Tripadvibhutipaha Narayana Upanishad Chapter 5 (त्रिपाद्विभूतिपहानारायणोपनिषत) पांचवां अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् ॥ ॥ पंचमोऽध्यायः ॥ ॥ पांचवां अध्याय ॥ अथ शिष्यो वदति गुरुं भगवन्तं नमस्कृत्य भगवन् सर्वात्मना नष्टाया अविद्यायाः पुनरुदयः कथम् । संसारसे तरने का उपाय और मोक्षमार्ग का निरूपण श्रीगुरुभगवान को नमस्कार करके फिर शिष्य पूछता है-भगवन्! सम्पूर्णतः नष्ट हुई अविद्या का फिर उदय कैसे होता है?' ॥ १॥ सत्यमेवेति गुरुरिति होवाच । प्रावृट्कालप्रारम्भे यथा मण्डूकादीनां प्रा रादुर्भावस्तद्वत्सर्वात्मना नष्टाया अविद्याया उन्मेषकाले पुनरुदयो भवति । यह सत्य है, ऐसा कहकर गुरु बोले- वर्षा ऋतुके प्रारम्भ में जैसे मेढ़क आदि का फिर से प्रादुर्भाव होता है, उसी प्रकार पूर्णतः नष्ट हुई अविद्याका उन्मेषकाल में (भगवान के पलक खोलने पर) फिर उदय हो जाता है ॥ २ ॥ भगवन् कथं जीवानामनादिसंसारभ्रमः । तन्निवृत्तिर्वा कथमिति । कथं मोक्षमार्गस्वरूपं च । मोक्षसाधनं कथमिति । को वा मोक्षोपायः । कीदृशं मोक्षस्वरूपम् । का वा सायुज्यमुक्तिः । एतत्सर्वं तत्त्वतः कथनीयमिति । शिष्य ने फिर पूछा- 'भगवन्! जीवों का अनादि संसाररूप भ्रम किस प्रकार है? और उसकी निवृत्ति कैसे होती है? मोक्ष के मार्ग का स्वरूप कैसा है? मोक्ष का साधन कैसा है? अथवा मोक्ष का उपाय क्या है? मोक्ष का स्वरूप कैसा है? सायुज्य-मुक्ति क्या है? यह सब तत्त्वतः वर्णन करें ॥३॥ अत्यादरपूर्वकमतिहर्षेण शिष्यं बहूकृत्य गुरुर्वदति श्रूयतां सावधानेन । कुत्सितानन्तजन्माभ्यस्तात्यन्तोत्कृष्ट- विविधविचित्रानन्तदुष्कर्मवासनाजालविशेषैर्देहात्मविवेको न जायते । तस्मादेव दृढतरदेहात्मभ्रमो भवति । अहमज्ञः किंचिज्ज्ञोऽहमहं जीवोऽहमत्यन्तदुःखाकारो। अहमनादिसंसारीति भ्रमवासनाबलात्संसार एव प्रवृत्तिस्तन्निवृत्त्युपायः कदापि न विद्यते । मिथ्याभूतान्स्वप्नतुल्यान्विषयभोगाननुभूय विविधानसंख्यानतिदुर्लभान्मनोरथाननवरतमाशास्यमानः अतृप्तः सदा परिधावति । विविधविचित्रस्थूलसूक्ष्मोत्कृष्ट- निकृष्टानन्तदेहान्परिगृह्य तत्तदेहविहितविविधविचित्राऽनेक- शुभाशुभप्रारब्धकर्माण्यनुभूय तत्तत्कर्मफल- वासनाजालवासितान्तःकरणानां पुनःपुनस्तत्तत्कर्मफल- विषयप्रवृत्तिरेव जायते । संसारनिवृत्तिमार्गप्रवृत्तिः कदापि न जायते । तस्मादनिष्टमेवेष्टमिव भाति । इष्टमेवाऽनिष्टमिव भात्यनादिसंसारविपरीतभ्रमात् । तस्मात्सर्वेषां जीवानामिष्टविषये बुद्धिः सुखबुद्धिर्दुःखबुद्धिश्च भवति । परमार्थतस्त्वबाधित- ब्रह्मसुखविषये प्रवृत्तिरेव न जायते । तत्स्वरूपज्ञानाभावात् । तत्किमिति न विद्यते । कथं बन्धः कथं मोक्ष इति विचाराभावाच्च । तत्कथमिति । अज्ञानप्राबल्यात् । कस्मादज्ञानप्राबल्यमिति । भक्तिज्ञानवैराग्यवासनाभावाच्च । तदभावः कथमिति । अत्यन्तान्तःकरणमलिनविशेषात् । अत्यन्त आदरपूर्वक, बड़े हर्ष से शिष्य की बहुत प्रशंसा करके गुरु कहते हैं- सावधान होकर सुनो! निन्दनीय, अनन्त जन्मों में बार-बार किये हुए अत्यन्त पुष्ट अनेक प्रकार के विचित्र अनन्त दुष्कर्मो के वासनासमूहों के कारण (जीव) को शरीर एवं आत्मा के पृथक्त्वका ज्ञान नहीं होता। इसी से 'देह ही आत्मा है' ऐसा अत्यन्त दृढ़ भ्रम हुआ रहता है। मैं अज्ञानी हूँ, मैं अल्पज्ञ हूँ, मैं जीव हूँ, मैं अनन्त दुःखों का निवास हूँ, मैं अनादि काल से जन्ममरण रूप संसार में पड़ा हुआ हूँ, इस प्रकार के भ्रम की वासना के कारण संसार में ही प्रवृत्ति (चेष्टा) होती है। इस (प्रवृत्ति) की निवृत्ति का उपाय कदापि नहीं होता। मिथ्यास्वरूप, स्वप्न के समान विषयभोगों का अनुभव करके, अनेक प्रकार के असंख्य अत्यन्त दुर्लभ मनोरथों की निरन्तर आशा करता हुआ अतृप्त (जीव) सदा दौड़ा करता है। अनेक प्रकार के विचित्र स्थूल-सूक्ष्म, उत्तम अधम अनन्त शरीरों को धारण करके उन-उन शरीरों में विहित (प्राप्त होनेयोग्य) विविध विचित्र, अनेक शुभ अशुभ प्रारब्ध कर्मों का भोग करके, उन-उन कर्मो के फल की वासना से वासित (लिप्त) अन्तःकरणवालों की बार-बार उन-उन कर्मो के फलरूप विषयों में ही प्रवृत्ति होती है। संसार की निवृत्ति के मार्ग में प्रवृत्ति (रुचि) भी नहीं उत्पन्न होती। इसलिये (उनको) अनिष्ट ही इष्ट (मङ्गलकारी) की भाँति जान पड़ता है। संसार वासनारूप विपरीत भ्रम से इष्ट (मङ्गलस्वरूप मोक्षमार्ग) अनिष्ट (अमङ्गलकारी) की भाँति जान पड़ता है। इसलिये सभी जीवों की इष्टविषय में सुखबुद्धि है तथा उसके न मिलने में दुःखबुद्धि है। वास्तव में अबाधित ब्रह्मसुख के लिये तो प्रवृत्ति ही उत्पन्न नहीं होती; क्योंकि उसके स्वरूप का ज्ञान जीवों को है नहीं। वह (ब्रह्मसुख) क्या है, यह जीव नहीं जानते; क्योंकि बन्धन कैसे होता है और मोक्ष कैसे होता है, इस विचार का ही (उनमें) अभाव है। जीवों की अवस्था इस प्रकार क्यों है? अज्ञान की प्रबलता से। अज्ञान की प्रबलता किस कारण से है?- भक्ति, ज्ञान, वैराग्यकी वासना न होनेसे। इस प्रकारकी वासनाको अभाव क्यों है?- अन्तःकरणकी अत्यन्त मलिनता के कारण ॥ ४॥ अतः संसारतरणोपायः कथमिति । देशिकस्तमेव कथयति । सकलवेदशास्त्रसिद्धान्तरहस्य- जन्माभ्यस्तात्यन्तोत्कृष्टसुकृतपरिपाकवशात्सद्भिः सङ्गो जायते । तस्माद्विधिनिषेधविवेको भवति । ततः सदाचारप्रवृत्तिर्जायते । सदाचारादखिलदुरितक्षयो भवति । तस्मादन्तःकरणमतिविमलं भवति । 'अतः ऐसी दशा में संसार से पार होने का उपाय क्या है?' गुरु यही बतलाते हैं-'अनेक जन्मों के किये हुए अत्यन्त श्रेष्ठ पुण्यों के फलोदय से सम्पूर्ण वेद-शास्त्र के सिद्धान्तों का रहस्यरूप सत्पुरुषों का संग प्राप्त होता है। उस (सत्संग) से विधि तथा निषेध का ज्ञान होता है। तब सदाचार में प्रवृत्ति होती है। सदाचार से सम्पूर्ण पापों का नाश हो जाता है। पापनाश से अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल हो जाता है' ॥५-६॥ ततः सद्‌गुरुकटाक्षमन्तःकरणमाकाङ्क्षति । तस्मात्सद्‌गुरुकटाक्षलेशविशेषेण सर्वसिद्धयः सिद्धयन्ति । सर्वबन्धाः प्रविनश्यन्ति । श्रेयोविघ्नाः सर्वे प्रलयं यान्ति । सर्वाणि श्रेयांसि स्वयमेवायान्ति । यथा जात्यन्धस्य रूपज्ञानं न विद्यते तथा गुरूपदेशेन विना कल्पकोटिभिस्तत्त्वज्ञानं न विद्यते । तस्मात्सद्‌गुरुकटाक्षलेशविशेषेणाचिरादेव तत्त्वज्ञानं भवति । तब निर्मल होने पर अन्तःकरण सद्‌गुरु का कटाक्ष (दयादृष्टि) चाहता है। सद्‌गुरु के कृपा-कटाक्ष के लेश से ही सब सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। सब बन्धन पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं। श्रेय के सभी विघ्न विनष्ट हो जाते हैं। सभी कल्याणकारी गुण स्वतः आ जाते हैं। जैसे जन्मान्ध को रूप का ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार गुरु के उपदेश बिना करोड़ों कल्पों में भी तत्त्वज्ञान नहीं होता। इसलिये सद्‌गुरु के कृपा-कटाक्ष के लेश से अविलम्ब ही तत्त्वज्ञान हो जाता है' ॥७॥ यदा सद्‌गुरुकटाक्षो भवति तदा भगवत्कथाश्रवणध्यानादौ श्रद्धा जायते । तस्माद्धृदयस्थितानादिदुर्वासनाग्रन्थिविनाशो भवति । ततो हृदयस्थिताः कामाः सर्वे विनश्यन्ति । तस्माद्धृदयपुण्डरीककर्णिकायां परमात्माविर्भावो भवति । ततो दृढतरा वैष्णवी भक्तिर्जायते । ततो वैराग्यमुदेति । वैराग्याद्बुद्धिविज्ञानाविर्भावो भवति । अभ्यासात्तज्ज्ञानं क्रमेण परिपक्कं भवति । जब सद्गुरु का कृपा-कटाक्ष होता है, तब भगवान की कथा सुनने एवं ध्यानादि करने में श्रद्धा उत्पन्न होती है। उस ध्यानादि से हृदय में स्थित दुर्वासना की अनादि ग्रन्थि का विनाश हो जाता है। तब हृदय में स्थित सम्पूर्ण कामनाएँ विनष्ट हो जाती हैं। इससे हृदय-कमल की कर्णिका में परमात्मा आविर्भूत होते हैं। 'इससे भगवान् विष्णु में अत्यन्त दृढ़ भक्ति उत्पन्न होती है। तब विषयों के प्रति वैराग्य उदय होता है। वैराग्य से बुद्धि में विज्ञान (तत्त्वज्ञान) का प्राकट्य होता है। अभ्यास के द्वारा वह ज्ञान क्रमशः परिपक्व होता है ॥ ८-९॥ पक्वविज्ञानाज्जीवन्मुक्तो भवति । ततः शुभाशुभकर्माणि सर्वाणि सवासनानि नश्यन्ति । ततो दृढतरशुद्धसात्त्विक- वासनया भक्त्यतिशयो भवति । भक्त्यतिशयेन नारायणः सर्वमयः सर्वावस्थासु विभाति । सर्वाणि जगन्ति नारायणमयानि प्रविभान्ति । नारायणव्यतिरिक्तं न किंचिदस्ति । इत्येतद्बुद्ध्वा विहरत्युपासकः सर्वत्र । परिपक्व विज्ञान से (पुरुष) जीवन्मुक्त हो जाता है। सभी शुभ एवं अशुभ कर्म वासनाओं के साथ नष्ट हो जाते हैं। तब अत्यन्त दृढ़ शुद्ध सात्त्विक वासना द्वारा अतिशय भक्ति होती है। अतिशय भक्ति से सर्वमय नारायण सभी अवस्थाओं में प्रकाशित होते हैं। समस्त संसार नारायणमय प्रतीत होता है। नारायण से भिन्न कुछ नहीं है, इस बुद्धि से उपासक सर्वत्र विहार करता है' ॥ १० ॥ निरन्तरसमाधिपरम्पराभिर्जगदीश्वराकाराः सर्वत्र सर्वावस्थासु प्रविभान्ति । अस्य महापुरुषस्य क्वचित्क्वचिदीश्वरसाक्षात्कारो भवति । इस प्रकार निरन्तर भाव समाधि की परम्परा से सभी जगह, सभी अवस्थाओं में जगदीश्वर का रूप ही प्रतीत होता है। ऐसे महापुरुष को कभी-कभी ईश्वर-साक्षात्कार भी होता है' ॥ ११ ॥ अस्य देहत्यागेच्छा यदा भवति तदा वैकुण्ठपार्षदाः सर्वे समायान्ति । ततो भगवद्ध्यानपूर्वकं हृदयकमले व्यवस्थितमात्मानं संचित्य सम्यगुपचारैरभ्यर्च्य हंसमन्त्रमुच्चरन्त्सर्वाणि द्वाराणि संयम्य सम्यङ्गनो निरुध्य चोर्ध्वगेन वायुना सह प्रणवेन प्रणवानुसन्धानपूर्वकं शनैः शनैराब्रह्मरन्ध्राद्विनिर्गत्य सोऽहमिति मन्त्रेण द्वादशान्तस्थितज्ञानात्मानमेकीकृत्य पञ्चोपचारैरभ्यर्च्य पुनः सोऽहमिति मन्त्रेण षोडशान्तस्थितज्ञानात्मानमेकीकृत्य सम्यगुपचारैरभ्यर्च्य प्राकृतपूर्वदेहं परित्यज्य पुनः कल्पितमन्त्रमयशुद्धब्रह्मतेजोमयनिरतिशयानन्दमय- महाविष्णूसारूप्यविग्रहं परिगृह्य सूर्यमण्डलान्तर्गतानन्त- दिव्यचरणारविन्दाङ्‌गुष्ठनिर्गतनिरतिशयानन्दमयापरनदी- प्रवाहमाकृष्य भावनयात्र स्नात्वा वस्त्राभरणाद्युपचारैरात्मपूजां विधाय साक्षान्नारायणो भूत्वा ततो गुरुनमस्कारपूर्वकं प्रणवगरुडं ध्या यात्वा ध्यानेनाविर्भूतमहाप्रणवगरुडं पञ्चोपचारैराराध्य गुर्वनुज्ञया प्रदक्षिणनमस्कारपूर्वकं प्रणवगरुडमारुह्य महाविष्णोः समस्तासाधारणचिह्नचिह्नितो महाविष्णोः समस्तासाधारणदिव्यभूषणैर्भूषितः सुदर्शनपुरुषं पुरस्कृत्य विष्वक्सेनपरिपालितो वैकुण्ठपार्षदैः परिवेष्टितो नभोमार्गमाविश्य पार्श्वद्वयस्थितानेकपुण्यलोकानतिक्रम्य तत्रत्यैः पुण्यपुरुषैरभिपूजितः सत्यलोकमाविश्य ब्रह्माणमभ्यर्च्य ब्रह्मणा च सत्यलोकवासिभिः सर्वैरभिपूजितः शैवमीशानकैवल्यमासाद्य शिवं ध्यात्वा शिवमभ्यर्च्य शिवगणैः सर्वैः शिवेन चाभिपूजितो महर्षिमण्डलान्यतिक्रम्य सूर्यसोममण्डले भित्त्वा कीलकनारायणं ध्यात्वा ध्रुवमण्डलस्य दर्शनं कृत्वा भगवन्तं ध्रुवमभिपूज्य ततः शिंशुमारचक्रं विभिद्य शिंशुमारप्रजापतिमभ्यर्च्य चक्रमध्यगतं सर्वाधारं सनातनं महाविष्णुमाराध्य तेन पूजितस्तत उपर्युपरि गत्वा परमानन्दं प्राप्य प्रकाशते । इस महापुरुष को जब शरीर छोड़ने की इच्छा होती है, तब भगवान् विष्णु के सभी पार्षद उसके पास आते हैं। तब भगवान का ध्यान करता हुआ हृदय-कमल में स्थित आत्मतत्त्व का अपने अन्तरात्मा के रूप में चिन्तन करके भली प्रकार, मानसिक उपचारों से उनकी अर्चा करता है। फिर हंस-मन्त्र 'सोऽहम्' का उच्चारण करता हुआ, सभी इन्द्रिय द्वारों का संयम करके, मन का भली प्रकार निरोध करता है और प्रणव के उच्चारण से प्रणव के अर्थ का अनुसंधान (विचार) करता हुआ ऊपरकी ओर गमन करनेवाले वायु (प्राण)-के साथ धीरे- धीरे ब्रह्मरन्ध्र से बाहर चला जाता है। वहाँ 'सोऽहम्' इस मन्त्र से बारह -दस इन्द्रियाँ और मन तथा बुद्धि के अन्त में उनके आधाररूप से स्थित परमात्मा चेतन-तत्त्व को एकत्र करके अर्थात् इन्द्रियों, मन एवं बुद्धि से चेतना आकर्षित करके पञ्चोपचार- जल, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य से मानसिक रूप में उस चेतन तत्त्व का पूजन करता है। फिर 'सोऽहम्' इस मन्त्र से षोडश तत्त्वों में स्थित ज्ञानात्मा को एकत्र करके भली प्रकार उपचारों से उसकी पूजा करता है। इस प्रकार पहले के प्राकृत शरीर का त्याग करके फिर कल्पनामय, मन्त्रमय, शुद्ध ब्रह्म- तेजोमय, निरतिशय आनन्दमय महाविष्णु के स्वरूप के समान स्वरूपवाले शरीर को धारण करता है और सूर्यमण्डल में स्थित भगवान अनन्त के दिव्य चरणारविन्द के अङ्गष्ठ से निकले हुए निरतिशय आनन्दमय देवनदी गङ्गाजी के प्रवाह का आकर्षण करके भावना के द्वारा इस देवगंगा-प्रवाह में स्नान करता है। तत्पश्चात् वस्त्र- आभरणादि सामग्रियों से अपनी पूजा-अलंकृति करके, साक्षात् नारायण स्वरूप होकर फिर गुरु को नमस्कार करके प्रणव स्वरूप गरुड का ध्यान करता है और ध्यान के द्वारा प्रकट महाप्रणवरूप गरुड की पञ्चोपचार से अर्चा करता है। इसके बाद वह गुरु की आज्ञा से प्रदक्षिणा एवं नमस्कार करके प्रणवरूप गरुड पर सवार होता है और महाविष्णु के समस्त असाधारण चिह्नों से चिह्नित होकर तथा उन्हीं के समस्त असाधारण दिव्य आभूषणों से भूषित होकर, सुदर्शन-पुरुष पुरुष विग्रहधारी सुदर्शनचक्र को आगे करके, विष्वक्सेन से रक्षित, भगवान के पार्षदों से घिरा हुआ आकाशमार्ग में प्रवेश करता है। मार्ग के दोनों पार्थो में स्थित अनेक पुण्यलोकों को पार करके, वहाँ रहनेवाले पुण्य-पुरुषों से पूजित होकर, सत्यलोक में प्रवेश करके ब्रह्माजी की पूजा करता है और ब्रह्मा तथा सत्यलोक के सभी वासियों द्वारा भली प्रकार पूजित होकर, भगवान् शङ्कर के ईशान कैवल्य (दिव्य कैलास) में जा पहुँचता है। वहाँ भगवान् शङ्कर का ध्यान करके, शिवजी की पूजा करके, सभी शिवगणों एवं शङ्करजी द्वारा भी पूजित होकर ग्रहमण्डल तथा सप्तर्षिमण्डल को पार करके सूर्यमण्डल एवं चन्द्रमण्डल का भेदन करता है और कीलक नारायण का ध्यान करके, ध्रुवमण्डल का दर्शन करके, भगवान् ध्रुव की पूजा करता है। फिर शिंशुमार-चक्र का भेदन करके, शिंशुमार प्रजापति की भली प्रकार अर्चा करता है और शिंशुमार चक्र के मध्य में स्थित सर्वाधार सनातन महाविष्णु की आराधना करके, उनके द्वारा पूजित होकर तब ऊपर जाकर परमानन्द को प्राप्त होता है' ॥ १२ ॥ ततो वैकुण्ठवासिनः सर्वे समायान्ति तान्त्सर्वान्सुसम्पूज्य तैः सर्वैरभिपूजितश्चोपर्युपरि गत्वा विरजानदीं प्राप्य तत्र स्नात्वा भगवद्ध्यानपूर्वकं पुनर्निमज्ज्य तत्रापञ्चीकृतभूतोत्थं सूक्ष्माङ्ग‌भोगसाधनं सूक्ष्मशरीरमुत्सृज्य केवलमन्त्रमयदिव्यतेजोमय- निरतिशयानन्दमयमहाविष्णुसारूप्यविग्रहं परिगृह्य तत उन्मज्यात्मपूजां विधाय प्रदक्षिणनमस्कारपूर्वकं ब्रह्ममयवैकुण्ठमाविश्य तत्रत्यान्विशेषेण सम्पूज्य तन्मध्ये च ब्रह्मानन्दमयानन्तप्राकारप्रासादतोरणविमानोपवनावलिभिज्वलच्छि खरैरुपलक्षितो निरुपमनित्यनिरवद्यनिरतिशयनिरवधिक ब्रह्मानन्दाचलो विराजते । 'तब सभी वैकुण्ठ निवासी उसके पास आते हैं। उन सबकी पूजा करके, उन सबसे पूजित होकर तथा और ऊपर जाकर विरजा नदी को प्राप्त करता है। वहाँ स्नान करके भगवान का ध्यान करते हुए फिर उसमें डुबकी लगाकर, वहाँ अपञ्चीकृत अर्थात मूलरूप, अमिश्रित पञ्च महाभूतों से बने सूक्ष्म अङ्गवाले भोग के साधनरूप सूक्ष्मशरीर को छोड़ देता है तथा मन्त्रमय, दिव्य तेजोमय, निरतिशय आनन्दमय महाविष्णु के स्वरूप के समान शरीर धारण करके, फिर जल से बाहर निकल आता है। वहाँ अपनी पूजा करके, प्रदक्षिणा एवं नमस्कार करते हुए ब्रह्ममय वैकुण्ठ में प्रवेश करके, वहाँ के निवासियों की भली प्रकार पूजा करके देखता है कि उस दिव्यधाम के मध्य में ब्रह्मानन्दमय अनन्त परकोटे, भवन, फाटक, विमान एवं उपवन-समूहों से तथा देदीप्यमान शिखरों से उपलक्षित निरुपम, नित्य, निर्दोष, निरतिशय, असीम ब्रह्मानन्द नामक पर्वत सुशोभित है ॥ १३॥ तदुपरि ज्वलति निरतिशयानन्ददिव्यतेजोराशिः । तदभ्यन्तरसंस्थाने शुद्धबोधानन्दलक्षणं विभाति । तदन्तराले चिन्मयवेदिका आनन्दवेदिकानन्दवनविभूषिता । तदभ्यन्तरे अमिततेजोराशिस्तदुपरिज्वलति । परममङ्गलासनं विराजते । तत्पद्मकर्णिकायां शुद्धशेषभोगासनं विराजते । तस्योपरि समासीनमानन्दपरिपालकमादिनारायणं ध्यात्वा तमीश्वरं विविधोपचारैराराध्य प्रदक्षिणनमस्कारान्विधाय तदनुज्ञातश्चोपर्युपरि गत्वा पञ्चवैकुण्ठानतीत्याण्डविराट्‌कैवल्यं प्राप्य तं समाराधोपासकः परमानन्दं प्रापेत्युपनिषत् ॥ 'उस पर्वत के ऊपर निरतिशयानन्दमय दिव्य तेजोराशि प्रज्वलित है। उस तेजोराशि के मध्य में शुद्ध ज्ञानमय आनन्दस्वरूप प्रकाशित है। उसके मध्य में चिन्मय वेदी है। वह वेदी आनन्दमय एवं आनन्दवनसे भूषित है। उसके मध्य में उसके ऊपर अमित तेजोराशि प्रज्वलित है। उस तेजोराशि में परममङ्गलमय आसन सुशोभित है। उस भद्रासन पद्म की कर्णिकापर शुद्ध शेषभगवान्को भोगासन सुशोभित है। उसके ऊपर भली प्रकार विराजमान आनन्दपरिपालक आदि-नारायणका ध्यान करके, उन सर्वेश्वर का विविध उपचारों से पूजन करता है। फिर प्रदक्षिणा तथा नमस्कार करके, उनकी आज्ञा लेकर और ऊपर जाकर पाँचों वैकुण्ठों को पार करता है तथा अण्डविराट के कैवल्य पद को प्राप्त करके, उनकी आराधना करके उपासक परमानन्द प्राप्त करता है' ॥ १४॥ ॥ इति पञ्चमोऽध्यायः ॥ ॥ पांचवां अध्याय समाप्त ॥

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