ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ३८

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त ३८ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - दधिक्रा, १ द्यावा पृथ्वी । छंद - त्रिष्टुप उतो हि वां दात्रा सन्ति पूर्वा या पूरुभ्यस्त्रसदस्युर्नितोशे । क्षेत्रासां ददथुरुर्वरासां घनं दस्युभ्यो अभिभूतिमुग्रम् ॥१॥ हे द्यावा-पृथिवि ! दान दाता त्रसदस्यु ने याजकों को जो सम्पत्ति प्रदान की, वह आपका ही वैभव है। आपने ही उन्हें जमीन जोतने वाले अश्व तथा जमीन को उर्वर बनाने वाले पुत्र प्रदान किये थे। आपने उन्हें (रिपुओं को) पराभूत करने वाले तीक्ष्ण हथियार प्रदान किये थे ॥१॥ उत वाजिनं पुरुनिष्षिध्वानं दधिक्रामु ददथुर्विश्वकृष्टिम् । ऋजिप्यं श्येनं पुषितप्सुमाशुं चकृत्यमर्यो नृपतिं न शूरम् ॥२॥ शक्तिशाली, अनेकों रिपुओं के संहारक, समस्त मनुष्यों के हितकारक, श्येन पक्षी के सदृश सरलगामी, ओजस्वी रूप वाले, महान् लोगों के द्वारा प्रशंसनीय, राजा के सदृश शूरवीर, द्रुत गति से गमन करने वाले दधिक्रा देवता (अश्वरूपी अग्नि) को ये द्यावा-पृथिवी धारण करते हैं ॥२॥ यं सीमनु प्रवतेव द्रवन्तं विश्वः पूरुर्मदति हर्षमाणः । प‌ड्भिर्गुध्यन्तं मेधयुं न शूरं रथतुरं वातमिव ध्रजन्तम् ॥३॥ समस्त मनुष्य बलिष्ठ होकर जिन दधिक्रादेव की प्रार्थना करते हैं, वे नीचे बहने वाले जल के समान गमनशील, युद्ध की कामना करने वाले, शूरवीर के समान पैर के द्वारा समस्त दिशाओं को लाँघने की कामना करने वाले तथा वायु के समान द्रुतगामी हैं ॥३॥ यः स्मारुन्धानो गध्या समत्सु सनुतरश्चरति गोषु गच्छन् । आविक्रेजीको विदथा निचिक्यत्तिरो अरतिं पर्याप आयोः ॥४॥ जो देव संग्राम में एकत्रित पदार्थों को अवरुद्ध करते हैं तथा महान् ऐश्वर्य से सम्पन्न होते हैं, जो समस्त दिशाओं में गमन करते हुए तीव्र गति से सब जगह व्याप्त होते हैं तथा अपने आयुधों को प्रकट करके संग्राम में विख्यात होते हैं, वे दधिक्रादेव हमारे रिपुओं को हमसे दूर करते हैं ॥४॥ उत स्मैनं वस्त्रमथिं न तायुमनु क्रोशन्ति क्षितयो भरेषु । नीचायमानं जसुरिं न श्येनं श्रवश्वाच्छा पशुमच्च यूथम् ॥५॥ जिस प्रकार वस्त्राभूषण चुराने वाले तस्कर को देखकर सभी चीत्कार करते हैं, उसी प्रकार युद्ध में दधिक्रादेव को देखकर रिपुगण चीत्कार करने लगते हैं। जिस प्रकार नीचे की ओर झपट्टा मारते हुए श्येन (बाज़ पक्षी) को देखकर पक्षीगण भाग जाते हैं, उसी प्रकार अन्न तथा पशु समूह की तरफ सीधे गमन करने वाले दधिक्रादेव को देखकर समस्त रिपुगण भागने लगते हैं ॥५॥ उत स्मासु प्रथमः सरिष्यन्नि वेवेति श्रेणिभी रथानाम् । स्रजं कृण्वानो जन्यो न शुभ्वा रेणुं रेरिहत्किरणं ददश्वान् ॥६॥ वे दधिक्रादेव, रिपु-सेनाओं के मध्य जाने की कामना से रथों की पंक्तियों से सम्पन्न हैं। जिस प्रकार महत्त्वाकांक्षी लोग अपने शरीर को मालाओं से अलंकृत करते हैं, उसी प्रकार मालाओं को पहनकर अत्यधिक मनोहर लगने वाले दधिक्रादेव, लगाम को दाँतों से खीचते हुए धूल-धूसरित हो जाते हैं ॥६॥ उत स्य वाजी सहुरिक्रतावा शुश्रूषमाणस्तन्वा समर्ये । तुरं यतीषु तुरयन्नृजिप्योऽधि भ्रुवोः किरते रेणुमृञ्जन् ॥७॥ वे बलशाली, संग्राम में रिपुओं का संहार करने वाले, अनुशासन पालने वाले, अपने को चाटकर शरीर की परिचर्या करने वाले, द्रुतगति से गमन करने वाली सैनाओं पर चढ़ाई करने वाले तथा ऋजु मार्ग से गमन करने वाले हैं। वे दधिक्रादेव पैरों से धूलि को उड़ाकरके अपनी भौहों के ऊपर फैलाते हैं ॥७॥ उत स्मास्य तन्यतोरिव द्योऋघायतो अभियुजो भयन्ते । यदा सहस्रमभि षीमयोधीदुर्वर्तुः स्मा भवति भीम ऋञ्जन् ॥८॥ तेजस्वी तथा ध्वनि करने वाले, वज्र के समान शत्रुओं की हिंसा करने वाले दधिक्रादेव से युद्ध की अभिलाषा करने वाले मनुष्य भयभीत होते हैं। जब वे चारों तरफ सहस्रों रिपुओं से लड़ते हैं, तब उत्तेजित होकर भयंकर तथा अजेय हो जाते हैं ॥८॥ उत स्मास्य पनयन्ति जना जूतिं कृष्टिप्रो अभिभूतिमाशोः । उतैनमाहुः समिथे वियन्तः परा दधिक्रा असरत्सहसैः ॥९॥ मनुष्यों की अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले तथा तीव्र वेग वाले दधिक्रादेव के, शौर्य व गति की मनुष्यगण प्रार्थना करते हैं। संग्राम में जाने वाले योद्धा इनके बारे में कहते हैं कि ये दधिक्रादेव सहस्रों रिपुओं को भी पराभूत करके आगे बढ़ जाते हैं ॥९॥ आ दधिक्राः शवसा पञ्च कृष्टीः सूर्य इव ज्योतिषापस्ततान । सहस्रसाः शतसा वाज्यर्वा पृणक्तु मध्वा समिमा वचांसि ॥१०॥ जिस प्रकार आदित्यगण अपने तेज के द्वारा आकाश को व्याप्त कर देते हैं, उसी प्रकार दधिक्रादेव अपने तेज के द्वारा पाँचों प्रकार के मनुष्यों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद) को व्याप्त कर देते हैं। शत तथा सहस्र प्रकार के ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाले बलशाली दधिक्रादेव, हमारी स्तुतियों को मधुरता (मधुर प्रतिफल) से संयुक्त करें ॥१०॥

Recommendations