्ञवल्क्य को पूछा, 'याज्ञवल्क्य! क्या हम सभी में तुम ही श्रेष्ठ हो ?' उसने कहा, ' हम सबसे बढ़ कर ब्रह्म को हम नमस्कार करते हैं, हम तो केवल गौओं की ही इच्छा रखते हैं।' इसी से होता अश्वल ने उनसे प्रश्न करने का निश्चय किया। ॥२॥ याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदः सर्वं मृत्युनाऽऽप्त, सर्वं मृत्युनाऽभिपन्नं केन यजमानो मृत्योराप्तिमतिमुच्यत इति । होत्रर्विजाऽइना वाचा वाग्वै यज्ञस्य होता। तद्येयं वाक् सोऽयमग्निः स होता सा मुक्तिः साऽतिमुक्तिः ॥ ३॥ अश्वल ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य! 'यह सब जो मृत्यु से व्याप्त है, मृत्यु द्वारा वश में किया हुआ है, तो फिर किस साधन से यजमान मृत्यु की पहुँच से पूर्णतः मुक्त हो सकता है?' याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः वह यजमान होता ऋत्विक रूप अग्नि से और वाणी द्वारा मृत्यु से पूर्णतः मुक्त हो सकता है। वाणी ही यज्ञ का होता है, यह जो वाणी है, वही यह अग्नि है, वह होता है, वह मुक्ति है और वही अतिमुक्ति है। ॥ ३ ॥ याज्ञवल्क्येति होवाच यदिद सर्वमहोरात्राभ्यामाप्तः, सर्वमहोरात्राभ्यामभिपन्नं केन यजमानोऽहोरात्रयोराप्तिमतिमुच्यत इत्यध्वर्युणर्विजा चक्षुषाऽऽदित्येन चक्षुर्वे यज्ञस्याध्वर्युस्तद्यदिदं चक्षुः सोऽसावादित्यः सोऽध्वर्युः सा मुक्तिः साऽतिमुक्तिः ॥४॥ अश्वल ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य! 'यह जो भी कुछ है, सब दिन और रात्रि से व्याप्त है, सब दिन और रात्रिके अधीन है। तब किस साधन के द्वारा यजमान दिन और रात्रि की पहुँच से अतिमुक्त हो सकता है?' याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः अध्वर्यु-ऋत्विक और नेत्र रूप सूर्य के द्वारा। अध्वर्यु यज्ञ का नेत्र है। अतः यह जो नेत्र है, वह यह सूर्य है और वह अध्वर्यु है, वह मुक्ति है और वही अतिमुक्ति है। ॥४॥ याज्ञवल्क्येति होवाच यदिद सर्वं पूर्वपक्षापरपक्षाभ्यामाप्तः, सर्वं पूर्वपक्षापरपक्षाभ्यामभिपन्नं केन यजमानः पूर्वपक्षापरपक्षयोराप्तिमतिमुच्यत इत्युद्गात्रर्विजा वायुना प्राणेन प्राणो वै यज्ञस्योद्गाता । तद्योऽयं प्राणः स वायुः स उद्गाता सा मुक्तिः साऽतिमुक्तिः ॥५॥ अश्वल ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य! 'यह जो कुछ है, सब पूर्वपक्ष (शुक्ल पक्ष जिसमें चंद्रमा बढ़ता है) और अपरपक्ष (कृष्ण पक्ष- जिसमें चंद्रमा घटता है से व्याप्त है। सब पूर्वपक्ष और अपरपक्ष द्वारा वश में किया हुआ है। तो फिर किस उपाय से यजमान पूर्व पक्ष और अपर पक्ष की व्याप्ति से पार होकर मुक्त होता है? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः उद्गाता-ऋत्विक से और वायु रूप प्राण से; क्योंकि उद्गाता यज्ञ का प्राण ही है। तथा यह जो प्राण है, वही वायु है, वही उद्गाता है, वही मुक्ति है और वही अतिमुक्ति है। ॥५॥ याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदमन्तरिक्षमनारम्बणमिव केनाऽऽक्रमेन यजमानः स्वर्गं लोकमाक्रमत इति ब्रह्मणर्विजा मनसा चन्द्रेण मनो वै यज्ञस्य ब्रह्मा । तद्यदिदं मनः सोऽसौ चन्द्रः स ब्रह्मा सा मुक्तिः सातिमुक्तिरित्यतिमोक्षा अथ सम्पदः ॥ ६॥ अश्वल ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य! यह जो अन्तरिक्ष है, वह निरालम्ब सा अर्थात बिना सहारे अथवा सीढ़ी के है। अतः यजमान किस आलम्बन (सहारे अथवा चढाव) से स्वर्गलोक में चढ़ता है। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः ब्रह्मा ऋत्विज के द्वारा और मन रूप चन्द्रमा से। ब्रह्मा यज्ञ का मन ही है और यह जो मन है, वही यह चन्द्रमा है, वह ब्रह्मा है, वह मुक्ति है और वही अतिमुक्ति है। इस प्रकार अतिमोक्षोंका वर्णन हुआ, अब सम्पदों का निरूपण किया जाता है। ॥६॥ याज्ञवल्क्येति होवाच कतिभिरयमद्यर्भिर्होतास्मिन्यज्ञे करिष्यतीति । तिसृभिरिति । कतमास्तास्तिस्र इति । पुरोनुवाक्या च याज्या च शस्यैव तृतीया । किं ताभिर्जयतीति । यत् किञ्चेदं प्राणभृदिति ॥ ७॥ अश्वल ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य ! आज कितनी ऋचाओं के द्वारा होता इस यज्ञ में शस्त्र-शंसन करेगा ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः तीन के द्वारा। अश्वल ने पूछाः वे तीन कौन-सी हैं? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः पुरोनुवाक्या, याज्या और तीसरी शस्या 15। अश्वल ने पूछाः इनसे यजमान किसको जीतता है? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः यह जितना भी प्राणिसमुदाय है, उस सबको जीत लेता है। ॥७॥ याज्ञवल्क्येति होवाच कत्ययमद्याध्वर्युरस्मिन्यज्ञ आहुतीर्होष्यतीति । तिस्र इति । कतमास्तास्तिस्र इति । या हुता उज्ज्वलन्ति या हुता अतिनेदन्ते या हुता अधिशेरते। किं ताभिर्जयतीति । या हुता उज्ज्वलन्ति देवलोकमेव ताभिर्जयति दीप्यत इव हि देवलोको। या हुता अतिनेदन्ते पितृलोकमेव ताभिर्जयत्यतीव हि पितृलोको । या हुता अधिशेरते मनुष्यलोकमेव ताभिर्जयत्यध इव हि मनुष्यलोकः ॥८॥ अश्वल ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य! आज इस यज्ञ में यह अध्वर्यु कितनी आहुतियाँ होम करेगा? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः तीन। अश्वल ने पूछाः वह तीन कौन-कौन-सी हैं? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'जो होम की जानेपर प्रज्वलित होती हैं, जो होम की जानेपर अत्यन्त शब्द करती हैं और जो होम की जानेपर पृथ्वीके ऊपर लीन हो जाती हैं। अश्वल ने पूछा: 'इनके द्वारा यजमान किसको जीतता है ?' याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'जो होम की जानेपर प्रज्वलित होती हैं, उनसे यजमान देवलोकको ही जीत लेता है; क्योंकि देवलोक मानो देदीप्यमान हो रहा है। जो होम की जानेपर अत्यन्त शब्द करती हैं उनसे वह पितृलोकको ही जीत लेता है; क्योंकि पितृलोक मानो अत्यन्त शब्द करनेवाला है। जो होम की जानेपर पृथ्वीपर लीन हो जाती हैं, उनसे मनुष्यलोकको ही जीतता है; क्योंकि मनुष्यलोक अधोवर्ती-सा है ॥८ ॥ याज्ञवल्क्येति होवाच कतिभिरयमद्य ब्रह्मा यज्ञं दक्षिणतो देवताभिर्गोपायतीत्येकयेति । कतमा सैकेति । मन एवेत्यनन्तं वै मनो अन्ता विश्वे देवा अनन्तमेव स तेन लोकं जयति ॥ ९॥ अश्वल ने पूछाः 'आज यह ब्रह्मा यज्ञमें दक्षिणकी ओर बैठकर कितने देवताओंद्वारा यज्ञकी रक्षा करता है ? [ याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः एक के द्वारा। अश्वल ने पूछाः 'वह एक देवता कौन है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः वह मन ही है। मन अनन्त है और विश्वेदेव भी अनन्त हैं; अतः उस मनसे यजमान अनन्त लोकको जीत लेता है | ॥९॥ याज्ञवल्क्येति होवाच कत्ययमद्योद्गाताऽस्मिन्यज्ञे स्तोत्रियाः स्तोष्यतीति । तिस्र इति । कतमास्तास्तिस्र इति । पुरोनुवाक्या च याज्या च शस्यैव तृतीया कतमास्ता या अध्यात्ममिति । प्राण एव पुरोनुवाक्याऽपानो याज्या व्यानः शस्या। किं ताभिर्जयतीति । पृथिवीलोकमेव पुरोनुवाक्यया जयत्यन्तरिक्षलोकं याज्यया द्युलोक शस्यया ततो ह होताऽश्वल उपरराम ॥ १०॥ अश्वल ने पूछाः 'आज इस यज्ञमें उद्गाता कितनी स्तोत्रिया ऋचाओंका स्तवन करेगा?' याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः तीन का । अश्वल ने पूछाः 'वे तीन कौन-सी हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'पुरोनुवाक्या, याज्या और तीसरी शस्या । अश्वल ने पूछा: इनमें जो शरीरान्तर्वती हैं, वे कौन-सी हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'प्राण ही पुरोनुवाक्या है; अपान याज्या है और व्यान शस्या है।' अश्वल ने पूछा: 'इनसे यजमान किन पर जय प्राप्त करता है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'पुरोनुवाक्या से पृथिवीलोक पर जय प्राप्त करता है, तथा याज्या से अन्तरिक्ष लोक पर और शस्या से द्युलोक पर विजय प्राप्त करता है। इसके पश्चात् होता अश्वल चुप हो गया ॥१०॥ ॥ इति प्रथमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ प्रथम ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ तृतीयोध्यायः - द्वितीयं ब्राह्मणम् द्वितीय ब्राह्मण आर्तभाग ब्राह्मण अथ हैनं जारत्कारव आर्तभागः पप्रच्छ । याज्ञवल्क्येति होवाच कति ग्रहाः कत्यतिग्रहा इत्यष्टौ ग्रहा अष्टावतिग्रहा इति ये तेऽष्टौ ग्रहा अष्टावतिग्रहाः कतमे त इति ॥ १॥ फिर उन याज्ञवल्क्य से जारत्कारव आर्तभागने पूछा; वह बोला, हे याज्ञवल्क्य! ग्रह कितने हैं और अतिग्रइ कितने हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः आठ ग्रह हैं और आठ अतिग्रह हैं। आर्तभाग ने पूछा: वे जो आठ ग्रह और आठ अतिग्रह हैं, वे कौन-से हैं? ॥ १ ॥ प्राणो वै ग्रहः । सोऽपानेनातिग्राहेण गृहीतोऽपानेन हि गन्धाञ्जिघ्रति ॥ २॥ याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः प्राण ही ग्रह है, वह अपान रूप (सांस अन्दर खींचना) अतिग्राह से जकड़ा हुआ है, क्योंकि प्राणी अपान से ही गन्धों को सूंघता है। ॥२॥ वाग्वै ग्रहः । स नाम्नातिग्राहेण गृहीतो वाचा हि नामान्यभिवदति ॥ ३॥ वाणी ही ग्रह है, वह नाम रूप अतिग्राह से जकड़ा हुआ है, क्योंकि प्राणी वाणी ही नामों का उच्चारण करता है। ॥३॥ जिह्वा वै ग्रहः । स रसेनातिग्राहेण गृहीतो जिह्वया हि रसान्विजानाति ॥ ४॥ जिह्वा ही ग्रह है, वह रसरूप अतिग्रह से जकड़ा हुआ है, क्योंकि प्राणी जिह्वा से ही रसों को विशेषरूप से जानता है ॥ ४ ॥ चक्षुर्वे ग्रहः । स रूपेणातिग्राहेण गृहीतश्चक्षुषा हि रूपाणि पश्यति ॥ ५॥ नेत्र ही ग्रह है, वह रूप अतिग्रह से जकड़ा हुआ है, क्योंकि प्राणी चक्षु से ही रूपों को देखता है ॥ ५॥ श्रोत्रं वै ग्रहः । स शब्देनातिग्राहेण गृहीतः श्रोत्रेण हि शब्दाशृणोति । श्रोत्र ही ग्रह है, वह शब्दरूप अतिग्रह से जकड़ा हुआ है, क्योंकि प्राणी श्रोत्र से ही शब्दों को सुनता है ॥ ६॥ मनो वै ग्रहः । स कामेनातिग्राहेण गृहीतो मनसा हि कामान्कामयते ॥ ७॥ मन ही ग्रह है, वह कामरूप अतिग्रह से जकड़ा हुआ है, क्योंकि प्राणी मनसे ही कामों की कामना करता है ।। ७॥ हस्तौ वै ग्रहः । स कर्मणाऽतिग्राहेण गृहीतो हस्ताभ्या हि कर्म करोति ॥ ८॥ हस्त ही ग्रह हैं, वे कर्मरूप अतिग्रह से जकड़ा हुए हैं, क्योंकि प्राणी हाथों से ही कर्म करता है ॥ ८ ॥ त्वग्वै ग्रहः । स स्पर्शनातिग्राहेण गृहीतस्त्वचा हि स्पर्शान्वेदयत । इत्येतेऽष्टौ ग्रहा अष्टावतिग्रहाः ॥ ९॥ त्वचा ही ग्रह है, वह स्पर्शरूप अतिग्रह से जकड़ा हुआ है; क्योंकि प्राणी त्वचा से ही स्पर्श को जानता है। इस प्रकार ये आठ ग्रह हैं और आठ अतिग्रह हैं ॥ ९॥ याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदः सर्वं मृत्योरन्नं का स्वित्सा देवता यस्या मृत्युरन्नमित्यग्निर्वै मृत्युः सोऽपामन्नमप पुनर्मृत्युं जयति ॥ १०॥ आर्तभाग ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य! यह जो कुछ है सब मृत्युका खाद्य है; सो वह देवता कौन है, जिसका खाद्य मृत्यु है। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः अग्नि ही मृत्यु है, वह जलका खाद्य है। इस प्रकार के ज्ञान से पुनर्मृत्यु का पराजय होता है।॥ १० ॥ याज्ञवल्क्येति होवाच यत्रायं पुरुषो म्रियत उदस्मात्प्राणाः क्रामन्त्यहो३ नेति नेति होवाच याज्ञवल्क्योऽत्रैव समवनीयन्ते स उच्छ्रयत्याध्मायति आध्मातो मृतः शेते ॥ ११॥ आर्तभाग ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य! जिस समय यह मनुष्य मरता है, उस समय इसके प्राणों का उत्क्रमण होता है या नहीं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः नहीं, नहीं ऐसा नहीं होता। प्राण यहाँ ही लीन हो जाते हैं। वह फूल जाता है, अर्थात् वायु को भीतर खींचता है और वायु से पूर्ण हुआ ही मृत होकर पड़ा रहता है। ॥११॥ याज्ञवल्क्येति होवाच यत्रायं पुरुषो म्रियते किमेनं न जहातीति । नामेत्यनन्तं वै नामानन्ता विश्वे देवा अनन्तमेव स तेन लोकं जयति ॥ १२॥ आर्तभाग ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य! जिस समय यह पुरुष मरता है, उस समय इसे क्या नहीं छोड़ता ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः नाम नहीं छोड़ता, नाम अनन्त ही हैं, विश्वेदेव भी अनन्त ही हैं। इस अनंत के जान लेने से वह अनन्त लोक को ही जीत लेता है ॥१२॥ याज्ञवल्क्येति होवाच यत्रास्य पुरुषस्य मृतस्याग्निं वागप्येति वातं प्राणश्चक्षुरादित्यं मनश्चन्द्रं दिशः श्रोत्रं पृथिवी शरीरमाकाशमात्मौषधीर्लोमानि वनस्पतीन्केशा अप्सु लोहितं च रेतश्च निधीयते क्वायं तदा पुरुषो भवतीत्यहर सौम्य हस्तं आर्तभागेति होवाऽऽचावामेवैतस्य वेदिष्यावो न नावेतत्सजन इति । तौ होत्क्रम्य मन्त्रयां चक्राते तौ ह यदूचतुः कर्म हैव तदूचतुरथ ह यत्प्रशसतुः कर्म हैव तत् प्रशसतुः पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेनेति । ततो ह जारत्कारव आर्तभाग उपरराम ॥ १३॥ आर्तभाग ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य! जिस समय इस मृतपुरुष की वाणी अग्नि में लीन हो जाती है तथा प्राण वायु में लीन हो जाते हैं। नेत्र सूर्य में लीन हो जाते हैं, मन चन्द्रमा में लीन हो जाता है, श्रोत्र दिशा में लीन हो जाते हैं, शरीर पृथिवी में लीन हो जाता है, हृदयाकाश भूताकाश में लीन हो जाता है, रोम ओषधियों में और केश वनस्पतियों में लीन हो जाते हैं तथा रक्त और वीर्य जल में स्थापित हो जाते हैं, उस समय यह पुरुष कहाँ रहता है? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः हे प्रियदर्शन आर्तभाग ! तू मुझे अपना हाथ पकड़ा, हम दोनों ही इस प्रश्नका उत्तर जानेंगे; यह प्रश्न जनसमुदायमें होने योग्य नहीं है। तब उन दोनों ने सभा मे से उठ कर एकान्त में विचार किया। उन्होंने जो कुछ कहा वह कर्म ही कहा, तथा जिसकी प्रशंसा की वह कर्म की ही प्रशंसा की। वह यह कि पुरुष पुण्यकर्म से पुण्यवान् होता है और पापकर्म से पापी होता है, इसके पश्च्यात जारत्कारव आर्तभाग चुप हो गया ॥ १३ ॥ ॥ इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥ ॥ द्वितीय ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ तृतीयोध्यायः - तृतीयं ब्राह्मणम् तृतीय ब्राह्मण भुज्यु ब्राह्मण अथ हैनं भुज्युर्लाह्यायनिः पप्रच्छ । याज्ञवल्क्येति होवाच मद्रेषु चरकाः पर्यव्रजाम ते पतञ्चलस्य काप्यस्य गृहानैम । तस्याऽऽसीद् दुहिता गन्धर्वगृहीता तमपृच्छाम कोऽसीति । सोऽब्रवीत् सुधन्वाऽऽङ्गिरस इति । तं यदा लोकानामन्तानपृच्छामाथैतदथैनमब्रूम व पारिक्षिता अभवन्निति क्व पारिक्षिता अभवन् स त्वा पृच्छामि याज्ञवल्क्य क्व पारिक्षिता अभवन्निति ॥ १॥ फिर याज्ञवल्क्य से लाह्यायनि (लह्य के पोते) भुज्युने पूछाः हे याज्ञवल्क्य ! हम व्रताचरण करते हुए मद्र देश में विचर रहे थे कि कपि गोत्रोत्पन्न पतञ्चल के घर पहुँचे। उसकी पुत्री गन्धर्व के वशीभूत थी अर्थात् उस पर गन्धर्व का आवेश था। हमने उससे पूछा, 'तू कौन है ?' वह बोला 'आङ्गिरस सुधन्वा हूँ।' जब उससे लोकों के अन्तके विषयमें पूछा तो उसने कहा, पारिक्षित कहाँ रहे ! पारिक्षित कहाँ रहे ?' सो हम आपसे पूछते हैं कि 'पारिक्षित कहाँ रहे ?' ॥ १ ॥ स होवाचोवाच वै सोऽगच्छन्वै ते तद् यत्राश्वमेधयाजिनो गच्छन्तीति । क्व न्वश्वमेधयाजिनो गच्छन्तीति । द्वात्रिशतं वै देवरथान्यान्ययं लोकस्तः समन्तं पृथिवी द्विस्तावत्पर्येति ताः समन्तं पृथिवी द्विस्तावत्समुद्रः पर्येति । तद्यावती क्षुरस्य धारा यावद्वा मक्षिकायाः पत्रं तावानन्तरेणाऽऽकाशस्तान् इन्द्रः सुपर्णो भूत्वा वायवे प्रायच्छत् तान् वायुरात्मनि धित्वा तत्रागमयद्यत्र अश्वमेधयाजिनोऽभवन्नित्येवमिव वै स वायुमेव प्रशशस तस्माद्वायुरेव व्यष्टिर्वायुः समष्टिरप पुनर्मृत्युं जयति य एवं वेद । ततो ह भुज्युर्लाह्यायनिरुपरराम ॥ २॥ याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः उस गन्धर्व ने निश्चयही यह कहा था कि वे वहाँ चले गये, जहाँ अश्वमेध यज्ञ करनेवाले जाते हैं। भुज्यु ने पूछाः अच्छा तो बताइये, अश्वमेध यज्ञ करें वाले कहाँ जाते हैं? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः देवरथ सूर्य की जितनी बत्तीस दिन की यात्रा है, उतना ही यह लोक है। उसे चारों ओर उससे दुगनी पृथिवी घेरे हुए है। उस पृथिवी को सब ओर से दुगना समुद्र घेरे हुए है। सो जितनी पतली छुरे की धार होती है, अथवा जितना सूक्ष्म मक्खी का पंख होता है, उतना उन अण्डकपालों 16 के मध्य में आकाश है। इन्द्र (चित्य अग्नि) ने पक्षी बनकर उन पारिक्षितों को वायु को दिया। उन्हें वायु अपने स्वरूप में स्थापित कर वहाँ ले गया, जहाँ अश्वमेध यज्ञ करने वाले रहते हैं। इस प्रकार उस गन्धर्व ने वायु की ही प्रशंसा की थी। अतः वायु ही व्यष्टि है और वायु ही समष्टि है। जो ऐसा जानता है, वह पुनर्मुत्युको जीत लेता है। तब लाह्यायनि भुज्यु चुप हो गया। ॥२॥ ॥ इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥ ॥ तीसरा ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ तृतीयोध्यायः - चतुर्थं ब्राह्मणम् चतुर्थ ब्राह्मण उषस्त ब्राह्मण अथ हैनमूषस्तश्चाक्रायणः पप्रच्छ । याज्ञवल्क्येति होवाच यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरस्तं मे व्याचक्ष्वेत्येष त आत्मा सर्वान्तरः । कतमो याज्ञवल्क्य सर्वान्तरो । यः प्राणेन प्राणिति स त आत्मा सर्वान्तरो योऽपानेनापानिति स त आत्मा सर्वान्तरो यो व्यानेन व्यानिति स त आत्मा सर्वान्तरो य उदानेनोदानिति स त आत्मा सर्वान्तर एष त आत्मा सर्वान्तरः ॥ १॥ फिर उस याज्ञवल्क्य से चाक्रायण उषस्त ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य ! जो साक्षात् अपरोक्ष ब्रह्म और सर्वान्तर आत्मा है, उसकी मेरे प्रति व्याख्या करो। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'यह तेरा आत्मा ही सर्वान्तर है। उषस्त ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य! वह सर्वान्तर कौन-सा है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'जो प्राणसे प्राण क्रिया (सांस लेता है) करता है, वह तेरा आत्मा सर्वान्तर है। जो अपान से अपान क्रिया (अपान क्रिया) करता है, वह तेरा आत्मा सर्वान्तर है। जो व्यान से व्यान क्रिया करता है, वह तेरा आत्मा सर्वान्तर है। जो उदान से उदानक्रिया (ऊपर उठाता) है, वह तेरा आत्मा सर्वान्तर है। यह तेरा आत्मा सर्वान्तर है। ॥१॥ स होवाचोषस्तश्चाक्रायणः यथा विब्रूयादसौ गौरसावश्व इत्येवमेवैतव्यपदिष्टं भवति । यदेव साक्षादपरोक्षाद् ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरः तं मे व्याचक्ष्वेति। एष त आत्मा सर्वान्तरः । कतमो याज्ञवल्क्य सर्वान्तरो । न दृष्टेर्द्रष्टारं पश्येर्न श्रुतेः श्रोतार शृणुया न मतेर्मन्तारं मन्वीथा न विज्ञातेर्विज्ञातारं विजानीया एष त आत्मा सर्वान्तरोऽतोऽन्यदार्तं ततो होषस्तस्चाक्रायण उपरराम ॥ २॥ उषस्त ने पूछाः जिस प्रकार कोई चलना और दौड़ना दिखाकर कहे कि यह चलने वाला बैल है और यह दौड़नेवाला घोड़ा है, उसी प्रकार तुम्हारा यह कथन है; अतः जो भी साक्षात् अपरोक्ष ब्रह्म और सर्वान्तर आत्मा है, उसे तुम स्पष्टतया बतलाओ। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः यह तेरा आत्मा सर्वान्तर है। उषस्त ने पूछाः 'हे याज्ञवल्क्य! वह सर्वान्तर कौन-सा है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः तुम दृष्टि के द्रष्टा को नहीं देख सकते, श्रुति के श्रोता को नहीं सुन सकते, मति के मन्ता का मनन नहीं कर सकते, विज्ञाति के विज्ञाता को नहीं जान सकते। तुम्हारा यह आत्मा सर्वान्तर है, इससे भिन्न आर्त (नाशवान्) है। इसके पश्चात् चाक्रायण उपस्त चुप हो गया ॥ २ ॥ ॥ इति चतुर्थं ब्राह्मणम् ॥ ॥ चतुर्थ ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद॥ अथ तृतीयोध्यायः - पञ्चमं ब्राह्मणम् पांचवा ब्राह्मण कहोल ब्राह्मण अथ हैनं कहोलः कौषीतकेयः पप्रच्छ पप्रच्छ याज्ञवल्क्येति होवाच यदेव साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरस्तं मे व्याचक्ष्वेत्येष त आत्मा सर्वान्तरः । कतमो याज्ञवल्क्य सर्वान्तरो । योऽशनायापिपासे शोकं मोहं जरां मृत्युमत्येत्येतं वै तमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति । या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा या वित्तैषणा सा लोकैषणोभे होते एषणे एव भवतस्तस्माद्ब्राह्मणः पाण्डित्यं निर्विद्य बाल्येन तिष्ठासेत् । बाल्यं च पाण्डित्यं च निर्विद्याथ मुनिरमौनं च मौनं च निर्विद्याथ ब्राह्मणः । स ब्राह्मणः केन स्याद् येन स्यात् तेनेदृश एवातोऽन्यदार्तम् । य एवं वेद एवातोऽन्यदार्तम् । ततो ह कहोलः कौषीतकेय उपरराम ॥ १॥ कहोल ने पूछा: याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया: फिर याज्ञवल्क्य से कौषीतकेय (कुषीतक का पुत्र) कहोल ने पूछा; हे याज्ञवल्क्य ! जो भी साक्षात् अपरोक्ष ब्रह्म और सर्वान्तर आत्मा है, उसकी तुम मेरे प्रति व्याख्या करो। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः यह तुम्हारा आत्मा सर्वान्तर है। कहोल ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य! वह सर्वान्तर कौन-सा है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'जो भूख, प्यास, शोक, मोह, बुढ़ापा और मृत्यु की पहुँच से परे है। इसी आत्मा को ही जानकर ब्राह्मण, पुत्रों की कामना से, धन की कामना से, और नवीन लोकों की कामना से ऊपर उठ कर भिक्षाचर्या से विचरते हैं। क्योंकि जो कामना पुत्रों के लिए है, वही धन के लिए है और वही कामना लोकों के लिए है। ये दोनों ही साध्य और साधन इच्छाएँ- कामना ही हैं। अतः ब्राह्मण को चाहिए की पाण्डित्य (आत्मज्ञान) को पूर्णतया प्राप्त कर आत्मज्ञान रूप बल से स्थित रहनेकी इच्छा करे। फिर बल और पाण्डित्य को पूर्णतया प्राप्त कर वह मुनि होता है। तथा अमौन (मुनि बनने से पहले प्राप्त विद्या) और मौन (मुनित्व) का पूर्णतया सम्पादन करके ब्राह्मण (कृतकृत्य) होता है। वह किस प्रकार ब्राह्मण होता है ? जिस प्रकार भी हो, ऐसा ही ब्राह्मण होता है; इससे भिन्न और सब आर्त (नाशवान्) है।' तब कौषीतकेय कहोल चुप हो गया ॥ १ ॥ ॥ इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ पांचवा ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ तृतीयोध्यायः - षष्ठं ब्राह्मणम् छठा ब्राह्मण गार्गी ब्राह्मण अथ हैनं गार्गी वाचक्नवी पप्रच्छ याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदः सर्वमप्स्वोतं च प्रोतं च कस्मिन्नु खल्वाप ओताश्च प्रोताश्चेति । वायौ गार्गीति। कस्मिन्नु खलु वायुरोतश्च प्रोतश्चेत्यन्तरिक्षलोकेषु गार्गीति । कस्मिन्नु खल्वन्तरिक्षलोका ओताश्च प्रोताश्चेति । गन्धर्वलोकेषु गार्गीति । कस्मिन्नु गन्धर्वलोका ओताश्च प्रोताश्चेत्यादित्यलोकेषु गार्गीति । कस्मिन् नु खल्वादित्यलोका ओताश्च प्रोताश्चेति । चन्द्रलोकेषु गार्गीति । कस्मिन्नु खलु चन्द्रलोका ओताश्च प्रोताश्चेति । नक्षत्रलोकेषु गार्गीति । कस्मिन्नु खलु नक्षत्रलोका ओताश्च प्रोताश्चेति । देवलोकेषु गार्गीति । क स्मिन्नु खलु देवलोका ओताश्च प्रोताश्चेति इन्द्रलोकेषु गार्गीति । कस्मिन्नु खल्विन्द्रलोका ओताश्च प्रोताश्चेति । प्रजापतिलोकेषु गार्गीति । कस्मिन्नु खलु प्रजापतिलोका ओताश्च प्रोताश्चेति । ब्रह्मलोकेषु गार्गीति । कस्मिन्नु खलु ब्रह्मलोका ओताश्च प्रोताश्चेति । स होवाच गार्गि मातिप्राक्षीर्मा ते मूर्धा व्यपप्तदनतिप्रश्न्यां वै देवतामतिपृच्छसि । गार्गि माऽतिप्राक्षीरिति । ततो ह गार्गी वाचक्नव्युपरराम ॥ १॥ फिर याज्ञवल्क्य से वचक्नु की पुत्री गार्गी ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य ! यह जो कुछ है, सब जल में ओतप्रोत है, किंतु वह जल किसमें ओतप्रोत है? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः हे गार्गि! जल वायु से ओत प्रोत है। गार्गी ने पूछाः वायु किसमें ओतप्रोत है? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः हे गार्गि! वायु अन्तरिक्ष लोकों में ओतप्रोत है। गार्गी ने पूछाः अन्तरिक्षलोक किसमें ओतप्रोत है? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः हे गार्गि अन्तरिक्षलोक, गन्धर्वलोकों में ओतप्रोत है। गार्गी ने पूछाः गन्धर्वलोक किसमें ओतप्रोत हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः हे गार्गि! आदित्यलोकों में ओतप्रोत है। गार्गी ने पूछाः आदित्यलोक किसमें ओतप्रोत हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः हे गार्गि आदित्यलोक, चन्द्रलोकों में ओतप्रोत है। गार्गी ने पूछाः चन्द्रलोक किसमें ओतप्रोत हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः हे गार्गि ! चन्द्रलोक, नक्षत्रलोकों में ओतप्रोत है। गार्गी ने पूछाः नक्षत्रलोक किसमें ओतप्रोत हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः हे गार्गि! नक्षत्रलोक, देवलोकों में ओतप्रोत है। गार्गी ने पूछाः देवलोक किसमें ओतप्रोत हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया: हे गार्गि ! देवलोक, इन्द्रलोकों में ओतप्रोत है। गार्गी ने पूछाः इन्द्रलोक किसमें ओतप्रोत हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः हे गार्गि इन्द्रलोक, प्रजापतिलोकों में ओतप्रोत है। गार्गी ने पूछाः प्रजापतिलोक किसमें ओतप्रोत हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः हे गार्गि! प्रजापतिलोक, ब्रह्मलोकों में ओतप्रोत है। गार्गी ने पूछाः ब्रह्मलोक किसमें ओतप्रोत हैं ? याज्ञवल्क्य ने चेतावनी देते हुए उत्तर दियाः हे गार्गि! अतिप्रश्न मत कर! कहीं तेरा मस्तक न गिर जाय। तुझे जिसके विषय में अतिप्रश्न नहीं करना चाहिये, तू उसी उस देवता के विषयमें अतिप्रश्न कर रही है। हे गार्गि ! तू अतिप्रश्न न कर। तब वचक्नु की पुत्री गार्गी चुप हो गई। ॥ १ ॥ ॥ इति षष्ठं ब्राह्मणम् ॥ ॥ छठा ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ तृतीयोध्यायः - सप्तमं ब्राह्मणम् सातवाँ ब्राह्मण अंतर्यामी ब्राह्मण अथ हैनमूद्दालक आरुणिः पप्रच्छ याज्ञवल्क्येति होवाच मद्रेष्ववसाम पतञ्चलस्य काप्यस्य गृहेषु यज्ञमधीयानास्तस्याऽऽ सीद्भार्या गन्धर्वगृहीता । तमपृच्छाम कोऽसीति । सोऽब्रवीत् कबन्ध आथर्वण इति । सोऽब्रवीत्पतञ्चलं काप्यं याज्ञिकाश्च वेत्थ नु त्वं काप्य तत्सूत्रं येनायं च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतानि सन्दृब्धानि भवन्तीति । सोऽब्रवीत्पतञ्चलः काप्यो नाहं तद् भगवन् वेदेति । सोऽब्रवीत् पतञ्चलं काप्यं याज्ञिकाश्चः वेत्थ नु त्वं काप्य तमन्तर्यामिणं य इमं च लोकं परं च लोक सर्वाणि च भूतानि योऽन्तरो यमयतीति । सोऽब्रवीत् पतञ्चलः काप्यो नाहं तं भगवन् वेदेति । सोऽब्रवीत् पतञ्चलं काप्यं याज्ञिकाश्च यो वै तत् काप्य सूत्रं विद्यात्तं चान्तर्यामिणमिति स ब्रह्मवित् स लोकवित् स देववित् स वेदवित् स भूतवित् स आत्मवित् स सर्वविदिति तेभ्योऽब्रवीत् तदहं वेद । तच्चेत्त्वं याज्ञवल्क्य सूत्रमविद्वास्तं चान्तर्यामिणं ब्रह्मगवीरुदजसे मूर्धा ते विपतिष्यतीति । वेद वा अहं गौतम तत्सूत्रं तं चान्तर्यामिणमिति । यो वा इदं कश्चिद्ब्रूयात् वेद वेदेति । यथा वेत्थ तथा ब्रूहीति ॥ १॥ फिर याज्ञवल्क्य से आरुणि उद्दालकने पूछा; हे याज्ञवल्क्य ! हम मद्रदेश में यज्ञ शास्त्र का अध्ययन करते हुए कपिगोत्रोत्पन्न पतञ्चलके घर रहते थे। उसकी भार्या गन्धर्व द्वारावशीभूत थी। हमने उस गन्धर्व से पूछा, 'तू कौन है ?' उसने कहा, 'मैं आथर्वण कबन्ध हूँ।' उसने कपि गोत्रीय पतञ्चल और उसके याज्ञिकों से पूछाः 'हे काप्य ! क्या तुम उस सूत्र को जानते हो जिसके द्वारा यह लोक, परलोक और सारे भूत प्रथित हैं ?" पतञ्चल काप्य ने कहा: 'भगवन्! मैं उसे नहीं जानता ।' गन्धर्व ने कहा: 'हे काप्य ! क्या तुम उस अन्तर्यामीको जानते हो जो इस लोक, परलोक और समस्त भूतोंको भीतरसे नियमित करता है? पतञ्चल काप्य ने कहा: भगवन्! मैं उसे नहीं जानता। गन्धर्व ने कहा: 'काप्य! जो कोई उस सूत्र और उस अन्तर्यामीको जानता है, वह ब्रह्मवेत्ता है, वह लोकवेत्ता है, वह देववेत्ता है, वह वेदवेत्ता है, वह भूतवेत्ता है, वह आत्मवेत्ता है और वह सर्ववेत्ता है। तथा इसके पश्चात् गन्धर्वने उन (काप्य आदि) से सूत्र और अन्तर्यामी को बताया। उसे मैं जानता हूँ। हे याज्ञवल्क्य! यदि उस सूत्र और अन्तर्यामीको न जाननेवाले होकर ब्रह्मवेत्ताकी खभूत गौओंको ले जाओगे तो तुम्हारा मस्तक गिर जायगा। याज्ञवल्क्य के कहा: हे गौतम! मैं उस सूत्र और अन्तर्यामी को जानता हूँ। उद्दालक ने कहा: ऐसा तो जो कोई भी कह सकता है कि मैं जानता हूँ, मैं जानता हूँ, किंतु इस तरह व्यर्थ ढोल पीटनेसे क्या लाभ? यदि वास्तवमें तुम्हें उसका ज्ञान है तो जिस प्रकार तुम जानते हो वह कहो? ॥१॥ स होवाच वायुर्वे गौतम तत्सूत्रं वायुना वै गौतम सूत्रेणायं च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतानि सन्दृब्धानि भवन्ति । तस्माद्वै गौतम पुरुषं प्रेतमाहुर्व्यस्रः सिषतास्याङ्गानीति वायुना हि गौतम सूत्रेण संदृब्धानि भवन्तीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्यान्तर्यामिणं ब्रूहीति ॥ २॥ याज्ञवल्क्य ने कहा: हे गौतम! वायु ही वह सूत्र है। हे गौतम ! वायु रूप सूत्रके द्वारा ही यह लोक, परलोक और समस्त प्राणी समुदाय गुंथे हुए हैं। हे गौतम ! इसीसे मरे हुए पुरुषको ऐसा कहते हैं कि इसके अङ्ग शिथिल हो गये हैं। क्योंकि हे गौतम ! वे वायुरूप सूत्र से ही जुड़े रहते हैं। आरुणि ने कहाः हे याज्ञवल्क्य! ठीक है, यह तो ऐसा ही है, अब तुम अन्तर्यामी का वर्णन करो। ॥२॥ यः पृथिव्यां तिष्ठन्पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ ३॥ याज्ञवल्क्य ने अंतर्यामी का वर्णन करना शुरू दियाः जो पृथिवी में रहनेवाला पृथिवी के भीतर है, जिसे पृथिवी नहीं जानती, जिसका पृथिवी शरीर है और जो भीतर रहकर पृथिवी को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥ ३ ॥ योऽप्सु तिष्ठन्नद्भयोऽन्तरो यमापो न विदुः यस्यापः शरीरं योऽपोऽन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ ४॥ जो जल में रहनेवाला जल के भीतर है, जिसे जल नहीं जानता, जल जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर जल को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥ ४ ॥ योऽग्नौ तिष्ठन्नग्नेरन्तरो यमग्निर्न वेद यस्याग्निः शरीरं योऽग्निमन्तरो यमयति एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ५॥ जो अग्नि में रहनेवाला अग्नि के भीतर है, जिसे अग्नि नहीं जानता, अग्नि जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर अग्नि को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है।॥ ५॥ योऽन्तरिक्षे तिष्ठन्नन्तरिक्षादन्तरो यमन्तरिक्षं न वेद यस्यान्तरिक्ष शरीरं योऽन्तरिक्षमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ ६॥ जो अन्तरिक्ष में रहनेवाला अन्तरिक्ष के भीतर है, जिसे अन्तरिक्ष नहीं जानता, अन्तरिक्ष जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर अन्तरिक्ष को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥ ६॥ यो वायौ तिष्ठन्वायोरन्तरो यं वायुर्न वेद यस्य वायुः शरीरं यो वायुमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ ७॥ जो वायु में रहनेवाला वायु के भीतर है, जिसे वायु नहीं जानता, वायु जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर वायु को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥ ७॥ यो दिवि तिष्ठन्दिवोऽन्तरो यं द्यौर्न वेद यस्य द्यौः शरीरं यो दिवमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ ८॥ जो द्युलोक में रहनेवाला द्युलोक के भीतर है, जिसे द्युलोक नहीं जानता, द्युलोक जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर द्युलोक को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥ ८॥ य आदित्ये तिष्ठन्नादित्यादन्तरो यमादित्यो न वेद यस्याऽऽदित्यः शरीरं य आदित्यमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ ९॥ जो आदित्य में रहनेवाला आदित्य के भीतर है, जिसे आदित्य नहीं जानता, आदित्य जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर आदित्य को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥ ९॥ यो दिक्षु तिष्ठन्दिग्भ्योऽन्तरो यं दिशो न विदुर्यस्य दिशः शरीरं यो दिशोऽन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ १०॥ जो दिशाओं में रहनेवाला दिशाओं के भीतर है, जिसे दिशाएँ नहीं जानती, दिशाएँ जिसका शरीर हैं और जो भीतर रहकर दिशाओं को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥ १० ॥ यश्चन्द्रतारके तिष्ठञ्चन्द्रतारकादन्तरो यं चन्द्रतारकं न वेद यस्य चन्द्रतारकः शरीरं यश्चन्द्रतारकमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ ११॥ जो चन्द्रमा और ताराओं में रहनेवाला चन्द्रमा और ताराओं के भीतर है, जिसे चन्द्रमा और ताराएँ नहीं जानती, चन्द्रमा और ताराएँ जिसका शरीर हैं और जो भीतर रहकर चन्द्रमा और ताराओं को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥ ११ ॥ य आकाशे तिष्ठन्नाकाशादन्तरो यमाकाशो न वेद यस्याऽऽकाशः शरीरं य आकाशमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ १२॥ जो आकाश में रहनेवाला आकाश के भीतर है, जिसे आकाश नहीं जानता, आकाश जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर आकाश को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥ १२॥ यस्तमसि तिष्ठस्तमसोऽन्तरो यं तमो न वेद यस्य तमः शरीरं यस्तमोऽन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ १३॥ जो तम में रहनेवाला तम के भीतर है, जिसे तम नहीं जानता, तम जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर तम को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥ १३ ॥ यस्तेजसि तिष्ठस्तेजसोऽन्तरो यं तेजो न वेद यस्य तेजः शरीरं यस्तेजोऽन्तरो यमयत्य्स एष त आत्माऽन्तर्याम्यमृत इत्यधिदैवतं अथाधिभूतम् ॥ १४॥ जो तेज में रहनेवाला तेज के भीतर है, जिसे तेज नहीं जानता, तेज जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर तेज को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है, यह उस अधिदैवत-दर्शन (देवताओं का) हुआ, आगे अधिभूत-दर्शन (प्राणियों का) बताते हैं। ॥ १४ ॥ यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्तरो यः सर्वाणि भूतानि न विदुर्यस्य सर्वाणि भुतानि शरीरं यः सर्वाणि भूतान्यन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृत इत्यधिभूतमथाध्यात्मम् ॥ १५॥ जो समस्त प्राणियों में स्थित रहनेवाला समस्त प्राणियों के भीतर है, जिसे समस्त प्राणी नहीं जानते, समस्त प्राणी जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर समस्त प्राणियों को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। यह अधिभूत दर्शन (प्राणधारियों का) है, अब आध्यात्म दर्शन (शारीरिक) कहा जाता है। ॥ १५॥ यः प्राणे तिष्ठन्प्राणादन्तरो यं प्राणो न वेद यस्य प्राणः शरीरं यः प्राणमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ १६॥ जो प्राण में रहनेवाला प्राण के भीतर है, जिसे प्राण नहीं जानता, प्राण जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर प्राण को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥१६॥ यो वाचि तिष्ठन्वाचोऽन्तरो यं वाङ्‌न वेद यस्य वाक् शरीरं यो वाचमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ १७॥ जो वाणी में रहनेवाला वाणी के भीतर है, जिसे वाणी नहीं जानती, वाणी जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर वाणी को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥ १७ ॥ यश्चक्षुषि तिष्ठश्चक्षुषोऽन्तरो यं चक्षुर्न वेद यस्य चक्षुः शरीरं यश्चक्षुरन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ १८॥ जो नेत्रमें रहनेवाला नेत्र के भीतर है, जिसे नेत्र नहीं जानता, नेत्र जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर नेत्र को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥ १८ ॥ यः श्रोत्रे तिष्ठछोत्रादन्तरो यः श्रोत्रं न वेद यस्य श्रोत्र शरीरं यः श्रोत्रमन्तरो यमयत्य्स एष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ १९॥ जो श्रोत्र में रहनेवाला श्रोत्र के भीतर है, जिसे श्रोत्र नहीं जानता, श्रोत्र जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर श्रोत्र को नियम में रखता है वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥ १९ ॥ यो मनसि तिष्ठन्मनसोऽन्तरो यं मनो न वेद यस्य मनः शरीरं यो मनोऽन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ २०॥ जो मन में रहनेवाला मन के भीतर है, जिसे मन नहीं जानता, मन जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर मन को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥२०॥ यस्त्वचि तिष्ठस्त्वचोऽन्तरो यं त्वङ्न वेद यस्य त्वक् शरीरं यस्त्वचमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ २१॥ जो त्वचा में रहनेवाला त्वचा के भीतर है, जिसे त्वचा नहीं जानती, त्वचा जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर त्वचा को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। ॥ २१ ॥ विज्ञाने तिष्ठन्विज्ञानादन्तरो यः विज्ञानं न वेद यस्य विज्ञान शरीरं यो विज्ञानमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ २२॥ जो विज्ञान में रहनेवाला विज्ञान के भीतर है, जिसे विज्ञान नहीं जानता, विज्ञान जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर विज्ञान को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है।॥ २२ ॥ यो रेतसि तिष्ठन् रेतसोऽन्तरो यः रेतो न वेद यस्य रेतः शरीरं यो रेतोऽन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतोऽदृष्टो द्रष्टाऽश्रुतः श्रोताऽमतो मन्ताऽविज्ञतो विज्ञाता । नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा नान्योऽतोऽस्ति श्रोता नान्योऽतोऽस्ति मन्ता नान्योऽतोऽस्ति विज्ञातैष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतोऽतोऽन्यदार्तं ततो होद्दालक आरुणिरुपरराम ॥ २३॥ जो वीर्य में रहनेवाला वीर्य के भीतर है, जिसे वीर्य नहीं जानता, वीर्य जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर वीर्य को नियम में रखता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। वह दिखायी न देनेवाला किंतु देखनेवाला है, सुनायी न देनेवाला किंतु सुननेवाला है, मनन का विषय न होने वाला किंतु मनन करने वाला है और विशेषतया ज्ञात न होने वाला किंतु विशेष रूपसे जानने वाला है। यह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। इससे भिन्न सब नाशवान् है। इसके पश्चात् अरुण का पुत्र उद्दालक चुप हो गया ॥ २३ ॥ ॥ इति सप्तमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ सातवाँ ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ तृतीयोध्यायः - अष्टमं ब्राह्मणम् आठवां ब्राह्मण गार्गी ब्राह्मण अंतर्यामी का निर्णय सुन वचक्नु की पुत्री गार्गी के हृदय में अंतर्यामी के शुद्ध स्वरुप को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई और गार्गी में पुनः प्रश्न पूछना आरम्भ किया - अथ ह वाचक्नव्युवाच ब्राह्मणा भगवन्तो हन्ताहमिमं द्वौ प्रश्नौ प्रक्ष्यामि तौ चेन्मे वक्ष्यति न वै जातु युष्माकमिमं कश्चिद्ब्रह्मोद्यं जेतेति । पृच्छ गार्गीति ॥ १॥ गार्गी ने कहा : पूजनीय ब्राह्मणगण! अब मैं इनसे दो प्रश्न पूछूगी। यदि ये मेरे उन प्रश्नोंका उत्तर दे देंगे तो आपमेंसे कोई भी इन्हें ब्रह्मसम्बन्धी वादमें नहीं जीत सकेगा। याज्ञवल्क्य ने कहा: अच्छा गार्गि ! पूछो। ॥ १ ॥ सा होवाचाहं वै त्वा याज्ञवल्क्य यथा काश्यो वा वैदेहो वोग्रपुत्र उज्ज्यं धनुरधिज्यं कृत्वा द्वौ बाणवन्तौ सपत्नातिव्याधिनौ हस्ते कृत्वोपोत्तिष्ठेदेवमेवाहं त्वा द्वाभ्यां प्रश्नाभ्यामुपोदस्थाम् । तौ मे ब्रूहीति । पृच्छ गार्गीति ॥ २॥ गार्गी ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य ! जिस प्रकार काशी या विदेह का रहने वाला कोई वीर-वंशज प्रत्यंचा हीन धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर शत्रुओं को अत्यन्त पीडा देने वाले दो बाण हाथ में लेकर खड़ा होता है, उसी प्रकार मैं दो प्रश्न लेकर तुम्हारे सामने उपस्थित होती हूँ, आप मुझे उनका उत्तर दो। याज्ञवल्क्य ने कहाः अच्छा गार्गि ! पूछो। ॥२॥ सा होवाच यदूर्ध्वं याज्ञवल्क्य दिवो यदवाक्पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षते कस्मिस्तदोतं च प्रोतं चेति ॥ ३॥ गार्गी ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य! जो द्युलोक से ऊपर है, जो पृथिवी से नीचे है और जो द्युलोक और पृथिवी के मध्य में है और स्वयं भी जो यह द्युलोक और पृथिवी हैं तथा जिन्हें भूत, वर्तमान और भविष्य- इस प्रकार कहते हैं, वे किसमें ओतप्रोत हैं? ॥ ३ ॥ स होवाच यदूर्ध्वं गार्गि दिवो यदवाक्पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षत आकाशे तदोतं च प्रोतं चेति ॥ ४॥ याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः हे गार्गि! जो द्युलोक से ऊपर, पृथिवी से नीचे और जो द्युलोक एवं पृथिवी के मध्यमें है और स्वयं भी जो ये द्युलोक और पृथिवी हैं तथा जिन्हें भूत, वर्तमान एवं भविष्य-इस प्रकार कहते हैं, वह सभी आकाश में ओतप्रोत हैं। ॥ ४ ॥ सा होवाच नमस्तेऽस्तु याज्ञवल्क्य यो म एतं व्यवोचोऽपरस्मै धारयस्वेति । पृच्छ गार्गीति ॥ ५॥ गार्गी ने कहा: 'हे याज्ञवल्क्य ! आपको नमस्कार है, जिन्होंने मुझे इस प्रश्नका उत्तर दे दिया; अब आप दूसरे प्रश्नके लिये तैयार हो जाइये। याज्ञवल्क्य ने कहाः अच्छा गार्गि ! पूछो। ॥ ५॥ सा होवाच यदूर्ध्वं याज्ञवल्क्य दिवो यदवाक् पृथिव्याः यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षते आचक्षते कस्मिस्तदोतं च प्रोतं चेति ॥ ६॥ गार्गी ने पूछाः 'हे याज्ञवल्क्य ! जो द्युलोक से ऊपर है, जो पृथिवी से नीचे है और जो द्युलोक और पृथिवी के मध्य में है और स्वयं भी जो ये द्युलोकऔर पृथिवी हैं तथा जिन्हें भूत, वर्तमान और भविष्य इस प्रकार कहते हैं, वे किसमें ओत-प्रोत हैं? ॥६॥ स होवाच यदूर्ध्वं गार्गि दिवो यदवाक्पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षत आकाश एव तदोतं च प्रोतं चेति। कस्मिन्नु खल्वाकाश ओतश्च प्रोतश्चेति ॥ ७॥ याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः हे गार्गि! जो द्युलोक से ऊपर, पृथिवी से नीचे और जो द्युलोक एवं पृथिवी के मध्यमें है और स्वयं भी जो ये द्युलोक और पृथिवी हैं तथा जिन्हें भूत, वर्तमान एवं भविष्य-इस प्रकार कहते हैं, वह सभी आकाश में ओतप्रोत हैं। गार्गी ने पूछाः किन्तु वह आकाश किस में ओत-प्रोत है? ॥७॥ स होवाचैतद्वै तदक्षरऽ गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वहस्वमदीर्घमलोहितमस्नेहमच्छायमतमो- ऽवाय्खनाकाशमसङ्गं अचक्षुष्कमश्रोत्रमवाग् अमनोऽतेजस्कमप्राणममुखममात्रं अनन्तरमबाह्यं न तदश्नाति किं चन न तदश्नाति कश्चन ॥ ८॥ याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया: 'हे गार्गि ! उस इस तत्त्व को तो ब्रह्म के जानने वाले अक्षर (अविनाशी) कहते हैं, वह न मोटा है, न पतला है, न छोटा है, न बड़ा है, न अग्नि की तरह लाल है, न द्रव है, न छाया है, न तम (अन्धकार) है, न वायु है, न आकाश है, न सङ्ग है, न रस है, न गन्ध है, न नेत्र है, न कान है, न वाणी है, न मन है, न तेज है, न प्राण है, न मुख है, न माप है, उसमें न अन्दर है, न बाहर है। न वह किसी को भोगता है और न ही उसे कोई भोग सकता है। ॥ ८ ॥ एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठत एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि द्यावापृथिव्यौ विधृते तिष्ठत एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि निमेषा मुहूर्ता अहोरात्राण्यर्धमासा मासा ऋतवः संवत्सरा इति विधृतास्तिष्ठन्त्येतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि प्राच्योऽन्या नद्यः स्यन्दन्ते श्वेतेभ्यः पर्वतेभ्यः प्रतीच्योऽन्या यां यां च दिशमन्वेतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि ददतो मनुष्याः प्रशसन्ति यजमानं देवा दर्वी पितरोऽन्वायत्ताः ॥ ९॥ हे गार्गि! इस अक्षर के ही प्रशासन में सूर्य और चन्द्रमा विशेषरूप से धारण किये हुए स्थित रहते हैं। हे गार्गि इस अक्षरके ही प्रशासन में द्युलोक और पृथिवी विशेषरूप से धारण किये हुए स्थित रहते हैं। हे गार्गि! इस अक्षरके ही प्रशासन में निमेष, मुहूर्त, दिन-रात, अर्ध-मास (शुक्ल और कृष्ण पक्ष), मास, ऋतु और संवत्सर विशेषरूप से धारण किये हुए स्थित रहते हैं। हे गार्गि! इस अक्षर के ही प्रशासनमें पूर्ववाहिनी एवं अन्य नदियाँ श्वेत पर्वतों से बहती हैं तथा अन्य पश्चिमवाहिनी नदियाँ जिस-जिस दिशा को बहने लगती हैं, उसी का अनुसरण करती रहती हैं। हे गार्गि ! इस अक्षर के ही प्रशासन में मनुष्य दाता की प्रशंसा करते हैं तथा देवगण यजमान के अनुगत होते हैं और पितृगण दर्वीहोम 18 के अनुगत होते हैं ॥ ९ ॥ यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वाऽस्मिल्लोके जुहोति यजते तपस्तप्यते बहूनि वर्षसहस्राण्यन्तवदेवास्य तद्भवति लोको भवति यो वा एतदक्षरं गाग्र्ग्यविदित्वाऽस्माल्लोकात्प्रैति स कृपणोऽथ य एतदक्षरं गार्गि विदित्वाऽस्माल्लोकात्प्रैति स ब्राह्मणः ॥ १०॥ हे गार्गि ! जो कोई इस लोक में इस अक्षर को न जानकर हवन करता, यज्ञ करता और अनेकों सहस्र वर्ष पर्यन्त तप करता है, उसका वह सब कर्म अन्तवान् ही होता है। जो कोई भी इस अक्षर को बिना जाने इस लोक से मरकर जाता है, वह कृपण (दीन-दया का पात्र) है और हे गार्गि ! जो इस अक्षर को जानकर इस लोक से मरकर जाता है, वह ब्राह्मण है। ॥ १० ॥ तद्वा एतदक्षरं गार्ग्यदृष्टं द्रष्टुश्रुतः श्रोत्नमतं मन्त्रविज्ञातं विज्ञातृ नान्यदतोऽस्ति द्रष्टृ नान्यदतोऽस्ति श्रोतृ नान्यदतोऽस्ति मन्तृ नान्यदतोऽस्ति विज्ञात्लेतस्मिन्नु खल्वक्षरे गार्ग्यकाश ओतश्च प्रोतश्चेति ॥ ११॥ हे गार्गि! यह अक्षर स्वयं दृष्टि का विषय नहीं, किंतु द्रष्टा है, श्रवण का विषय नहीं, किंतु श्रोता है, मनन का विषय नहीं, किंतु मन्ता है, स्वयं अविज्ञात रहकर दूसरों का विज्ञाता है। इससे भिन्न कोई द्रष्टा नहीं है, इससे भिन्न कोई श्रोता नहीं है, इससे भिन्न कोई मन्ता नहीं है, इससे भिन्न कोई विज्ञाता नहीं है। हे गार्गि! निश्चय इस अक्षर में ही आकाश ओतप्रोत है। ॥ ११ ॥ सा होवाच ब्राह्मणा भगवन्तस्तदेव बहु मन्येध्वं यदस्मान्नमस्कारेण मुच्येध्वं न वै जातु युष्माकमिमं कश्चिद्ब्रह्मोद्यं जेतेति ततो ह वाचक्नव्युपरराम ॥ १२॥ उस गार्गी ने कहा, 'पूज्य ब्राह्मणगण! आप लोग इसी को बहुत मानें कि इन याज्ञवल्क्यजी से आपको नमस्कार द्वारा ही छुटकारा मिल जाए। आपमें से कोई भी कभी इन्हें ब्रह्मविषयक वाद-विवाद में जीतनेवाला नहीं है। तदनन्तर वचक्नु की पुत्री गार्गी चुप हो गयी। ।। १२ ॥ ॥ इत्यष्टमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ आठवां ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ तृतीयोध्यायः - नवमं ब्राह्मणम् नौवां ब्राह्मण शाकल्य ब्राह्मण अथ हैनं विदग्धः शाकल्यः पप्रच्छ कति देवा याज्ञवल्क्येति । स हैतयैव निविदा प्रतिपेदे यावन्तो वैश्वदेवस्य निविद्युच्यन्ते त्रयश्च त्री च शता त्रयश्च त्री च सहस्रेत्योमिति होवाच कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति । त्रयस्त्रिशदित्योमिति होवाच । कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति । षडित्योमिति होवाच । कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति । त्रय इत्योमिति होवाच । कत्येव देवा याज्ञवल्क्येत्य्द्वावित्योमिति होवाच । कत्येव देवा याज्ञवल्क्येत्यध्यर्ध इत्योमिति होवाच । कत्येव देवा याज्ञवल्क्येत्येक इत्योमिति होवाच । कतमे ते त्रयश्च त्री च शता त्रयश्च त्री च सहस्रेति ॥ १ ॥ इसके पश्चात् याज्ञवल्क्य से विदग्ध शाकल्य ने पूछाः 'हे याज्ञवल्क्य ! कितने देवगण हैं ?' याज्ञवल्क्य ने इस आगे कही जानेवाली निविद् से ही उनकी संख्या का प्रतिपादन किया। जितने वैश्वदेव की निविद् अर्थात् देवताओं की संख्या बतानेवाले मन्त्रपदों में बतलाये गये हैं । वे तीन और तीन सौ तथा तीन और तीन सहस्र (तीन हजार तीन सौ छः) हैं। तब शाकल्य ने ठीक है। ऐसा कहा। शाकल्य ने पूछाः हे याज्ञवल्क्य ! कितने देव हैं। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः तैंतीस । शाकल्य ने कहा: ठीक है और पूछा, हे याज्ञवल्क्य ! कितने देव हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः छः। शाकल्य ने कहा: ठीक है और फिर पूछा, हे याज्ञवल्क्य ! कितने देव हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः तीन। शाकल्य ने कहा: ठीक है और फिर पूछा, हे याज्ञवल्क्य ! कितने देव हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः दो। शाकल्य ने कहा: ठीक है और फिर पूछा, हे याज्ञवल्क्य ! कितने देव हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः डेढ़। शाकल्य ने कहा: ठीक है और फिर पूछा, हे याज्ञवल्क्य ! कितने देव हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः एक। शाकल्य ने कहा: ठीक है और फिर पूछा, हे याज्ञवल्क्य ! वे तीन और तीन सौ तथा तीन और तीन सहस्त्र देव कौन-से हैं? ॥ १ ॥ स होवाच महिमान एवैषामेते त्रयस्त्रिशत्त्वेव देवा इति कतमे ते त्रयस्त्रिशदित्यष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशाऽऽदित्यास्ते एकत्रिशदिन्द्रश्चैव प्रजापतिश्च त्रयस्त्रि शाविति ॥ २॥ याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः यह तो इनकी महिमाएँ ही हैं। देवगण तो तैंतीस ही हैं। शाकल्य ने पूछाः वे तैंतीस देव कौन-से हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य-ये इकतीस देवगण हैं तथा इन्द्र और प्रजापति के सहित तैंतीस हैं। ॥२॥ कतमे वसव इत्यग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चाऽऽदित्यश्च द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चैते वसव एतेषु हीदं वसु सर्व हितमिति तस्माद्वसव इति ॥ ३॥ शाकल्य ने पूछाः 'वसु कौन हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्युलोक, चन्द्रमा और नक्षत्र-ये वसु हैं; इन्हीं में यह समस्त जगत् निहित है, इसी से यह वसु हैं। ॥ ३ ॥ कतमे रुद्रा इति । दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशस्ते यदाऽस्माच्छरीरान्मर्यादुत्क्रामन्त्यथ रोदयन्ति तद्यद्रोदयन्ति तस्माद्रुद्रा इति ॥ ४॥ शाकल्य ने पूछा: 'रुद्र कौन हैं। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'पुरुष में ये दस प्राण (इन्द्रियाँ) और ग्यारहवाँ आत्मा (मन)। ये जिस समय इस मरणशील शरीर से बाहर निकलता हैं, उस समय रुलाते हैं; अतः क्योंकि यह शरीर से बाहर निकलते समय अपने सम्बन्धियों को रुलाते हैं; इसलिये रोदन के कारक होने से 'रुद्र' कहलाते हैं। ॥४॥ कतम आदित्या इति । द्वादश वै मासाः संवत्सरस्यैत आदित्या एते हीद सर्वमाददाना यन्ति ते यदिद सर्वमाददाना यन्ति तस्मादादित्या इति ॥ ५॥ शाकल्य ने पूछाः आदित्य कौन हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः संवत्सर के अवयवभूत ये बारह मास ही आदित्य हैं; क्योंकि यह सबको (मनुष्य की आयु और उन के कर्मों के फलों को ग्रहण करते हुए चलते हैं, इसलिये आदित्य हैं। ।। ५ ।। कतम इन्द्रः कतमः प्रजापतिरिति । स्तनयित्तुरेवेन्द्रो यज्ञः प्रजापतिरिति । कतमः स्तनयितुरित्यशनिरिति । कतमो यज्ञ इति । पशव इति ॥ ६॥ शाकल्य ने पूछाः इन्द्र कौन है और प्रजापति कौन है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः विद्युत् ही इन्द्र है और यज्ञ प्रजापति है। शाकल्य ने पूछाः विद्युत् कौन है? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः अग्नि की विद्युत् है। शाकल्य ने पूछाः यज्ञ कौन है? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः याज्ञिक पशु ही यज्ञ हैं। ॥ ६॥ कतमे षडित्यग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चाऽऽदित्यश्च द्यौश्चैते षड् एते हीद सर्वं षडिति ॥ ७॥ शाकल्य ने पूछाः छः देवगण कौन हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य और द्युलोक यह छः देवगण हैं। ये वसु आदि तैंतीस देवताओं के रूपमें अग्नि आदि छः ही हैं। ॥ ७ ॥ कतमे ते त्रयो देवा इति इम एव त्रयो लोका एषु हीमे सर्वे देवा इति । कतमौ तौ द्वौ देवावित्यन्नं चैव प्राणश्चेति । कतमोऽध्यर्ध इति । योऽयं पवत इति ॥ ८ ॥ शाकल्य ने पूछाः वे तीन देव कौन हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'ये तीन लोक ही तीन देव हैं 19। इन्हीं में ये सब देव अन्तर्भूत हैं। शाकल्य ने पूछाः 'वे दो देव कौन हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः अन्न और प्राण ही दो देव हैं। शाकल्य ने पूछा: डेढ़ देव कौन हैं? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः जो यह बहता है अर्थात बहता हुआ वायु ही डेढ़ देव है। ॥ ८ ॥ तदाहुर्यदयमेक एव एक इवैव पवते। आथ कथमध्यर्ध इति । यदस्मिन्निदः सर्वमध्यार्थ्रोत् तेनाध्यर्ध इति । कतम एको देव इति । प्राण इति स ब्रह्म त्यदित्याचक्षते ॥ ९॥ इसी पर आक्षेप करते हुए शाकल्य ने पूछाः यह जो वायु है, एक ही- सा बहता है, फिर यह अध्यर्ध-डेढ़ किस प्रकार है ?' याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः क्योंकि इसीमें यह सब ऋद्धि को प्राप्त होता है, इसलिये यह अध्यर्ध (डेढ़) है।' शाकल्य ने पूछाः एक देव कौन है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः प्राण, वह ब्रह्म है, उसी को 'त्यत्' ऐसा कहते हैं। ॥ ९ ॥ पृथिव्येव यस्याऽऽयतनमग्निर्लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं पुरुषं विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायण, परायणं स वै वेदिता स्याद् याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुषः सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं यमात्थ य एवाय शारीरः पुरुषः स एष । वदैव शाकल्य तस्य का देवतेत्यमृतमिति होवाच ॥ १०॥ शाकल्य ने कहाः पृथिवी ही जिसका शरीर है तथा अग्नि लोक दर्शनशक्ति और मन ज्योति, संकल्प-विकल्प का साधन है, जो उस हर एक आत्मा के परम आश्रय पुरुष को सम्पूर्ण अध्यात्म कार्य- करणसमूह का परायण जानता है, वही ज्ञाता (पण्डित) है। हे याज्ञवल्क्य ! तुम तो बिना जाने ही पण्डित होने का अभिमान कर रहे हो! याज्ञवल्क्य ने कहाः जिसे तुम सम्पूर्ण आध्यात्मिक कार्य करण संघातका परायण बतलाते हो, उस पुरुषको तो मैं जानता हूँ। यह जो शारीर पुरुष है, वही यह है। शाकल्य! और बोलो। शाकल्य ने पूछाः अच्छा, उसका देवता कौन है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः अमृत। ॥१०॥ काम एव यस्याऽऽयतन हृदयं लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं पुरुषं विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायणः, स वै वेदिता स्याद् याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुष सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं यमात्थ य एवायं काममयः पुरुषः स एष वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति । स्त्रिय इति होवाच ॥ ११॥ शाकल्य ने कहाः कामना काम ही जिसका शरीर है, हृदय लोक हैं और मन ज्योति है, उस पुरुष को जो भी सम्पूर्ण आध्यात्मिक कार्य- करण समूह का परायण जानता है, वही ज्ञाता है। हे याज्ञवल्क्य ! तुम तो बिना जाने ही पण्डित होने का अभिमान कर रहे हो ! याज्ञवल्क्य ने कहाः जिसे तुम सम्पूर्ण आध्यात्मिक कार्य- करणसंघातका परायण बतलाते हों, उस पुरुषको तो मैं जानता हूँ। जो भी यह काममय पुरुष है, वही यह है। हे शाकल्य ! और बोलो । शाकल्य ने पूछाः उसका कौन देवता है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः स्त्रियाँ ॥११॥ रूपाण्येव यस्याऽऽयतनं चक्षुर्लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं पुरुषं विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायणः, स वै वेदिता स्याद् याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुषः सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं यमात्थ य एवासावादित्ये पुरुषः स एष वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति । सत्यमिति होवाच ॥ १२॥ शाकल्य ने पूछाः रूप ही जिसका शरीर है, नेत्र लोक है और मन ज्योति है, जो भी उस पुरुष को सम्पूर्ण अध्यात्म कार्य-करणसमूह का परायण जानता है, वही ज्ञाता है। हे याज्ञवल्क्य ! तुम तो बिना जाने ही पण्डित होने का अभिमान कर रहे हो ! याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः तुम जिसे सम्पूर्ण अध्यात्म कार्य- करणसमूहका परायण बतलाते हो, उस पुरुषको तो मैं जानता हूँ। जो भी यह आदित्यमें पुरुष है, वही यह है। हे शाकल्य ! और बोलो। शाकल्य ने पूछा: उसका देवता कौन है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः सत्य ॥ १२ ॥ आकाश एव यस्याऽऽयतन श्रोत्रं लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं पुरुषं विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायणः, स वै वेदिता स्याद् याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुष सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं यमात्थ य एवाय श्रौत्रः प्रातिश्रुत्कः पुरुषः स एष वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति । दिश इति होवाच ॥ १३॥ शाकल्य ने कहा: आकाश ही जिसका शरीर है, श्रोत्र लोक है और मन ज्योति है, जो भी उस पुरुषको सम्पूर्ण अध्यात्म कार्य-करणसमूह का परायण जानता है, वही ज्ञाता है। हे याज्ञवल्क्य ! तुम तो बिना जाने ही पण्डित होनेका अभिमान कर रहे हो! याज्ञवल्क्य ने कहाः तुम जिसे सम्पूर्ण अध्यात्म कार्य-करणसमूह का परायण कहते हो, उस पुरुषको तो मैं जानता हूँ। जो भी यह सुनने वाला और उत्तर देने वाला पुरुष है, यही वह है, हे शाकल्य ! और बोलो । शाकल्य ने पूछाः 'उसका कौन देवता है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः दिशाएँ। ॥ १३ ॥ तम एव यस्याऽऽयतन हृदयं लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं पुरुषं विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायणः, स वै वेदिता स्याद् याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुष सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं यमात्थ य एवायं छायामयः पुरुषः स एष वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति । मृत्युरिति होवाच ॥ १४॥ शाकल्य ने कहा: तम ही जिसका आयतन है, हृदय लोक है, मन ज्योति है, जो भी उस पुरुष को सम्पूर्ण अध्यात्म कार्य-करणसमूह का परायण जानता है, वही ज्ञाता है, याज्ञवल्क्य ! तुम तो बिना जाने ही पण्डित होने का अभिमान कर रहे हो ! याज्ञवल्क्य ने कहाः तुम जिसे समस्त आध्यात्मिक कार्य- करणसमूहका परायण बतलाते हो, उस पुरुषको तो मैं जानता हूँ। जो भी यह छायामय पुरुष है, वही यह है। हे शाकल्य ! और बोलो।' शाकल्य ने पूछा: 'उसका कौन देवता है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः मृत्यु ॥ १४ ॥ रूपाण्येव यस्याऽऽयतनं चक्षुर्लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं पुरुषं विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायण, परायणं स वै वेदिता स्याद् याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुषः सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं यमात्थ य एवायमादर्श पुरुषः स एष वदैव शाकल्य तस्य का देवतेत्यसुरिति होवाच ॥ १५॥ शाकल्य ने कहा: प्रकाशमय रूप ही जिसका शरीर है, नेत्र लोक है और मन ज्योति है, उस पुरुष को जो भी सम्पूर्ण अध्यात्म कार्य- करणसंघात का परायण जानता है, वही ज्ञाता है। हे याज्ञवल्क्य! तुम तो बिना जाने ही पण्डित होने का अभिमान कर रहे हो ! याज्ञवल्क्य ने कहाः तुम जिसे सम्पूर्ण अध्यात्म कार्य-करणसंघात का परायण बतलाते हो, उस पुरुषको तो मैं जानता हूँ। जो भी यह आदर्श (दर्पण) के भीतर पुरुष है, वही यह है। हे शाकल्य ! और बोलो। शाकल्य ने पूछा: 'उसका देवता कौन है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः प्राण ॥ १५॥ आप एव यस्याऽऽयतन हृदयं लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं पुरुषं विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायण, परायणं स वै वेदिता स्याद् याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुषः सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं यमात्थ य एवायमप्सु पुरुषः स एष वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति। वरुण इति होवाच ॥ १६॥ शाकल्य ने कहा: 'जल ही जिसका शरीर है, हृदय लोक हैं और मन ज्योति है, उस पुरुष को जो भी सम्पूर्ण अध्यात्म कार्य-करण संघात का परायण जानता है, वही ज्ञाता है। हे याज्ञवल्क्य ! तुम तो बिना जाने ही विद्वान् होने का अभिमान कर रहे हो! याज्ञवल्क्य ने कहाः 'जिसे तुम सम्पूर्ण अध्यात्म कार्य-करण समूह का परायण बतलाते हो, उस पुरुष को तो मैं जानता हूँ। जो भी यह जल में पुरुष है, वही यह है। हे शाकल्य! और बोलो। शाकल्य ने पूछाः उसका कौन देवता है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः वरुण ॥ १६ ॥ रेत एव यस्याऽऽयतन हृदयं लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं पुरुषं विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायणः, स वै वेदिता स्याद् याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुष सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं यमात्थ य एवायं पुत्रमयः पुरुषः स एष वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति । प्रजापतिरिति होवाच ॥ १७॥ शाकल्य ने कहा: 'वीर्य ही जिसका शरीर है, हृदय लोक है और मन ज्योति है, जो भी उस पुरुष को सम्पूर्ण अध्यात्म कार्य-करण संघात का परायण जानता है, वही ज्ञाता है। हे याज्ञवल्क्य! तुम तो बिना जाने ही विद्वान् होनेका अभिमान कर रहे हो! याज्ञवल्क्य ने कहाः जिसे तुम सम्पूर्ण अध्यात्म कार्य-करण समूह का परायण बतलाते हो, उस पुरुष को तो मैं जानता हूँ। जो भी यह पुत्ररूप पुरुष है, वही यह है। हे शाकल्य! और बोलो। शाकल्य ने पूछाः 'उसका कौन देवता है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः प्रजापति ॥१७॥ शाकल्येति होवाच याज्ञवल्क्यस्त्वा स्विदिमे ब्राह्मणा अङ्गारावक्षयणमक्रता३ इति ॥ १८ ॥ याज्ञवल्क्य ने कहाः शाकल्य! इन ब्राह्मणों ने निश्चय ही तुम्हें अंगारे निकालने का चिमटा बना रखा है। ॥१८॥ याज्ञवल्क्येति होवाच शाकल्यो यदिदं कुरुपञ्चालानां ब्राह्मणानत्यवादीः किं ब्रह्म विद्वानिति । दिशो वेद सदेवाः सप्रतिष्ठा इति । यद्दिशो वेत्थ सदेवाः सप्रतिष्ठाः ॥ १९॥ शाकल्य ने कहा: हे याज्ञवल्क्य! यह जो तुम इन कुरु पाञ्चालदेशीय ब्राह्मणों पर आक्षेप करते हो, सो क्या तुम ब्रह्मवेत्ता हो ऐसा समझकर करते हो ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः मेरा ब्रह्म ज्ञान यह है कि मैं देवता और प्रतिष्ठा के सहित दिशाओं का ज्ञान रखता हूँ। शाकल्य ने कहाः यदि तुम देवता और प्रतिष्ठाके सहित दिशाओंको जानते हो' ॥ १९ ॥ किन्देवतोऽस्यां प्राच्यां दिश्यसीत्यादित्यदेवत इति । स आदित्यः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति । चक्षुषीति । कस्मिन्नु चक्षुः प्रतिष्ठितमिति । रूपेष्विति चक्षुषा हि रूपाणि पश्यति । कस्मिन्नु रूपाणि प्रतिष्ठितानीति । हृदय इति होवाच हृदयेन हि रूपाणि जानाति हृदये ह्येव रूपाणि प्रतिष्ठितानि भवन्तीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ २०॥ शाकल्य ने पूछाः इस पूर्वदिशामें तुम किस देवतासे युक्त हो ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः वहाँ मैं आदित्य (सूर्य) देवतावाला हूँ। शाकल्य ने पूछाः 'वह आदित्य किसमें प्रतिष्ठित है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः नेत्रमें शाकल्य ने पूछाः 'नेत्र किसमें प्रतिष्ठित है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'रूपों में, क्योंकि पुरुष नेत्र से ही रूपों को देखता है। शाकल्य ने पूछा: 'रूप किसमें प्रतिष्ठित है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः हृदयमें, क्योंकि पुरुष हृदयसे ही रूपोंको जानता है, अतः हृदयमें ही रूप प्रतिष्ठित हैं।' शाकल्य ने कहा: 'हे याज्ञवल्क्य! यह बात ऐसी ही है ॥२०॥ किन्देवतोऽस्यां दक्षिणायां दिश्यसीति । यमदेवत इति । स यमः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति । यज्ञ इति। कस्मिन्नु यज्ञः प्रतिष्ठित इति। दक्षिणायामिति । कस्मिन्नु दक्षिणा प्रतिष्ठितेति श्रद्धायामिति यदा ह्येव श्रद्धत्तेऽथ दक्षिणां ददाति श्रद्धाया ह्येव दक्षिणा प्रतिष्ठितेति कस्मिन्नु श्रद्धा प्रतिष्ठितेति हृदय इति होवाच हृदयेन हि श्रद्धां जानाति हृदये ह्येव श्रद्धा प्रतिष्ठिता भवतीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ २१॥ शाकल्य ने पूछाः इस दक्षिण दिशामें तुम कौन-से देवतावाले हो ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः यमदेवता हूँ शाकल्य ने पूछाः 'वह यमदेवता किसमें प्रतिष्ठित है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'यज्ञमें । शाकल्य ने पूछाः 'यज्ञ किसमें प्रतिष्ठित है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'दक्षिणा में । शाकल्य ने पूछाः 'दक्षिणा किसमें प्रतिष्ठित है ?" याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः श्रद्धा में क्योंकि जब पुरुष श्रद्धा करता है, तभी दक्षिणा देता है, अतः श्रद्धा में ही दक्षिणा प्रतिष्ठित है। शाकल्य ने पूछाः 'श्रद्धा किसमें प्रतिष्ठित है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः हृदय में, क्योंकि हृदयसे ही पुरुष श्रद्धाको जानता है, अतः हृदयमें ही श्रद्धा प्रतिष्ठित है। शाकल्य ने कहा: 'हे याज्ञवल्क्य! यह बात ऐसी ही है ॥२१॥ किन्देवतोऽस्यां प्रतीच्यां दिश्यसीति । वरुणदेवत इति । स वरुणः कस्मिन् प्रतिष्ठित इत्यप्स्विति । कस्मिन्वापः प्रतिष्ठितेति रेतसीति । कस्मिन्नु रेतः प्रतिष्ठितेति इति हृदय इति तस्मादपि प्रतिरूपं जातमाहुहृदयादिव सृप्तो हृदयादिव निर्मित इति हृदये होव रेतः प्रतिष्ठितं भवतीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ २२॥ शाकल्य ने पूछाः 'इस पश्चिम दिशामें तुम कौन-से देवतावाले हो ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'वरुण देवता हूँ। शाकल्य ने पूछाः 'वह वरुण किसमें प्रतिष्ठित है? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'जलमें । शाकल्य ने पूछाः 'जल किसमें प्रतिष्ठित है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'वीर्यमें। शाकल्य ने पूछाः 'वीर्य किसमें प्रतिष्ठित है ?" याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः हृदयमें, इसी से पिताके अनुरूप उत्पन्न हुए पुत्र को लोग कहते हैं कि यह मानो पिता के हृदयसे ही निकला है, मानो पिता के हृदय से ही बना है, क्योंकि हृदय में ही वीर्य स्थित रहता है ।' शाकल्य ने कहा: 'हे याज्ञवल्क्य! यह बात ऐसी ही है ॥२२॥ किन्देवतोऽस्यामुदीच्यां दिश्यसीति । सोमदेवत इति । स सोमः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति । दीक्षायामिति । कस्मिन्नु दीक्षा प्रतिष्ठितेति सत्य इति तस्मादपि दीक्षितमाहुः सत्यं वदेति सत्ये ह्येव दीक्षा प्रतिष्ठितेति कस्मिन्नु सत्यं प्रतिष्ठितमिति हृदय इति होवाच हृदयेन हि सत्यं जानाति हृदये ह्येव सत्यं प्रतिष्ठितं भवतीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ २३॥ शाकल्य ने पूछाः इस उत्तर दिशामें तुम किस देवतावाले हो ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'सोम देवता हूँ। शाकल्य ने पूछाः 'वह सोम किसमें प्रतिष्ठित है ?" याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'दीक्षामें । शाकल्य ने पूछाः 'दीक्षा किसमें प्रतिष्ठित है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'सत्यमें, इसीसे दीक्षित पुरुषसे कहते हैं कि सत्य बोलो, क्योंकि सत्यमें ही दीक्षा प्रतिष्ठित है। शाकल्य ने पूछाः 'सत्य किसमें प्रतिष्ठित है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'हृदयमें। क्योंकि पुरुष हृदयसे ही सत्यको जानता है, अतः हृदयमें ही सत्य प्रतिष्ठित है। शाकल्य ने कहा: 'हे याज्ञवल्क्य! यह बात ऐसी ही है ॥२३॥ किन्देवतोऽस्यां ध्रुवायां दिश्यसीत्यग्निदेवत इति । सोऽग्निः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति वाचीति । कस्मिन्नु वाक्प्रतिष्ठितेति हृदय इति । कस्मिन्नु हृदयं प्रतिष्ठितमिति शाकल्य ने पूछाः 'इस ध्रुवा दिशामें तुम कौन देवतावाले हो ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'अग्नि देवता हूँ।' शाकल्य ने पूछाः 'वह अग्नि किसमें प्रतिष्ठित है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः वाणी में। शाकल्य ने पूछाः वाणी किसमें प्रतिष्ठित है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'हृदयमें। शाकल्य ने पूछाः 'हृदय किसमें प्रतिष्ठित है ? ॥ २४ ॥ अहल्लिकेति होवाच याज्ञवल्क्यो यत्रैतदन्यत्रास्मन्मन्यासै । यद्ध्येतदन्यत्रास्मत्स्याच्छानो वैनद‌द्युर्वयासि वैनद्विमथ्नीरन्निति ॥ २५॥ याज्ञवल्क्य ने कहाः अहल्लिक ! (प्रेत!)' जिस समय तुम इसे हमसे अलग मानते हो, उस समय यदि यह हमसे अलग हो जाय तो इसे कुत्ते खा जाय, अथवा इसे पक्षी चोंच मारकर मथ डालें ॥ २५॥ कस्मिन्नु त्वं चात्मा च प्रतिष्ठितौ स्थ इति । प्राण इति । कस्मिन्नु प्राणः प्रतिष्ठित इत्यपान इति । कस्मिन्वपानः प्रतिष्ठित इति । व्यान इति । कस्मिन्नु व्यानः प्रतिष्ठित इत्युदान इति । कस्मिन्नूदानः प्रतिष्ठित इति । समान इति । स एष नेति नेत्यात्माऽ गृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽसङ्गो न हि सज्यतेऽसितो न व्यथते न रिष्यत्येतान्यष्टावायतनान्यष्टौ लोका अष्टौ देवा अष्टौ पुरुषाः । स यस्तान्पुरुषान्निरुह्य प्रत्युह्यात्यक्रामत् तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि। तं चेन्मे न विवक्ष्यसि मूर्धा ते विपतिष्यतीति । त ह न मेने शाकल्यस्तस्य ह मूर्धा विपपात अपि हास्य परिमोषिणोऽस्थीन्यपजहुरन्यन्मन्यमानाः ॥ २६॥ शाकल्य ने पूछाः 'तुम (शरीर) और आत्मा (हृदय) किसमें प्रतिष्ठित हो ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः 'प्राण में ।' शाकल्य ने पूछाः प्राण किसमें प्रतिष्ठित है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः अपान में। शाकल्य ने पूछा: अपान किसमें प्रतिष्ठित है ? ा याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः व्यान में । शाकल्य ने पूछाः व्यान किसमें प्रतिष्ठित है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया: 'उदान में। शाकल्य ने पूछा: 'उदान किसमें प्रतिष्ठित है याज्ञवल्क्य ने उत्तर दियाः समान मे । जिसका 'नेति-नेति' कहकर वर्णन किया गया है, वह आत्मा अगृह्य है-वह ग्रहण नहीं किया जा सकता, अशीर्ण है - वह शीर्ण (नष्ट) नहीं होता, असंग है-वह संयुक्त नहीं होता, असित है-वह व्यथित और हिसित नहीं होता । ये आठ पृथ्वी आदि शरीर हैं, आठ अग्नि आदि लोक हैं, आठ अमृत इत्यादि देव हैं और आठ पुरुष हैं। वह जो उन पुरुषों को निश्चय पूर्वक जानकर उनका अपने हृदय में उपसंहार करके औषधिक धर्म का अतिक्रमण किये हुए है, उस औपनिषद पुरुषको मैं पूछता हूँ: यदि तुम मुझे उसे स्पष्टतया न बतला सकोगे तो तुम्हारा मस्तक गिर जायगा। किंतु शाकल्य उसे नहीं जानता था, इसलिये उसका मस्तक गिर गया। यही नहीं, अपितु चोर उसकी हड्डियों को कुछ और समझकर चुरा ले गये ॥२६॥ अथ होवाच ब्राह्मणा भगवन्तो यो वः कामयते स मा पृच्छतु सर्वे वा मा पृच्छत यो वः कामयते तं वः पृच्छामि सर्वान्वा वः पृच्छामीति । ते ह ब्राह्मणा न दधृषुः ॥ २७॥ फिर याज्ञवल्क्य ने कहाः पूज्य ब्राह्मणगण! आपमेंसे जिसकी इच्छा हो वह मुझसे प्रश्न करे, अथवा आप सभी मुझसे प्रश्न करें अथवा इसी प्रकार आप में से जिसकी इच्छा हो, उससे मैं प्रश्न करता हूँ या आप सभी से मैं प्रश्न करता हूँ। किंतु उन ब्राह्मणों का साहस नहीं हुआ ॥२७॥ याज्ञवल्क्य के प्रश्न तान्हैतैः श्लोकैः पप्रच्छ यथा वृक्षो वनस्पतिस्तथैव पुरुषोऽमृषा तस्य लोमानि पर्णानि त्वगस्योत्पाटिका बहिः ॥ १॥ याज्ञवल्क्य ने उन ब्राह्मणों से इन श्लोकों द्वारा प्रश्न किया- वनस्पति, विशालता आदि गुणों से युक्त वृक्ष जैसा अर्थात जिन धर्मो से युक्त होता है, पुरुष, जीव का शरीर भी वैसा ही, उन्हीं धर्मों से सम्पन्न होता है, यह बिल्कुल सत्य है। वृक्ष के पत्ते होते हैं और उस पुरुष के शरीर में पत्तों की जगह रोएँ होते हैं; उसके शरीर में जो त्वचा है, उसकी समता में इस वृक्ष के बाहरी भाग में छाल होती है ॥१॥ त्वच एवास्य रुधिरं प्रस्यन्दि त्वच उत्पटः तस्मात्तदतृण्णात्प्रेति रसो वृक्षादिवाऽऽहतात् ॥ २॥ इस पुरुष की त्वचा से ही रक्त चूता है और वृक्ष की भी त्वचा (छाल) से ही गोंद निकलता है। वृक्ष और पुरुष की इस समानता के कारण ही जिस प्रकार आघात लगने पर वृक्ष से रस निकलता है, उसी प्रकार चोट खाये हुए पुरुष के शरीर से रक्त प्रवाहित होता है ॥ २ ॥ मासान्यस्य शकराणि किनाटस्नाव तत्स्थिरम् । अस्थीन्यन्तरतो दारूणि मज्जा मज्जोपमा कृता ॥ ३॥ पुरुष के शरीर में मांस होते हैं और वृक्ष की छाल के अन्दर नर्म छिलके (छाल का भीतरी अंश), पुरुष के स्नायु-जाल होते हैं और वृक्ष में रेशे। वह रेशे स्नायु की ही भाँति स्थिर होते हैं। पुरुष के स्नायु- जाल के भीतर जैसे हड्डियाँ होती हैं, वैसे ही वृक्ष में रेशों के भीतर काष्ठ हैं तथा मज्जा तो दोनों में मज्जा के ही समान निश्चित की गयी है ॥ ३ ॥ यवृक्षो वृक्णो रोहति मूलान्नवतरः पुनः मर्त्यः स्विन्मृत्युना वृक्णः कस्मान्मूलात्प्ररोहति ॥ ४॥ किंतु यदि वृक्षको काट दिया जाता है तो वह अपने मूल से दोबाराऔर भी नवीन होकर अंकुरित हो जाता है। इसी प्रकार यदि मनुष्य को मृत्यु काट डाले तो वह किस मूल से उत्पन्न होगा? ॥ ४ ॥ रेतस इति मा वोचत जीवतस्तत्प्रजायते धानारुह इव वै वृक्षोऽज्ञ्जसा प्रेत्य सम्भवः ॥ ५॥ वह वीर्य से उत्पन्न होता है ऐसा तो मत कहो, क्योंकि वीर्य तो जीवित पुरुष से ही उत्पन्न होता है मृत पुरुषसे नहीं। वृक्ष भी केवल तने से ही नहीं उत्पन्न होता, बीज से भी उत्पन्न होता है, किंतु बीज से उत्पन्न होनेवाला वृक्ष भी कट जाने के पश्चात् पुनः अंकुरित होकर उत्पन्न होता है, यह प्रत्यक्ष देखा गया है ॥ ५ ॥ यत्समूलमावृहेयुर्वृक्षं न पुनराभवेत् । मर्त्यःस्विन्मृत्युना वृक्णः कस्मान्मूलात्प्ररोहति ॥ ६॥ यदि वृक्ष को मूलसहित उखाड़ दिया जाय तो वह फिर उत्पन्न नहीं होगा; इसी प्रकार यदि मनुष्य का मृत्यु छेदन कर दे तो वह किस मूल से उत्पन्न होता है ? ॥ ६ ॥ जात एव न जायते को न्वेनं जनयेत्पुनः विज्ञानमानन्दं ब्रह्म रातिर्दातुः परायणं तिष्ठमानस्य तद्विद इति ॥ ७॥ ॥ २८ ॥ यदि ऐसा मानो कि पुरुष तो उत्पन्न हो ही गया है, अतः फिर उत्पन्न नहीं होता तो यह ठीक नहीं; क्योंकि वह मरकर पुनः उत्पन्न होता ही है ऐसी दशामें मृत्युके पश्चात् इसे पुनः कौन उत्पन्न करेगा ? यह प्रश्न है; ब्राह्मणों ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया, इसलिये श्रुति स्वयं ही उसका निर्देश करती है- विज्ञान आनन्द ब्रह्म है, वह धनदाता, कर्म करनेवाले यजमान की परम गति है और ब्रह्मनिष्ठ ब्रह्मवेत्ता का भी परम आश्रय है ॥ ७ ॥ ॥ २८ ॥ ॥ इति नवमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ नौवां ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ इति बृहदारण्यकोपनिषदि तृतीयोऽध्यायः ॥ ॥ बृहदारण्य उपनिषद का तीसरा अध्याय समाप्त ॥

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