ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ५

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त ५ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - वैश्वानरोऽग्नि । छंद - त्रिष्टुप, वैश्वानराय मीळ्ळ्हुषे सजोषाः कथा दाशेमाग्नये बृहद्भाः । अनूनेन बृहता वक्षथेनोप स्तभायदुपमिन्न रोधः ॥१॥ सभी प्राणियों के प्रति समान भाव रखने वाले हम याजकगण, उन सुखकारी एवं तेजस्वी वैश्वानर अग्निदेव के निमित्त, किस प्रकार आहुति प्रदान करें ? जिस प्रकार स्तम्भ छप्पर को धारण करता है, उसी प्रकार वे अग्निदेव अपने अत्यधिक बृहत् शरीर से समस्त जगत् को धारण करते हैं ॥१॥ मा निन्दत य इमां मह्यं रातिं देवो ददौ मर्त्याय स्वधावान् । पाकाय गृत्सो अमृतो विचेता वैश्वानरो नृतमो यह्नो अग्निः ॥२॥ हे होताओ ! जो वैश्वानरदेव आहुतियों से सन्तुष्ट होकर, ज्ञानी तथा मरणधर्मा हम याजकों को ऐश्वर्य प्रदान करते हैं, उनकी आलोचना न करें। वे अग्निदेव अत्यन्त मेधावान्, अविनाशी तथा बुद्धिमान् हैं, वे अत्यन्त श्रेष्ठ नायक तथा महिमावान् हैं ॥२॥ साम द्विबर्हा महि तिग्मभृष्टिः सहस्ररेता वृषभस्तुविष्मान् । पदं न गोरपगूळ्हं विविद्वानग्निर्मह्यं प्रेदु वोचन्मनीषाम् ॥३॥ वे अग्निदेव दोनों लोकों (यु तथा भूलोक) में अपनी लपटों को विस्तृत करने वाले, तीक्ष्ण ओजवाले, सहस्रों प्रकार की सामथ्र्यों वाले, अत्यन्त शौर्यवान् तथा साहसी हैं। वे गो पद के सदृश रहस्यमय हैं। विद्वानों के सहयोग से हम उनका ज्ञान प्राप्त करे ॥३॥ प्र ताँ अग्निर्बभसत्तिग्मजम्भस्तपिष्ठेन शोचिषा यः सुराधाः । प्र ये मिनन्ति वरुणस्य धाम प्रिया मित्रस्य चेततो ध्रुवाणि ॥४॥ ज्ञानी मित्रदेव और वरुणदेव के प्रिय पात्रों को जो व्यक्ति विनष्ट करते हैं, उनको श्रेष्ठ धन वाले तथा तीक्ष्ण दाँतों वाले अग्निदेव अपने प्रखर तेज से भस्मसात् करें ॥४॥ अभ्रातरो न योषणो व्यन्तः पतिरिपो न जनयो दुरेवाः । पापासः सन्तो अनृता असत्या इदं पदमजनता गभीरम् ॥५॥ बन्धु विहीन तथा पति से विद्वेष करने वाली स्त्री जिस प्रकार दुःख पाती है, उसी प्रकार सत्यविहीन यज्ञानुष्ठान से रहित तथा अग्नि से विद्वेष करने वाले असत्यभाषी पापी व्यक्ति नरक जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं ॥५॥ इदं मे अग्ने कियते पावकामिनते गुरुं भारं न मन्म । बृहद्दधाथ धृषता गभीरं यद्वं पृष्ठं प्रयसा सप्तधातु ॥६॥ सभी को पवित्रता प्रदान करने वाले हे अग्निदेव ! जैसे कोई उदारचेता पुरुष कम याचना करने वाले को भी अधिक दान देता है, उसी प्रकार आप मुझ अहिंसक को, रिपुओं को परास्त करने योग्य बल से युक्त, गम्भार तथा महान् आश्रय प्रदान करने वाले सप्त धातुओं से सम्पन्न प्रचुर ऐश्वर्य प्रदान करें ॥६॥ तमिन्वेव समना समानमभि क्रत्वा पुनती धीतिरश्याः । ससस्य चर्मन्नधि चारु पृश्नेरग्रे रुप आरुपितं जबारु ॥७॥ अनेक रंगों वाली तथा समस्त पदार्थों को उत्पन्न करने वाली धरती पर द्रुतगामी वैश्वानर देव को प्रजापति ने विचरण करने के लिए आरोपित किया । हमारे द्वारा यज्ञादि सत्कर्मों के समय पहले ही मनोयोगपूर्वक की गई पवित्रताकारक प्रार्थनाएँ उन समदशी वैश्वानर को प्राप्त होती हैं ॥७॥ प्रवाच्यं वचसः किं मे अस्य गुहा हितमुप निणिग्वदन्ति । यदुस्रियाणामप वारिव व्रन्पाति प्रियं रुपो अग्रं पदं वेः ॥८॥ विद्वानों का मत है कि गोपालक जिस दूध को पानी के सदृश दुहते हैं, उसी दूध को वैश्वानरदेव गुहा में छिपाकर रखते हैं। वे विस्तृत धरती के प्रीतियुक्त तथा उत्तम प्रदेश की सुरक्षा करते हैं। हमारे इस वक्तव्य में अनुचित कौन सी बात है ? ॥८॥ इदमु त्यन्महि महामनीकं यदुस्रिया सचत पूर्वं गौः । ऋतस्य पदे अधि दीद्यानं गुहा रघुष्यद्रघुयद्विवेद ॥९॥ जिन अग्निदेव की दुग्ध प्रदान करने वाली गौएँ (जल वर्षा करने वाली किरणे) यज्ञादि कर्मा में सहायक होती हैं, जो स्वयं आलोकवान् हैं, गुहा में निवास करते हैं तथा जो द्रुतगति से गमन करते हैं, सूर्यमण्डल में व्याप्त उन वन्दनीय वैश्वानर देव के विषय में हम जानते हैं ॥९॥ अध द्युतानः पित्रोः सचासामनुत गुह्यं चारु पृश्नेः । मातुष्पदे परमे अन्ति षद्गोर्वृष्णः शोचिषः प्रयतस्य जिह्वा ॥१०॥ माता-पिता के सदृश द्यावा-पृथिवी के मध्य में आलोकित होनेवाले (वैश्वानर) सूर्यदेव गाय के श्रेष्ठ दुग्ध का मुख से पान करते हैं। बलशाली, तेजोयुक्त तथा प्रयत्नशील वैश्वानर की जिह्वा, गो माता के उत्कृष्ट स्थान में स्थित दूध को पीने की इच्छा करती है ॥१०॥ ऋतं वोचे नमसा पृच्छ्यमानस्तवाशसा जातवेदो यदीदम् । त्वमस्य क्षयसि यद्ध विश्वं दिवि यदु द्रविणं यत्पृथिव्याम् ॥११॥ किसी के द्वारा पूछे जाने पर हम यजमान नमस्कार करते हुए इस सत्य बात का निवेदन करते हैं कि हे अग्निदेव! आपकी कृपा से जो कुछ भी हमें प्राप्त हुआ है, उसके आप ही अधिकारी हैं। द्यावा- पृथिवी में विद्यमान समस्त ऐश्वर्यों के भी आप स्वामी हैं ॥११॥ किं नो अस्य द्रविणं कद्ध रत्नं वि नो वोचो जातवेदश्चिकित्वान् । गुहाध्वनः परमं यन्नो अस्य रेकु पदं न निदाना अगन्म ॥१२॥ सभी प्राणियों के ज्ञाता हे अग्निदेव ! इस सम्पत्ति में से कौन सा ऐश्वर्य तथा रल हमारे लिए उपयुक्त है ? उसको आप बताएँ, क्योंकि आप सर्वज्ञाता हैं। हमारे योग्य गुफा में विद्यमान ऐश्वर्य को प्राप्त करने का श्रेष्ठ मार्ग हमें बताएँ, जिससे हम लक्ष्य पूर्ति के अभाव में निन्दित होकर अपने घर न लौटें ॥१२॥ का मर्यादा वयुना कद्ध वाममच्छा गमेम रघवो न वाजम् । कदा नो देवीरमृतस्य पत्नीः सूरो वर्णेन ततनन्नुषासः ॥१३॥ धन प्राप्त करने की क्या सीमा है? वह मनोहर धन क्या है ? जिस प्रकार द्रुतगामी अश्व संग्राम की ओर गमन करते हैं, उसी प्रकार हमें समस्त ऐश्वर्यों की तरफ गमन करते हैं। अविनाशी आदित्यदेव की तेजस्वी पत्नियाँ उषाएँ अपने द्युलोक से हमें कब प्रकाशित करेंगी ? ॥१३॥ अनिरेण वचसा फल्ग्वेन प्रतीत्येन कृधुनातृपासः । अधा ते अग्ने किमिहा वदन्त्यनायुधास आसता सचन्ताम् ॥१४॥ हे अग्निदेव ! रूखी, फलरहित, कठोर तथा अल्पाक्षर वाणी वाले अतृप्त लोग इस यज्ञ में आपकी क्या प्रार्थना करेंगे? शौर्य एवं आयुधों से रहित मनुष्य दुःख प्राप्त करते हैं ॥१४॥ अस्य श्रिये समिधानस्य वृष्णो वसोरनीकं दम आ रुरोच । रुशद्वसानः सुदृशीकरूपः क्षितिर्न राया पुरुवारो अद्यौत् ॥१५॥ प्रज्वलित रहने वाले, बल वाले तथा सबको निवास प्रदान करने वाले अग्निदेव का तेज यजमान के हित के लिए यज्ञमण्डप में सदैव आलोकित होता रहता हैं। शुभ्र तेजस्वी परिधान धारण करने के कारण उनका रूप मनोहर है। वे अनेकों के द्वारा आहूत होकर उसी प्रकार आलोकित होते हैं, जिस प्रकार धन-ऐश्वर्य को प्राप्त करके कोई राजपुरुष आलोकित होता है ॥१५॥

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