ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १४२

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १४२ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता- आपनि सूक्तं । छंद अनुष्टुप समिद्धो अग्न आ वह देवाँ अद्य यतस्रुचे । तन्तुं तनुष्व पूर्व्य सुतसोमाय दाशुषे ॥१॥ हे अग्निदेव ! आप प्रज्वलित होकर विदाता यजमान के लिए देवताओं का आवाहन करें। सोम अभिषव कर्ता, दानी यजमान के लिए प्राचीन यज्ञ के सम्पादनार्थ अपनी ज्वालाओं को बढ़ायें ॥१॥ घृतवन्तमुप मासि मधुमन्तं तनूनपात् । यज्ञं विप्रस्य मावतः शशमानस्य दाशुषः ॥२॥ शरीर के आरोग्य को बढ़ाने वाले हे अग्ने ! आपके प्रशंसक तथा दानदाता हम ब्रह्मनिष्ठ विद्वानों द्वारा किये जाने वाले माधुर्य से युक्त तथा तेजस्वी यज्ञ में आकर आप प्रतिष्ठित हों ॥२॥ शुचिः पावको अद्भुतो मध्वा यज्ञं मिमिक्षति । नराशंसस्त्रिरा दिवो देवो देवेषु यज्ञियः ॥३॥ हे अग्निदेव ! आप देवताओं द्वारा पूजनीय, मनुष्यों द्वारा प्रशंसनीय, पवित्र रहकर दूसरों को भी पवित्र करने वाले, आश्चर्यप्रद और तेजस्वी हैं। आप दिव्य लोक के मधुर रस रूप यज्ञ को दिन में तीन बार सिंचित करें ॥३॥ ईळितो अग्न आ वहेन्द्रं चित्रमिह प्रियम् । इयं हि त्वा मतिर्ममाच्छा सुजिह्व वच्यते ॥४॥ हे अग्निदेव ! आप प्रशंसित होकर विलक्षण कर्मों के निर्वाहक प्रिय इन्द्रदेव को हमारे इस यज्ञ में लेकर आयें। हे सुन्दर ज्वालारूपी जिह्वायुक्त अग्निदेव ! हमारी ये बुद्धियाँ, सदैव आपकी ही प्रार्थनाएँ करती हैं॥४॥ स्तृणानासो यतस्रुचो बर्हिर्यज्ञे स्वध्वरे । वृज्जे देवव्यचस्तममिन्द्राय शर्म सप्रथः ॥५॥ सुवा पात्र को धारण किये हुए ऋत्विग्गण श्रेष्ठ यज्ञ में कुश के आसनों को फैलाते हैं तथा देवों के आवाहक, विशाल यज्ञस्थल को इन्द्रदेव के लिए शोभायमान करते हैं॥५॥ वि श्रयन्तामृतावृधः प्रयै देवेभ्यो महीः । पावकासः पुरुस्पृहो द्वारो देवीरसश्चतः ॥६॥ महिमा युक्त, यज्ञ का विकास करने वाले, पवित्र, सबके प्रिय अलग- अलग स्थित दिव्य द्वार, देवत्व की प्राप्ति के लिए यहाँ स्थित हों (खुल जायें) ॥६॥ आ भन्दमाने उपाके नक्तोषासा सुपेशसा । यही ऋतस्य मातरा सीदतां बर्हिरा सुमत् ॥७॥ मिलकर रहने वाली श्रेष्ठ स्वरूप युक्त, महिमामय, यज्ञकर्म को सिद्ध करने वाली पारस्परिक सहयोग की प्रतीक, रात्रि और उषा हमारे सम्बन्ध में श्रेष्ठ विचारधारा रखते हुए इस यज्ञ में आकर विराजमान हों ॥७॥ मन्द्रजिह्वा जुगुर्वणी होतारा दैव्या कवी । यज्ञं नो यक्षतामिमं सिध्रमद्य दिविस्पृशम् ॥८॥ वाणी के प्रयोक्ता, मेधावी, उच्चारण विद्या में प्रवीण, दैवी गुणों से सम्पन्न यज्ञ संचालक (होता), वर्तमान विशिष्ट आध्यात्मिक उपलब्धियों द्वारा देवत्व पद को प्राप्त कराने वाले, हमारे देवयज्ञ में उपस्थित होकर यज्ञ सम्पन्न करायें ॥८॥ शुचिर्देवेष्वर्पिता होत्रा मरुत्सु भारती । इळा सरस्वती मही बर्हिः सीदन्तु यज्ञियाः ॥९॥ देवताओं और मरुद्गणों में पूजनीय, पवित्र यज्ञीय कर्मों के निर्वाहक होता रूप भारती, सरस्वती और इळा इस यज्ञ में उपस्थित हों ॥९॥ तन्नस्तुरीपमद्भुतं पुरु वारं पुरु त्मना । त्वष्टा पोषाय वि ष्यतु राये नाभा नो अस्मयुः ॥१०॥ हमारे हितैषी निर्माता हे त्वष्टादेव! आप हम सबके द्वारा इच्छिते, शीघ्र प्रवाहित होने वाले, अन्तरिक्षस्थ अद्भुत मेघों से जलवृष्टि द्वारा सबके लिए पौष्टिक अन्न और ऐश्वर्यों को प्रदान करें ॥१०॥ अवसृजन्नुप त्मना देवान्यक्षि वनस्पते । अग्निर्हव्या सुषूदति देवो देवेषु मेधिरः ॥११॥ हे वनों के अधिपते ! आप यज्ञीय कर्मों की प्रेरणा से युक्त होकर देवताओं के निमित्त अग्नि प्रज्वलित करें। ज्ञानवान् अग्निदेव को समर्पित आहुतियाँ सूक्ष्मरूप होकर देवताओं तक पहुँचती हैं॥११॥ पूषण्वते मरुत्वते विश्वदेवाय वायवे । स्वाहा गायत्रवेपसे हव्यमिन्द्राय कर्तन ॥१२॥ हम पूघादेव और मरुद्गणों से युक्त सर्वदेव समूह के लिए, वायुदेव के लिए तथा गायत्री साधकों के संरक्षक इन्द्रदेव के लिए श्रेष्ठ हव्य समर्पित करें ॥१२॥ स्वाहाकृतान्या गह्युप हव्यानि वीतये । इन्द्रा गहि श्रुधी हवं त्वां हवन्ते अध्वरे ॥१३॥ हे इन्द्रदेव ! आप श्रद्धा भावना से समर्पित की गई- आहुतियों को ग्रहण करने के लिए यहाँ पधारें । यज्ञीय सत्कर्मों के लिए मनुष्य आपको आवाहित कर रहे हैं। उनके निवेदन को सुनकर उनके सहयोग हेतु अवश्य आयें ॥१३॥

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