ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १८२

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १८२ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणिः देवता- इन्द्रःः। छंद - त्रिष्टुप अभूदिदं वयुनमो षु भूषता रथो वृषण्वान्मदता मनीषिणः । धियंजिन्वा धिष्ण्या विश्पलावसू दिवो नपाता सुकृते शुचिव्रता ॥१॥ हे मनस्वी ज्ञानियो ! हमें यह ज्ञात हुआ है कि अश्विनीकुमारों का सुदृढ़ रथ हमारे यज्ञस्थल के निकट आ गया है, उसे देखकर आप हर्षित हों और उसे भली-भाँति अलंकृत करें। वे दोनों पवित्र व्रतशील, द्युलोक के धारणकर्ता, विश्पला की कीर्ति को बढ़ाने वाले तथा सत्कर्म करने वालों को सदबुद्धि प्रदान करने वाले हैं॥१॥ इन्द्रतमा हि धिष्ण्या मरुत्तमा दस्रा दंसिष्ठा रथ्या रथीतमा । पूर्ण रथं वहेथे मध्व आचितं तेन दाश्वांसमुप याथो अश्विना ॥२॥ हे शत्रु संहारकर्ता अश्विनीकुमारो ! आप दोनों प्रशंसा के योग्य तथा इन्द्रदेव और मरुद्गणों के अति श्रेष्ठ गुणों को धारण करने वाले हैं। आप दोनों सत्कर्मों में सदैव संलग्न और रथियों में अति श्रेष्ठ रथी हैं। आप मधु (मधुरता) से परिपूर्ण रथ सहित यज्ञकर्ता के समीप पहुँचते हैं॥२॥ किमत्र दस्रा कृणुथः किमासाथे जनो यः कश्चिदहविर्महीयते । अति क्रमिष्टं जुरतं पणेरसुं ज्योतिर्विप्राय कृणुतं वचस्यवे ॥३॥ हे शत्रुनाशक अश्विनीकुमारो! आप यहाँ क्या कर रहे हैं? जो लोग हवि न देकर बड़े बन गये हैं, उन्हें छोड़कर आगे बढ़ें । कृपण और यज्ञहीन व्यक्तियों को नष्ट करें। स्तोता विप्नों (सत्कर्मरतों) को प्रकाश प्रदान करें ॥३॥ जम्भयतमभितो रायतः शुनो हतं मृधो विदथुस्तान्यश्विना । वाचंवाचं जरितू रत्निनीं कृतमुभा शंसं नासत्यावतं मम ॥४॥ हे सत्यनिष्ठ अश्विनीकुमारो ! आप कुत्तों के समान हिंसक अत्याचारियों को सभी ओर से विनष्ट करें। जो हमलावर हैं, उनका भी संहार करें; उनसे आप भली प्रकार परिचित हैं। आप दोनों म स्तोताओं की प्रत्येक स्तोत्रवाणी को धन सम्पदा से युक्त करें तथा हमारे प्रशंसनीय स्तोत्रों का संरक्षण करें ॥४॥ युवमेतं चक्रथुः सिन्धुषु प्लवमात्मन्वन्तं पक्षिणं तौग्याय कम् । येन देवत्रा मनसा निरूहथुः सुपप्तनी पेतथुः क्षोदसो महः ॥५॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों ने अपनी सामर्थ्य से चलने वाले, पक्षी के समान उड़ने वाली नौका को बनाया और कुशल चालक आप दोनों ने मन की गति के समान वेगशील उस नौका में ऊपरी आकाश मार्ग से यात्रा की तथा महासागर के बीच पहुँचकर तुम्र के पुत्र 'भुज्यु' की वहाँ रक्षा की ॥५॥ अवविद्धं तौग्यमप्स्वन्तरनारम्भणे तमसि प्रविद्धम् । चतस्रो नावो जठलस्य जुष्टा उदश्विभ्यामिषिताः पारयन्ति ॥६॥ समुद्र के बीच में आधार रहित अँधेरे जल स्थान में तुम्रपुत्र भुज्यु को मुक्त करने के लिये अश्विनीकुमारों द्वारा भेजी गई चार नौकाएँ समुद्र के बीच पहुँच गईं और उसे ऊपर उठाकर समुद्र के पार पहुँचा दिया ॥६॥ कः स्विवृक्षो निष्ठितो मध्ये अर्णसो यं तौग्यो नाधितः पर्यषस्वजत् । पर्णा मृगस्य पतरोरिवारभ उदश्विना ऊहथुः श्रोमताय कम् ॥७॥ जल (समुद्र) के मध्य कौन सा वृक्ष रहा होगा, जिसे देखकर तुम के पुत्र भुज्यु ने जिसका आश्रय लिया। जिस प्रकार गिरने वाले मृग को पंखों का आश्रय मिल जाय, उसी प्रकार अश्विनीकुमारों ने भुज्यु को ऊपर उठाया, इस कल्याणकारी कार्य से वे यशस्वी बने ॥७॥ तद्वां नरा नासत्यावनु ष्याद्यद्वां मानास उचथमवोचन् । अस्मादद्य सदसः सोम्यादा विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥८॥ हे सत्यनिष्ठ नेतृत्व प्रदान करने वाले अश्विनीकुमारो ! स्तोताओं ने जो आप दोनों के लिए स्तोत्रोच्चारण किये हैं, उनसे आप हर्षित हों। इस सोमयाग के यज्ञस्थल से हम अन्न, बल, ऐश्वर्य सम्पदा को प्राप्त करें ॥८॥

Recommendations