ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ५२

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ५२ ऋषिः श्यावाश्व आत्रेयः देवता–मरुतः । छंद अनुष्टुप, ६, १६-१७ पंक्ति प्र श्यावाश्व धृष्णुयार्चा मरुद्भिऋक्वभिः । ये अद्रोघमनुष्वधं श्रवो मदन्ति यज्ञियाः ॥१॥ हे श्यावाश्व ऋषे ! आप संघर्षक शक्ति-सम्पन्न, स्तुत्य मरुतों की प्रकृष्ट अर्चना करें। ये यज्ञ के योग्य मरुद्गण अहिंसक हविरूप अन्नों को धारण कर हर्षित होते हैं ॥१॥ ते हि स्थिरस्य शवसः सखायः सन्ति धृष्णुया । ते यामन्ना धृषद्विनस्त्मना पान्ति शश्वतः ॥२॥ वे स्थायी बलों के सहायक रूप हैं। वे शत्रुओं पर आक्रमण करने वाले हैं। वे भ्रमण करते हुए हमारे वीर पुत्रों को विजयशील सामर्थ्य देकर उन्हें परिरक्षित करते हैं ॥२॥ ते स्यन्द्रासो नोक्षणोऽति ष्कन्दन्ति शर्वरीः । मरुतामधा महो दिवि क्षमा च मन्महे ॥३॥ ये स्पन्दनयुक्त और वृष्टिकारक मरुद्गण रात्रि का अतिक्रमण करके आगे बढ़ते हैं। इसलिए अब हम मरुतों के आकाश और भूमि में व्याप्त तेजों की स्तुति करते हैं॥३॥ मरुत्सु वो दधीमहि स्तोमं यज्ञं च धृष्णुया । विश्वे ये मानुषा युगा पान्ति मर्त्य रिषः ॥४॥ आक्रामक सामर्थ्य से युक्त मरुतों के लिए हम स्तुति और यज्ञ के साधन हव्यादि अर्पित करते हैं। ये मरुद्गण मानव युगों में हिंसकों से, मरणशील मनुष्यों की रक्षा करते हैं ॥४॥ अर्हन्तो ये सुदानवो नरो असामिशवसः । प्र यज्ञं यज्ञियेभ्यो दिवो अर्चा मरुद्भयः ॥५॥ हे ऋत्विजो ! जो पूजनीय, उत्तम दानशील, असीम बल सम्पन्न, नेतृत्वकर्ता वीर हैं, उन यज्ञ योग्य और प्रकाशक मरुद्गणों के लिए यज्ञ के साधन हविष्यान्न अर्पित कर विशिष्ट अर्चना करें ॥५॥ आ रुक्मैरा युधा नर ऋष्वा ऋष्टीरसृक्षत । अन्वेनाँ अह विद्युतो मरुतो जज्झतीरिव भानुरर्त त्मना दिवः ॥६॥ दीप्तिमान्, अलंकारों से विभूषित, आयुधों से युक्त होकर महान् नेतृत्वकर्ता मरुद्गण विशेष शोभायमान होते हैं। ये अपने विशेष आयुधों द्वारा मेघों पर संघात करते हैं। विशेष शब्द करती हुई प्रवाहित नदियों के समान विद्युत्, मरुतों की अनुगामिनी होती है। दीप्तिमान् मरुद्गणों का तेज स्वयं ही निस्सृत होता है ॥६॥ ये वावृधन्त पार्थिवा य उरावन्तरिक्ष आ । वृजने वा नदीनां सधस्थे वा महो दिवः ॥७॥ पृथ्वी पर अवस्थित, विस्तीर्ण अन्तरिक्ष में अवस्थित, नदियों के प्रवाह में अवस्थित, संग्राम क्षेत्रों में और महान् द्युलोक के मध्य में अवस्थित ये मरुद्गण सब प्रकार से प्रवर्धित होते हैं ॥७॥ शर्धो मारुतमुच्छंस सत्यशवसमृभ्वसम् । उत स्म ते शुभे नरः प्र स्पन्द्रा युजत त्मना ॥८॥ सत्य बल से निरन्तर विवर्धमान मरुतों के उत्कृष्ट बल की स्तुति करें । ये स्पंदनशील और नेतृत्वकर्ता मरुद्गण प्रत्येक शुभकार्य में स्वयं योजित होते हैं ॥८॥ उत स्म ते परुष्ण्यामूर्णा वसत शुन्ध्यवः । उत पव्या रथानामद्रिं भिन्दन्त्योजसा ॥९॥ वे मरुद्गण परुष्णी नामक नदी में अवस्थित रहते हैं। सबको शुद्ध करने वाली दीप्ति द्वारा स्वयं को आच्छादित करते हैं। वे अपने बल से रथ चक्रों (चक्रवातों) को प्रक्षिप्त कर पर्वती (मेघों) का भी भेदन करते हैं ॥९॥ आपथयो विपथयोऽन्तस्पथा अनुपथाः । एतेभिर्मह्यं नामभिर्यज्ञ विष्टार ओहते ॥१०॥ जो मरुद्गण 'आपथयः' (सामने के मार्गों से गमन करने वाले), 'विपथयः' (विविध मार्गों से गमन करने वाले), 'अन्तः पथाः' (गुह्य मार्गों से गमन करने वाले) और 'अनुपथाः' (अनुकूल मार्गों से गमन करने वाले)-इन चारों नामों से विख्यात हुए हैं, वे मरुद्गण हमारे लिए यज्ञ के हविष्यान्न वहन करते है ॥१०॥ अधा नरो न्योहतेऽधा नियुत ओहते । अधा पारावता इति चित्रा रूपाणि दर्ध्या ॥११॥ (ये मरुद्गण) कभी अग्रणी होकर, कभी नियुक्त (सह्योगी) होकर, कभी दूर रहकर ही (संसार को) धारण करते हैं। इस प्रकार इनके विभिन्न स्वरूप विचित्र और दर्शनीय होते हैं ॥११॥ छन्दःस्तुभः कुभन्यव उत्समा कीरिणो नृतुः । ते मे के चिन्न तायव ऊमा आसन्दृशि त्विषे ॥१२॥ छन्दों द्वारा स्तुति करने वाले और जल की इच्छा करने वाले स्तोताओं के निमित्त मरुतों ने जल-प्रवाह प्रेरित किया। उनमें कुछ मरुद्गणों ने तस्करों की भाँति अदृश्य होकर रक्षा की थी और कुछ साक्षात् दृष्टिगत होकर उन्हें तेजस्वी बल प्रदान करते थे ॥१२॥ य ऋष्वा ऋष्टिविद्युतः कवयः सन्ति वेधसः । तमृषे मारुतं गणं नमस्या रमया गिरा ॥१३॥ हे ऋषिगण ! जो मरुद्गण विद्युत्रूपी आयुधों से दीप्तिमान् होते हैं, जो महान्, क्रान्तदर्शी और मेधा सम्पन्न हैं; उन मरुद्गणों का हर्षप्रद स्तुतियों से अभिवादन करें ॥१३॥ अच्छ ऋषे मारुतं गणं दाना मित्रं न योषणा । दिवो वा धृष्णव ओजसा स्तुता धीभिरिषण्यत ॥१४॥ हे ऋषिगण ! प्रिय मित्र के पास जाने की तरह आप हविष्यान्न लेकर मरुतों के पास उपस्थित हों। हे आक्रामक बल से पराभव करने वाले मरुतो ! आप लोग द्युलोक या अन्य लोकों से हमारे यज्ञ में पधारें और स्तुतियाँ ग्रहण करें ॥१४॥ नू मन्वान एषां देवाँ अच्छा न वक्षणा । दाना सचेत सूरिभिर्यामश्रुतेभिरज्ञ्जिभिः ॥१५॥ स्तोतागण मरुतों की स्तुति करके अन्य देवों की स्तुति करने की इच्छा नहीं करते। वे ज्ञान सम्पन्न, शीघ्रगमनकारी, प्रसिद्ध तथा श्रेष्ठफलदाता मरुतों से ही अभीष्ट दान प्राप्त कर लेते हैं ॥१५॥ प्र ये मे बन्ध्वेषे गां वोचन्त सूरयः पृश्निं वोचन्त मातरम् । अधा पितरमिष्मिणं रुद्रं वोचन्त शिक्वसः ॥१६॥ उन ज्ञानी मरुतों ने बंधुओं के जानने की इच्छा से यह वचन कहा कि-"गौएँ (किरणें) और पृथ्वी हमारी माताएँ हैं" और सामर्थ्यवान् मरुतों ने यह भी कहा कि-"वेगवान् रुद्र हमारे पिता हैं " ॥१६॥ सप्त मे सप्त शाकिन एकमेका शता ददुः । यमुनायामधि श्रुतमुद्राधो गव्यं मृजे नि राधो अव्यं मृजे ॥१७॥ सात-सात संख्यक समर्थ मरुद्गण एक होकर हमें सौ (सैकड़ो) गौओं और अश्व (पोषक एवं शक्तिवर्द्धक प्रवाह) प्रदान करें। उनके द्वारा प्रदत्त प्रसिद्ध गौओं के समूह को हम यमुना नदी के किनारे पवित्र करते हैं और अश्व रूप धन को भी वहीं पवित्र करते हैं ॥१७॥

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