ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त १५

ऋग्वेद-चतुर्थ मंडल सूक्त १५ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - अग्नि, ७-८ सोमकः साहदेव्य, ९-१० आश्विनौ । छंद - गायत्री अग्निर्होता नो अध्वरे वाजी सन्परि णीयते । देवो देवेषु यज्ञियः ॥१॥ यज्ञ के होता, देवों के भी देव तथा यजनीय अग्निदेव यज्ञ मण्डप में द्रुतगामी अश्वों के द्वारा लाये जाते हैं ॥१॥ परि त्रिविष्ट्यध्वरं यात्यग्नी रथीरिव । आ देवेषु प्रयो दधत् ॥२॥ वे देव देवों के निमित्त अन्न ग्रहण करके रथी के सदृश यज्ञस्थल के चारों ओर तीन बार चक्कर लगाते हैं ॥२॥ परि वाजपतिः कविरग्निर्हव्यान्यक्रमीत् । दधद्रत्नानि दाशुषे ॥३॥ सर्वज्ञ, अन्नों के स्वामी अग्निदेव याजकों द्वारा दिये गये हवनीय पदार्थों को स्वीकार करते हैं तथा परमार्थ-परायणों को धन-धान्य से परिपूर्ण बनाते हैं ॥३॥ अयं यः सृज्ञ्जये पुरो दैववाते समिध्यते । ह्युमाँ अमित्रदम्भनः ॥४॥ रिपुओं का संहार करने वाले, देदीप्यमान अग्निदेव को देवताओं के द्वारा इच्छित विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से सबसे आगे प्रदीप्त किया जाता है ॥४॥ अस्य घा वीर ईवतोऽग्नेरीशीत मर्त्यः । तिग्मजम्भस्य मीळ्हुषः ॥५॥ तेजस्वी ज्वालाओं वाले, इच्छित परिणाम वाले तथा गमन करने वाले अग्निदेव की भक्ति करने वाले व्यक्ति पराक्रमी बनकर समस्त धनों के स्वामी बनते हैं ॥५॥ तमर्वन्तं न सानसिमरुषं न दिवः शिशुम् । मर्मृज्यन्ते दिवेदिवे ॥६॥ द्रुतगामी अश्वों और द्युलोक पुत्र आदित्य के सदृश प्रकाशमान तथा सबके द्वारा प्रार्थनीय अग्निदेव की याजकगण नित्य प्रति परिचर्या करते हैं ॥६॥ बोधद्यन्मा हरिभ्यां कुमारः साहदेव्यः । अच्छा न हूत उदरम् ॥७॥ जब 'सहदेव' के पुत्र सोमक नामक राजा ने हमें अश्व प्रदान करने का विचार किया, तब हम भली प्रकार उनके समीप पहुँचे। वहाँ से सन्तुष्ट होकर लौटे ॥७॥ उत त्या यजता हरी कुमारात्साहदेव्यात् । प्रयता सद्य आ ददे ॥८॥ उन प्रशंसा के योग्य तथा प्रयत्नशील अश्वों को हमने सहदेव के पुत्र 'सोमक' से ग्रहण किया ॥८॥ एष वां देवावश्विना कुमारः साहदेव्यः । दीर्घायुरस्तु सोमकः ॥९॥ हे अश्विनीकुमारो ! आपके प्रीति पात्र 'सहदेव' पुत्र 'सोमक' दीर्घ आयुष्य वाले हों ॥९॥ तं युवं देवावश्विना कुमारं साहदेव्यम् । दीर्घायुषं कृणोतन ॥१०॥ हे अश्विनीकुमारो ! 'सहदेव' के पुत्र 'सोमक' को आप दोनों लम्बी आयु प्रदान करें ॥१०॥

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