ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १६६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १६६ ऋषि - अगस्त्यो मैत्र वारुणिः देवता- मरुत। छंद - जगती, १४-१५ त्रिष्टुप, तन्नु वोचाम रभसाय जन्मने पूर्वं महित्वं वृषभस्य केतवे । ऐधेव यामन्मरुतस्तुविष्वणो युधेव शक्रास्तविषाणि कर्तन ॥१॥ वर्षणशील मेघों को विभाजित करने वाले हे वीर मरुद्गणो ! हम आपके पुरातन महत्व का यशोगान करते हैं, हे गर्जनशील मरुतो ! योद्धाओं तथा धधकती हुई अग्नि के समान चढ़ाई करते हुए शत्रुओं का संहार करें ॥१॥ नित्यं न सूनुं मधु बिभ्रत उप क्रीळन्ति क्रीळा विदथेषु घृष्वयः । नक्षन्ति रुद्रा अवसा नमस्विनं न मर्धन्ति स्वतवसो हविष्कृतम् ॥२॥ युद्ध में शत्रुओं का संहार करने वाले, बालकों के समान मधुर क्रीड़ा करनेवाले रुद्र पुत्र-मरुद्गण, स्तोताओं की उसी तरह रक्षा करते हैं, जैसे पिता पुत्र की ये मरुद्गण हविदाता (याजक) को कष्ट नहीं होने देते ॥२॥ यस्मा ऊमासो अमृता अरासत रायस्पोषं च हविषा ददाशुषे । उक्षन्त्यस्मै मरुतो हिता इव पुरू रजांसि पयसा मयोभुवः ॥३॥ अविनाशी वीर मरुतों ने अपनी संरक्षण शक्ति से युक्त होकर, जिस हविदाता को धनसम्पदा से परिपुष्ट किया, उसके लिए कल्याणकारी मित्रों के समान सुखदायक होकर उपजाऊ भूमि को प्रचुर जल से सींचते हैं॥३॥ आ ये रजांसि तविषीभिरव्यत प्र व एवासः स्वयतासो अध्रजन् । भयन्ते विश्वा भुवनानि हर्म्या चित्रो वो यामः प्रयतास्वृष्टिषु ॥४॥ हे मरुद्गणो ! आप गतिशील वीर अपनी शक्तियों से सभी का संरक्षण करते हैं। अपने ही अनुशासन में रहने वाले आप जब तीव्र गति से दौड़ते हुए अपने शस्त्रों को चलाते हैं, तब सारे लोक, बड़े बड़े राजभवन कॉप उठते हैं। आपकी ये हलचलें वास्तव में आश्चर्यजनक हैं॥४॥ यत्त्वेषयामा नदयन्त पर्वतान्दिवो वा पृष्ठं नर्या अचुच्यवुः । विश्वो वो अज्मन्भयते वनस्पती रथीयन्तीव प्र जिहीत ओषधिः ॥५॥ हे मरुद्गणो ! तीव्रगति से हमला करने वाले जब आप पहाड़ों को अपनी शब्द ध्वनि से गुञ्जित करते हैं, तथा जनकल्याण के इच्छुक आप अन्तरिक्ष के पृष्ठ भाग से गुजरते हैं, तो उस समय आपकी इस चढ़ाई से सभी वृक्ष भयभीत हो जाते हैं और समस्त ओषधियाँ भी रथ पर आरूढ़ महिलाओं के समान विचलित हो जाती हैं॥५॥ यूयं न उग्रा मरुतः सुचेतुनारिष्टग्रामाः सुमतिं पिपर्तन । यत्रा वो दिद्युद्रदति क्रिविर्दती रिणाति पश्वः सुधितेव बर्हणा ॥६॥ हे मरुतो ! अपने सबल हाथों से तीक्ष्ण हथियारों को धारण किये हुए आप शत्रुसेना का संहार कर देते हैं, तथा शत्रुओं के हिंसक पशुओं का भी वध कर देते हैं। उस समय हे पराक्रमी वीरो ! आप अपनी श्रेष्ठ आन्तरिक भावनाओं से हमें श्रेष्ठ विचार-प्रेरणाएँ प्रदान करें तथा हमारे ग्रामों को न उजाड़े ॥६॥ प्र स्कम्भदेष्णा अनवभ्रराधसोऽलातृणासो विदथेषु सुष्टुताः । अर्चन्त्यर्क मदिरस्य पीतये विदुर्वीरस्य प्रथमानि पौंस्या ॥७॥ शत्रुओं के संहारक, आश्रयदाता, उत्तम प्रशंसनीय, वीर मरुद्गणों के ऐश्वर्य को कोई नहीं छीन सकता है। ये वीर मरुद्गण सोमरस का पान करने के लिए संग्रामों और यज्ञों में तेजस्वी देवताओं की पूजा करते हैं; क्योंकि उनमें वीरों की शक्तियों की यथोचित परख करने की क्षमता होती है॥७॥ शतभुजिभिस्तमभिहुतेरघात्पूर्भी रक्षता मरुतो यमावत । जनं यमुग्रास्तवसो विरप्शिनः पाथना शंसात्तनयस्य पुष्टिषु ॥८॥ हे पराक्रमी, बलिष्ठ और सामर्थ्यवान् वीर मरुतो ! आप जिन्हें विनाश, पापकृत्यों तथा परनिन्दा से बचाते हैं, उन्हें सैकड़ों उपभोग के साधन प्रदान करके अपना समर्थ संरक्षण देकर, अभेद्य नगरी में निवास योग्य बनाते हैं, ताकि वे अपनी सन्तानों का भली प्रकार से पालन- पोषण कर सकें ॥८॥ विश्वानि भद्रा मरुतो रथेषु वो मिथस्पृध्येव तविषाण्याहिता । अंसेष्वा वः प्रपथेषु खादयोऽक्षो वश्चक्रा समया वि वावृते ॥९॥ हे वीर मरुद्गणो ! आपके रथों में सभी कल्याणकारी वस्तुएँ स्थापित हैं। आपके कन्धों पर स्पर्धा योग्य शक्तिशाली आयुध हैं। लम्बे मार्गों के लिए पर्याप्त खाद्य सामग्री संगृहीत है। आपके रथ और चक्र समयानुकूल घूमते हैं॥९॥ भूरीणि भद्रा नर्येषु बाहुषु वक्षःसु रुक्मा रभसासो अज्ञ्जयः । अंसेष्वेताः पविषु क्षुरा अधि वयो न पक्षान्व्यनु श्रियो धिरे ॥१०॥ जनहितकारी इन वीर मरुतों की भुजाओं में यथेष्ट कल्याणकारी सामर्थ्य है। उनके वक्षस्थल एवं कन्धों पर विभिन्न वर्गों से युक्त सुदृढ़ रत्नाभूषण सुशोभित हैं। उनके वज्र तीक्ष्ण धार वाले हैं। पक्षियों के प धारण करने के समान ये वीर विविध विभूतियाँ धारण करते हैं॥१०॥ महान्तो मह्ना विभ्वो विभूतयो दूरेदृशो ये दिव्या इव स्तृभिः । मन्द्राः सुजिह्वाः स्वरितार आसभिः सम्मिश्ला इन्द्रे मरुतः परिष्टुभः ॥११॥ जो वीर मरुद्गण अपनी महत्ता से सामर्थ्यवान्, ऐश्वर्यसम्पन्न, आकाश के नक्षत्रों की भाँति देदीप्यमान, दूरदर्शी, उत्साही सुन्दर वाणी से मधुर गान करने वाले हैं, वे इन्द्रदेव के सहयोगी हैं। अतः हर प्रकार से प्रशंसनीय हैं॥११॥ तद्वः सुजाता मरुतो महित्वनं दीर्घ वो दात्रमदितेरिव व्रतम् । इन्द्रश्चन त्यजसा वि हुणाति तज्जनाय यस्मै सुकृते अराध्वम् ॥१२॥ हे उत्तम कुल में उत्पन्न वीर मरुद्गण! आपकी उदारता अदिति (भूमि) के समान ही महान् है। यह आपकी महानता वास्तव में प्रसिद्ध है । जिस पुण्यात्मा (सत्कर्मरत) मनुष्य को आप अपनी त्याग भावना से अनुदान प्रदान करते हैं, इन्द्रदेव भी उसे क्षीण नहीं करते ॥१२॥ तद्वो जामित्वं मरुतः परे युगे पुरू यच्छंसममृतास आवत । अया धिया मनवे श्रुष्टिमाव्या साकं नरो दंसनैरा चिकित्रिरे ॥१३॥ हे अमरवीर मरुतो ! आपके भ्रातृपन की ख्याति चतुर्दिक व्याप्त है । प्राचीन काल में जिन स्तोत्रों को सुनकर आप भलीप्रकार हमारा संरक्षण कर चुके हैं, उन्हीं स्तोत्रों के प्रभाव से पराक्रमी नेतृत्व प्रदान करने वाले आप, मनुष्य मात्र के कर्मों के अनुरूप उनके ऐश्वर्य की रक्षा करते हुए उनके दोषादि दूर हटाते हैं॥१३॥ येन दीर्घ मरुतः शूशवाम युष्माकेन परीणसा तुरासः । आ यत्ततनन्वृजने जनास एभिर्यज्ञेभिस्तदभीष्टिमश्याम् ॥१४॥ हे गतिशील वीर मरुद्गण! आपके जिस महान् ऐश्वर्य के सहयोग से हम विशाल दायित्वों का निर्वाह करते हैं और जिससे समरक्षेत्र की चारों दिशाओं में विजयी होते हैं, उन सभी सामथ्र्यों को हम इन यज्ञीय कम द्वारा प्राप्त करें ॥१४॥ एष वः स्तोमो मरुत इयं गीर्मान्दार्यस्य मान्यस्य कारोः । एषा यासीष्ट तन्वे वयां विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥१५॥ हे शूरवीर मरुद्गण ! महान् कवि द्वारा रचित यह आनन्दप्रद काव्य रचना आपकी प्रशंसा के निमित्त है। ये स्तुतियों आपकी कामनाओं की पूर्ति एवं शरीर बल बढ़ाने के निमित्त प्राप्त हों। इसी तरह आप भी हमें अन्न, बल और विजयश्री शीघ्रतापूर्वक प्रदान करें ॥१५॥

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