ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ३१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ३१ ऋषि - हिरण्यस्तूप अंगीरसः देवता- अग्नि । छंद-जगती, ८, १६, १८ त्रिष्टुप त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरा ऋषिर्देवो देवानामभवः शिवः सखा । तव व्रते कवयो विद्मनापसोऽजायन्त मरुतो भ्राजदृष्टयः ॥१॥ हे अग्निदेव ! आप सर्वप्रथम अंगिरा ऋषि के रूप में प्रकट हुए, तदनन्तर सर्वद्रष्टा, दिव्यतायुक्त, कल्याणकारी और देवों के सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में प्रतिष्ठित हुए। आप के व्रतानुशासन से मरुद्गण क्रान्तदश कर्मों के ज्ञाता और श्रेष्ठ तेज आयुधों से युक्त हुए हैं॥१॥ त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरस्तमः कविर्देवानां परि भूषसि व्रतम् । विभुर्विश्वस्मै भुवनाय मेधिरो द्विमाता शयुः कतिधा चिदायवे ॥२॥ हे अग्निदेव ! आप अंगिराओं में आद्य और शिरोमणि हैं। आप देवताओं के नियमों को सुशोभित करते हैं। आप संसार में व्याप्त तथा दो माताओं वाले दो अरणियों से समुद्भूत होने से बुद्धिमान् हैं । आप मनुष्यों के हितार्थ सर्वत्र विद्यमान रहते हैं॥२॥ त्वमग्ने प्रथमो मातरिश्वन आविर्भव सुक्रतूया विवस्वते । अरेजेतां रोदसी होतृवूर्येऽसघ्नोर्भारमयजो महो वसो ॥३॥ हे अग्निदेव! आप ज्योतिर्मय सूर्यदेव के पूर्व और वायु के भी पूर्व आविर्भूत हुए। आपके बल से आकाश और पृथ्वी काँप गये । होता रूप में वरण किये जाने पर आपने यज्ञ के कार्य का सम्पादन किया । देवों का यजनकार्य पूर्ण करने के लिए आप यज्ञ वेदी पर स्थापित हुए ॥३॥ त्वमग्ने मनवे द्यामवाशयः पुरूरवसे सुकृते सुकृत्तरः । श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः ॥४॥ हे अग्निदेव! आप अत्यन्त श्रेष्ठ कर्म वाले हैं। आपने मनु और सुकर्मा- पुरूरवा को स्वर्ग के आशय से अवगत कराया। जब आप मातृ-पितृ रूप दो काष्ठों के मंथन से उत्पन्न हुए, तो सूर्यदेव की तरह पूर्व से पश्चिम तक व्याप्त हो गये ॥४॥ त्वमग्ने वृषभः पुष्टिवर्धन उद्यतस्रुचे भवसि श्रवाय्यः । य आहुतिं परि वेदा वषट्कृतिमेकायुरग्रे विश आविवाससि ॥५॥ हे अग्निदेव! आप बड़े बलिष्ठ और पुष्टिवर्धक हैं। हविदाता, सुवा हाथ में लिये स्तुति को उद्यत हैं, जो वषट्‌कार युक्त आहुति देता है, उस याजक को आप अग्रणी पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं॥५॥ त्वमग्ने वृजिनवर्तनिं नरं सक्मन्पिपर्षि विदथे विचर्षणे । यः शूरसाता परितक्म्ये धने दभ्रेभिश्चित्समृता हंसि भूयसः ॥६॥ हे विशिष्ट द्रष्टा अग्निदेव! आप पापकर्मयों का भी उद्धार करते हैं। बहुसंख्यक शत्रुओं का सब ओर से आक्रमण होने पर भी थोड़े से वीर पुरुषों को लेकर सब शत्रुओं को मार गिराते हैं॥६॥ त्वं तमग्ने अमृतत्व उत्तमे मर्तं दधासि श्रवसे दिवेदिवे । यस्तातृषाण उभयाय जन्मने मयः कृणोषि प्रय आ च सूरये ॥७॥ हे अग्निदेव! आप अपने अनुचर मनुष्यों को दिन-प्रतिदिन अमरपद का अधिकारी बनाते हैं, जिसे पाने की उत्कट अभिलाषा देवगण और मनुष्य दोनों ही करते रहते हैं। वीर पुरुषों को अन्न और धन द्वारा सुखी बनाते हैं॥७॥ त्वं नो अग्ने सनये धनानां यशसं कारुं कृणुहि स्तवानः । ऋध्याम कर्मापसा नवेन देवैर्ध्यावापृथिवी प्रावतं नः ॥८॥ हे अग्निदेव! प्रशंसित होने वाले आप हमें धन प्राप्त करने की सामर्थ्य दें। हमें यशस्वी पुत्र प्रदान करें। नये उत्साह के साथ हम यज्ञादि कर्म करें । द्यावा, पृथिवी और देवगण हमारी सब प्रकार से रक्षा करें ॥८॥ त्वं नो अग्ने पित्रोरुपस्थ आ देवो देवेष्वनवद्य जागृविः । तनूकृद्बोधि प्रमतिश्च कारवे त्वं कल्याण वसु विश्वमोपिषे ॥९॥ हे निर्दोष अग्निदेव! सब देवों में चैतन्य रूप आप हमारे मातृ-पितृ रूप (उत्पन्न करने वाले हैं। आप ने हमें बोध प्राप्त करने की सामर्थ्य दी, कर्म को प्रेरित करने वाली बुद्धि विकसित की । हे कल्याणरूप अग्निदेव ! हमें आप सम्पूर्ण ऐश्वर्य भी प्रदान करें ॥९॥ त्वमग्ने प्रमतिस्त्वं पितासि नस्त्वं वयस्कृत्तव जामयो वयम् । सं त्वा रायः शतिनः सं सहस्रिणः सुवीरं यन्ति व्रतपामदाभ्य ॥१०॥ हे अग्निदेव ! आप विशिष्ट बुद्धि-सम्पन्न, हमारे पिता रूप, आयु प्रदाता और बन्धु रूप हैं। आप उत्तमवीर, अटलगुण-सम्पन्न, नियम-पालक और असंख्यों धनों से सम्पन्न हैं॥१०॥ त्वामग्ने प्रथममायुमायवे देवा अकृण्वन्नहुषस्य विश्पतिम् । इळामकृण्वन्मनुषस्य शासनीं पितुर्यत्पुत्रो ममकस्य जायते ॥११॥ हे अग्निदेव ! देवताओं ने सर्वप्रथम आपको मनुष्यों के हित के लिये राजा रूप में स्थापित किया। तत्पश्चात् जब हमारे (हिरण्यस्तूप श्रेष) पिता अंगिरा ऋषि ने आपको पुत्र रूप में आविर्भूत किया, तब देवताओं ने मनु की पुत्री इळा को शासन-अनुशासन (धर्मोपदेश) कत्र बनाया ॥११॥ त्वं नो अग्ने तव देव पायुभिर्मघोनो रक्ष तन्वश्च वन्द्य । त्राता तोकस्य तनये गवामस्यनिमेषं रक्षमाणस्तव व्रते ॥१२॥ हे अग्निदेव ! आप वन्दना के योग्य हैं। अपने रक्षण साधनों से धनयुक्त हमारी रक्षा करें । हमारी शारीरिक क्षमता को अपनी सामर्थ्य से पोषित करें । शीघ्रतापूर्वक संरक्षित करने वाले आप हमारे पुत्र- पौत्रादि और गवादि पशुओं के संरक्षक हों ॥१२॥ त्वमग्ने यज्यवे पायुरन्तरोऽनिषङ्गाय चतुरक्ष इध्यसे । यो रातहव्योऽवृकाय धायसे कीरेश्चिन्मन्त्रं मनसा वनोषि तम् ॥१३॥ हे अग्निदेव ! आप याजकों के पोषक हैं, जो सज्जन विदाता आपको श्रेष्ठ, पोषक हविष्यान्न देते हैं, आप उनकी सभी प्रकार से रक्षा करते हैं। आप साधकों (उपासकों) की स्तुति हृदय से स्वीकार करते हैं॥१३॥ त्वमग्न उरुशंसाय वाघते स्पाईं यद्रेक्णः परमं वनोषि तत् । आध्रस्य चित्प्रमतिरुच्यसे पिता प्र पाकं शास्सि प्र दिशो विदुष्टरः ॥१४॥ हे अग्निदेव ! आप स्तुति करने वाले ऋत्विजों को धन प्रदान करते हैं। आप दुर्बलों को पिता रूप में पोषण देने वाले और अज्ञानी जनों को विशिष्ट ज्ञान प्रदान करने वाले मेधावी हैं॥१४॥ त्वमग्ने प्रयतदक्षिणं नरं वर्मेव स्यूतं परि पासि विश्वतः । स्वादुक्षद्मा यो वसतौ स्योनकृज्जीवयाजं यजते सोपमा दिवः ॥१५॥ हे अग्निदेव ! आप पुरुषार्थी यजमानों की कवच के रूप में सुरक्षा करते हैं। जो अपने घर में मधुर हविष्यान्न देकर सुखप्रद यज्ञ करता है, वह घर स्वर्ग की उपमा के योग्य होता है॥१५॥ इमामग्ने शरणिं मीमृषो न इममध्वानं यमगाम दूरात् । आपिः पिता प्रमतिः सोम्यानां भृमिरस्पृषिकृन्मर्त्यानाम् ॥१६॥ हे अग्निदेव ! आप यज्ञ कर्म करते समय हुई हमारी भूलों को क्षमा करें, जो लोग यज्ञ मार्ग से भटक गये हैं, उन्हें भी क्षमा करें। आप सोमयाग करने वाले याजकों के बन्धु और पिता हैं। सद्बुद्धि प्रदान करने वाले और प्रष-कर्म के कुशल प्रणेता हैं॥१६॥ मनुष्वदग्ने अङ्गिरस्वदङ्गिरो ययातिवत्सदने पूर्ववच्छुचे । अच्छ याह्या वहा दैव्यं जनमा सादय बर्हिषि यक्षि च प्रियम् ॥१७॥ हे पवित्र अंगिरा अग्निदेव ! (अंगों में संव्याप्त अग्नि) आप मनु, अंगिरा (अषि), ययाति जैसे पुरुषों के साथ देवों को ले जाकर यज्ञ स्थल पर सुशोभित हों। उन्हें कुश के आसन पर प्रतिष्ठित करते हुए सम्मानित करें ॥१७। एतेनाग्ने ब्रह्मणा वावृधस्व शक्ती वा यत्ते चकृमा विदा वा । उत प्र णेष्यभि वस्यो अस्मान्त्सं नः सृज सुमत्या वाजवत्या ॥१८॥ हे अग्निदेव ! इन मंत्र रूप स्तुतियों से आप वृद्धि को प्राप्त करें। अपनी शक्ति या ज्ञान से हमने जो यजन किया है, उससे हमें ऐश्वर्य प्रदान करें । बल बढ़ाने वाले अन्नों के साथ शुभ मति से हमें सम्पन्न करें ॥१८॥

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