ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ४१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ४१ ऋषि - कण्वो घौरः देवता- वरुणमित्र अर्यमण, ४-६ आदित्य । छंद- गायत्रीः यं रक्षन्ति प्रचेतसो वरुणो मित्रो अर्यमा । नू चित्स दभ्यते जनः ॥१॥ जिस याजक को, ज्ञान सम्पन्न वरुण, मित्र और अर्यमा आदि देवों का संरक्षण प्राप्त है, उसे कोई भी नहीं दबा सकता ॥१॥ यं बाहुतेव पिप्रति पान्ति मर्त्य रिषः । अरिष्टः सर्व एधते ॥२॥ अपने बाहुओं से विविध धनों को देते हुए वरुणादि देवगण जिस मनुष्य की रक्षा करते हैं, शत्रुओं से अहिंसित होता हुआ वह वृद्धि पाता है॥२॥ वि दुर्गा वि द्विषः पुरो घ्नन्ति राजान एषाम् । नयन्ति दुरिता तिरः ॥३॥ राजा के सदृश वरुणादि देवगण, शत्रुओं के नगरों और किलों को विशेष रूप से नष्ट करते हैं। वे याजको को दुःख के मूलभूत कारणों (पापों) से दूर ले जाते हैं॥३॥ सुगः पन्था अनृक्षर आदित्यास ऋतं यते । नात्रावखादो अस्ति वः ॥४॥ हे आदित्यो ! आप के यज्ञ में आने के मार्ग अतिसुगम और कण्ट्रकहीन हैं । इस यज्ञ में आपके लिए श्रेष्ठ हविष्यान्न समर्पित है॥४॥ यं यज्ञं नयथा नर आदित्या ऋजुना पथा । प्र वः स धीतये नशत् ॥५॥ हे आदित्यो ! जिस यज्ञ को आप सरल मार्ग से सम्पादित करते हैं, वह यज्ञ आपके ध्यान में विशेष रूप से रहता है। वह भला कैसे विस्मृत हो सकता है ? ॥५॥ स रत्नं मर्यो वसु विश्वं तोकमुत त्मना । अच्छा गच्छत्यस्तृतः ॥६॥ हे आदित्यो ! आपका याजक किसी से पराजित नहीं होता । वह धनादि रत्न और सन्तानों को प्राप्त करता हुआ प्रगति करता है॥६॥ कथा राधाम सखायः स्तोमं मित्रस्यार्यम्णः । महि प्सरो वरुणस्य ॥७॥ हे मित्रो ! मित्र, अर्यमा और वरुण देवों के महान् ऐश्वर्य साधनों का किस प्रकार वर्णन करे ? अर्थात् इनकी महिमा अपार है॥७॥ मा वो घ्नन्तं मा शपन्तं प्रति वोचे देवयन्तम् । सुम्नैरिद्व आ विवासे ॥८॥ हे देवो ! देवत्व प्राप्ति की कामना वाले साधकों को कोई कटुवचनों से और क्रोधयुक्त वचनों से प्रताड़ित न करने पाये । हम स्तुति वचनों द्वारा आपको प्रसन्न करते हैं ॥८॥ चतुरश्चिद्ददमानाद्विभीयादा निधातोः । न दुरुक्ताय स्पृहयेत् ॥९॥ जैसे जुआ खेलने में चार पाँसे गिरने तक हार-जीत का भय रहता है, उसी प्रकार बुरे वचन कहने से भी डरना चाहिये । उससे स्नेह नहीं करना चाहिए ॥९॥

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