ऋग्वेद द्वितीय मंडल

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त १२ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः । देवता- इन्द्रः । छंद- त्रिष्टुप, यो जात एव प्रथमो मनस्वान्देवो देवान्क्रतुना पर्यभूषत् । यस्य शुष्माद्रोदसी अभ्यसेतां नृम्णस्य मह्ना स जनास इन्द्रः ॥१॥ हे मनुष्यो ! अपने पराक्रम के प्रभाव से ख्याति प्राप्त उन मनस्वी इन्द्रदेव ने उत्पन्न होते ही अपने श्रेष्ठ कर्मों से देवताओं को अलंकृत कर दिया था, जिसकी शक्ति से आकाश और पृथिवी दोनों लोक भयभीत हो गये ॥१॥ यः पृथिवीं व्यथमानामहंहद्यः पर्वतान्प्रकुपिताँ अरम्णात् । यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो द्यामस्तभ्नात्स जनास इन्द्रः ॥२॥ हे मनुष्यो ! उन इन्द्रदेव ने विशाल आकाश को मापा, द्युलोक को धारण किया तथा भूकम्पों से काँपती हुई पृथिवी को मजबूत आधार प्रदान करके आग उगलते पर्वतों को स्थिर किया ॥२॥ यो हत्वाहिमरिणात्सप्त सिन्धून्यो गा उदाजदपधा वलस्य । यो अश्मनोरन्तरग्निं जजान संवृक्समत्सु स जनास इन्द्रः ॥३॥ हे मनुष्यों ! जिसने वृत्र राक्षस को मारकर (जल वृष्टि कराकर) सात नदियों को प्रवाहित किया जिसने वल (राक्षस) द्वारा अपहृत की गयी गौओं को मुक्त कराया, जिसने पाषाणों के बीच अग्निदेव को उत्पन्न, किया, जिसने शत्रुओं का संहार किया, वे ही इन्द्रदेव हैं॥३॥ येनेमा विश्वा च्यवना कृतानि यो दासं वर्णमधरं गुहाकः । श्वघ्नीव यो जिगीवाँल्लक्षमाददर्यः पुष्टानि स जनास इन्द्रः ॥४॥ हे मनुष्यो ! जिसने समस्त गतिशील लोकों का निर्माण किया, जिसने दास वर्ण (अमानवीय आचरण वालों) को निम्न स्थान प्रदान किया; जिसने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया और जिसने व्याध द्वारा पशुओं के समान शत्रुओं की समृद्धि को अपने अधिकार में ले लिया, वे हीं इन्द्रदेव हैं॥४॥ यं स्मा पृच्छन्ति कुह सेति घोरमुतेमाहुर्नैषो अस्तीत्येनम् । सो अर्यः पुष्टीर्विज इवा मिनाति श्रदस्मै धत्त स जनास इन्द्रः ॥५॥ जिन इन्द्रदेव के बारे में लोग पूछा करते हैं कि वे कहाँ हैं ? उन इन्द्रदेव के सम्बन्ध में कुछ लोग कहते हैं। कि वे हैं ही नहीं। वे इन्द्रदेव उन्हें न मानने वाले शत्रुओं की पोषणकारी सम्पत्ति को वीरता के साथ नष्ट कर देते हैं। हे मनुष्यो! इन इन्द्रदेव के प्रति श्रद्धा व्यक्त करो, ये सबसे महान् देव इन्द्र ही हैं॥५॥ यो रध्रस्य चोदिता यः कृशस्य यो ब्रह्मणो नाधमानस्य कीरेः । युक्तग्राव्णो योऽविता सुशिप्रः सुतसोमस्य स जनास इन्द्रः ॥६॥ हे मनुष्यो ! जो दरिद्रों, ज्ञानियों तथा स्तुति करने वालों को धन प्रदान करते हैं, सोमरस निकालने के लिए पत्थर रखकर (कूटने के लिए) जो यजमान तैयार है, उस यजमान की जो रक्षा करते हैं, वे ही इन्द्रदेव हैं॥६॥ यस्याश्वासः प्रदिशि यस्य गावो यस्य ग्रामा यस्य विश्वे रथासः । यः सूर्य य उषसं जजान यो अपां नेता स जनास इन्द्रः ॥७॥ हे मनुष्यो ! जिनके अधीन समस्त ग्राम, गौएँ, घोड़े तथा रथ हैं, जिनने सूर्य तथा उषा को उत्पन्न किया, जो समस्त प्रकृति के संचालक हैं, वे ही इन्द्रदेव हैं ॥७॥ यं क्रन्दसी संयती विह्वयेते परेऽवर उभया अमित्राः । समानं चिद्रथमातस्थिवांसा नाना हवेते स जनास इन्द्रः ॥८॥ हे मनुष्यो ! परस्पर साथ-साथ चलने वाले द्युलोक तथा पृथिवी लोक जिन्हें सहायता के लिए बुलाते हैं, महान् तथा निम्न स्तरीय शत्रु भी जिन्हें युद्ध में मदद के लिए बुलाते हैं, एकरथ पर आरूढ़ दो वीर साथ-साथ जिन्हें मदद के लिए बुलाते हैं, वे ही इन्द्रदेव हैं॥८॥ यस्मान्न ऋते विजयन्ते जनासो यं युध्यमाना अवसे हवन्ते । यो विश्वस्य प्रतिमानं बभूव यो अच्युतच्युत्स जनास इन्द्रः ॥९॥ हे मनुष्यो ! जिनकी सहायता के बिना शूरवीर युद्ध में विजयी नहीं होते, युद्धरत वीर पुरुष अपने संरक्षण के लिए जिन्हें पुकारते हैं, जो समस्त संसार को यथा विधि जानते हुए अपरिमित शक्तिवाले शत्रुओं का संहार कर देते हैं, वे ही इन्द्रदेव हैं॥९॥ यः शश्वतो मोनो दधानानमन्यमानाञ्छर्वा जघान । यः शर्धते नानुददाति शृध्यां यो दस्योर्हन्ता स जनास इन्द्रः ॥१०॥ हे मनुष्यो ! जिनने अपने वज्र से महान् पापी शत्रुओं को हनन किया, जो अहंकारी मनुष्यों का गर्व नष्ट कर देते हैं, जो दूसरे के पदार्थों का हरण करने वाले दुष्टों के नाशक हैं, वे ही इन्द्रदेव हैं॥१०॥ यः शम्बरं पर्वतेषु क्षियन्तं चत्वारिंश्यां शरद्यन्वविन्दत् । ओजायमानं यो अहिं जघान दानं शयानं स जनास इन्द्रः ॥११॥ हे मनुष्यो ! जिनने चालीसवें वर्ष में पर्वत में छिपे हुए शंबर राक्षस को ढूंढ़ निकाला, जिनने जल को रोककर रखने वाले सोये हुए असुर वृत्र को मारा, वे ही इन्द्रदेव हैं॥११॥ यः सप्तरश्मिवृषभस्तुविष्मानवासृजत्सर्तवे सप्त सिन्धून् । यो रौहिणमस्फुरद्वज्रबाहुर्धामारोहन्तं स जनास इन्द्रः ॥१२॥ हे मनुष्यो ! जिनने सात नदियों को सूर्य की सात किरणों की भाँति बलशाली और ओजस्वी रूप में प्रभावित किया, जिनने द्युलोक की ओर चढ़ती रोहिणी को अपने हाथ के वज्र से रोक लिया, वे ही इन्द्रदेव हैं ॥१२॥ द्यावा चिदस्मै पृथिवी नमेते शुष्माच्चिदस्य पर्वता भयन्ते । यः सोमपा निचितो वज्रबाहुर्यो वज्रहस्तः स जनास इन्द्रः ॥१३॥ हे मनुष्यो ! जिनके प्रति द्युलोक तथा पृथिवी लोक नमनशील हैं, जिनके बल से पर्वत भयभीत रहते हैं, जो सोमपान करने वाले, वज्र के समान भुजाओं वाले तथा शरीर से महान् बलशाली हैं, वे ही इन्द्रदेव हैं॥१३॥ यः सुन्वन्तमवति यः पचन्तं यः शंसन्तं यः शशमानमूती । यस्य ब्रह्म वर्धनं यस्य सोमो यस्येदं राधः स जनास इन्द्रः ॥१४॥ हे मनुष्यो ! जो सोमरस निकालने वाले, शोधित करने वाले, स्तोत्रों के द्वारा स्तुतियाँ करने वाले को, अपने रक्षा साधनों से संरक्षण प्रदान करते हैं, जिनके स्तोत्र एवं सोम हमारे ऐश्वर्य को बढ़ाने वाला है, वे ही इन्द्रदेव हैं॥१४॥ यः सुन्वते पचते दुध आ चिद्वाजं दर्दर्षि स किलासि सत्यः । वयं त इन्द्र विश्वह प्रियासः सुवीरासो विदथमा वदेम ॥१५॥ जो सोमयज्ञ करने वाले तथा सोमरस को शोधित करने वाले याजक को धन प्रदान करते हैं, वे निश्चित रूप से सत्यरूप इन्द्रदेव हैं। हे इन्द्रदेव ! हम सन्तति युक्त प्रियजनों के साथ सदैव आपका यशोगान करें ॥१५॥

Recommendations