Pengal Upanishad (पैंगल उपनिषद) तृतीय अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ पैङ्गलोपनिषत् ॥ ॥ पैंगल उपनिषद ॥ तृतीयोऽध्यायः तृतीय अध्याय अथ हैनं पैङ्गलः प्रपच्छ याज्ञवल्क्यं महावाक्यविवरणमनुब्रूहीति । ॥१॥ इसके पश्चात् पैङ्गल ऋषि ने याज्ञवल्क्य से कहा- 'मुझे महावाक्यों का विवरण समझाइये ॥१॥ स होवाच याज्ञवल्क्यस्तत्त्वमसि त्वं तदसि त्वं ब्रह्मास्यहं ब्रह्मास्मीत्यनुसन्धानं कुर्यात् । ॥२॥ याज्ञवल्क्य बोले-'वह तुम हो' (तत्त्वमसि), 'तुम वह हो' (त्वं तदसि), 'तुम ब्रह्म हो' (त्वं ब्रह्मासि), 'मैं ब्रह्म हूँ' (अहं ब्रह्मास्मि), ये महावाक्य हैं, जिन पर अनुसन्धान (विचार) करना चाहिए ॥२॥ तत्र पारोक्ष्यशबलः सर्वज्ञत्वादिलक्षणो मायोपाधिः सच्चिदानन्दलक्षणो जगद्योनिस्तत्पदवाच्यो भवति । स एवान्तःकरणसम्भिन्नबोधोऽस्मत्प्रत्ययावलम्बनस्त्वम्पदवाच्यो भवति । परजीवोपाधिमायाविद्ये विहाय तत्त्वंपदलक्ष्यं प्रत्यगभिन्नं ब्रह्म । ॥३॥ तत्त्वमसि' में 'तत्' पद सर्वज्ञत्व आदि लक्षण से युक्त, माया की उपाधि से युक्त, सच्चिदानन्द रूप, जगत् योनि (मूलकारण) रूप अव्यक्त ईश्वर का बोधक है। वही ईश्वर अन्तःकरण की उपाधि के कारण भिन्नता का बोध होने से त्वं' पद का आलम्बन लेकर प्रकट किया जाता है। ईश्वर की उपाधि माया और जीव की उपाधि अविद्या है, इनका परित्याग कर देने से 'तत्' और 'त्वं' पदों का लक्ष्य (आशय) उस ब्रह्म से है, जो प्रत्यगात्मा से अभिन्न है ॥३॥ तत्त्वमसीत्यहं ब्रह्मास्मीति वाक्यार्थविचारः श्रवणं भवति । एकान्तेन श रवणार्थानुसन्धानं मननं भवति । श्रवणमनननिर्विचिकित्सेऽर्थे वस्तुन्येकतानवत्तया चेतःस्थापनं निदिध्यासनं भवति । ध्यातृध्याने विहाय निवातस्थितदीपवद्धयेयैकगोचरं चित्तं समाधिर्भवति । ॥४॥ 'तत्त्वमसि' और 'अहं ब्रह्मास्मि' इन महावाक्यों के अर्थ पर विचार करना श्रवण कहलाता है। श्रवण किए हुए विषय के अर्थों का एकान्त में अनुसन्धान करना मनन कहलाता है। श्रवण और मनन द्वारा निर्णीत अर्थ रूप वस्तु में एकाग्रतापूर्वक चित्त का स्थापन निदिध्यासन कहलाता है। जब ध्याता और ध्यान के भाव को छोड़कर चित्तवृत्ति वायु रहित स्थान में रखे दीपक की ज्योति के सदृश केवल ध्येय में स्थिर हो जाती है, तब उस अवस्था को समाधि कहते हैं ॥४॥ तदानीमात्मगोचरा वृत्तयः समुत्थिता अज्ञाता भवन्ति । ताः स्मरणादनुमीयन्ते । इहानादिसंसारे सञ्चिताः कर्मकोटयोऽनेनैव विलयं यान्ति । ततोभ्यासपाटवात्सहस्रशः सदामृतधारा वर्षति । ततो योगवित्तमाः समाधिं धर्ममेघं प्राहुः । वासनाजाले निःशेषममुना प्रविलापिते कर्मसञ्चये पुण्यपापे समूलोन्मूलिते प्राक्परोक्षमपि ैं करतलामलकवद्वाक्यमप्रतिबद्धापरोक्षसाक्षात्कारं प्रसूयते । तदा जीवन्मुक्तो भवति ॥ ॥५॥ उसमें (उस अवस्था में) आत्मगोचर वृत्तियाँ उत्पन्न होकर अज्ञात हो जाती हैं, जो स्मरण के द्वारा अनुमानित होती हैं (अर्थात् जिनका स्मरण के द्वारा अनुमान लगाया जाता है)। संसार में अनादिकाल से संचित करोड़ों कर्म इस अवस्था में ही विनष्ट हो जाते हैं। इसके पश्चात् अभ्यास पटुता (परिपक्वता) प्राप्त हो जाने पर सतत सहस्रों अमृत धाराओं की वर्षा होती रहती है। इसीलिए योगज्ञाता समाधि को धर्ममेघ कहते हैं। इसके माध्यम से सम्पूर्ण वासनाजाल निःशेष (समाप्त) हो जाता है तथा पाप और पुण्य दोनों प्रकार के संचित कर्म समूल विनष्ट हो जाते हैं। यह स्थिति प्राप्त होने पर, प्राक् (पहले) जो, "तत्त्वमसि' महावाक्य का आशय परोक्ष रूप से विदित होता था, वही अब हस्तामलकवत् अवरोध रहित स्पष्ट विदित होने लगता है और ब्रह्म का साक्षात्कार प्राप्त हो जाता है, तब योगी जीवन्मुक्त हो जाता है ॥५॥ ईशः पञ्चीकृतभूतानामपञ्चीकरणं कर्तुं सोऽकामयत । ब्रह्माण्डतद्गतलोकान्कार्यरूपांश्च कारणत्वं प्रापयित्वा ततः सूक्ष्माङ्गं कर्मेन्द्रियाणि प्राणांश्च ज्ञानेन्द्रियाण्यन्तःकरणचतुष्टयं चैकीकृत्य सर्वाणि भौतिकानि कारणे भूतपञ्चके संयोज्य भूमिं जले जलं वह्नौ वह्नि वायौ वायुमाकाशे चाकाशमहङ्कारे चाहङ्कारं महति महदव्यक्तेऽव्यक्तं पुरुषे क्रमेण विलीयते । विरा‌ङ्किरण्यगर्भेश्वरा उपाधिविलयात्परमात्मनि लीयन्ते । ॥६॥ ईश्वर ने पञ्चीकृत भूतों का पुनः अपञ्चीकरण करने की कामना की। अतः उसने ब्रह्माण्ड और उसके अन्तर्गत लोकों को कार्य रूप से पुनः कारण रूप प्राप्त करा दिया। इसके बाद उसने सूक्ष्म अङ्ग, कर्मेन्द्रियों, प्राणों, ज्ञानेन्द्रियों और अन्तःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) को एकीकृत करके समस्त भौतिक पदार्थों को उनके कारणभूत पंचक में संयोजित करके भूमि को जल में, जल को अग्नि में, अग्नि को वायु में, वायु को आकाश में, आकाश को अहंकार में, अहंकार को महत् (विराट्) में, विराट् को अव्यक्त में और अव्यक्त को पुरुष में क्रमशः विलीन कर दिया। इस प्रकार विराट्, हिरण्यगर्भ और ईश्वर भी उपाधियों के विलीन हो जाने पर परमात्मा में ही विलीन हो जाते हैं ॥६॥ पञ्चीकृतमहाभूतसम्भवकर्मसञ्चितस्थूलदेहः कर्मक्षयात्सत्कर्मपरिपाकतोऽपञ्चीकरणं प्राप्य सूक्ष्मेणैकीभूत्वा कारणरूपत्वमासाद्य तत्कारणं कूटस्थे प्रत्यगात्मनि विलीयते । विश्वतैजसप्राज्ञाः स्वस्वोपाधिलयात्प्रत्यगात्मनि लीयन्ते । ॥७॥ पञ्चीकृत महाभूतों द्वारा निर्मित और संचित कर्मों से प्राप्त स्थूल देह, कर्मों के क्षय हो जाने तथा सत्कर्मों के परिपाक होने से अपञ्चीकृत हो जाती है। वह देह, सूक्ष्मरूप से एकीभूत होकर, कारण रूप को प्राप्त होकर अन्त में उस कारण के भी कारण कूटस्थ प्रत्यगात्मा में विलीन हो जाती है। फिर विश्व, तैजस और प्राज्ञ की भी अपनी-अपनी उपाधियों के लय हो जाने से ये सभी प्रत्यगात्मा में विलीन हो जाते हैं ॥७॥ अण्डं ज्ञानाग्निना दग्धं कारणैः सह परमात्मनि लीनं भवति । ततो ब्राह्मणः समाहितो भूत्वा तत्त्वंपदैक्यमेव सदा कुर्यात् । ततो मेघापायेंऽ शुमानिवात्माविर्भवति । ध्यात्वा मध्यस्थमात्मानं कलशान्तरदीपवत् । अङ्‌गुष्ठमात्रमात्मानमधूमज्योतिरूपकम् ॥८॥ अण्ड (ब्रह्माण्ड) अपनी कारण सत्ता के साथ ज्ञानाग्नि में भस्म होकर परमात्मा में विलीन हो जाता है। इस प्रकार ब्राह्मण (ब्रह्म में रत) पुरुष को समाहित चित्त (ब्रह्म में चित्त को समाहित करके) होकर सदैव 'तत्' और 'त्वं' पदों के साथ ऐक्य करते रहना चाहिए। इस प्रक्रिया से उसी प्रकार आत्म साक्षात्कार होने लगता है, जिस प्रकार मेघों के छूट जाने से अंशुमान् (सूर्य) को प्रकाश प्रकट हो जाता है ॥८॥ प्रकाशयन्तमन्तःस्थं ध्यायेत्कूटस्थमव्ययम् । ध्यायन्नास्ते मुनिश्चैव चासुप्तेरामृतेस्तु यः ॥ ९॥ जीवन्मुक्तः स विज्ञेयः स धन्यः कृतकृत्यवान् । जीवन्मुक्तपदं त्यक्त्वा स्वदेहे कालसात्कृते । ॥१०॥ विशत्यदेहमुक्तत्वं पवनोऽस्पन्दतामिव ॥ ११॥ कलश के अन्दर स्थित दीपक के सदृश, शरीर में स्थित (हृदय कमल के मध्यस्थित) धूम रहित ज्योति स्वरूप अङ्गष्ठ परिमाण आत्मा का ध्यान करके जो मुनि अन्तः प्रान्त में स्थित प्रकाशयुक्त कूटस्थ, अव्यय आत्मा का ध्यान नित्य सोते समय तथा मृत्यु के समय भी करता है, वह जीवन्मुक्त है, धन्य है, कृतकृत्य है, ऐसा मानना चाहिए। जीवन्मुक्तत्व (जीवन्मुक्त स्थिति) को छोड़कर वह इस शरीर का परित्याग करके अदेह और मुक्ति को उसी प्रकार प्राप्त हो जाता है, जिस प्रकार पवन स्पन्दन रहित हो जाता है अर्थात् पवन को प्रवाह बन्द हो जाता है ॥९-११॥ अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथा रसं नित्यमगन्धवच्च यत् । अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं तदेव शिष्यत्यमलं निरामयम् ॥ १२॥ तत्पश्चात् वह अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अरस और अगन्धवत् होकर अव्यय, अनादि, अनन्त, महत् से भी परे, ध्रुव, निर्मल तथा निरामय ब्रह्म ही शेष बचता है ॥१२॥ इति तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥ ॥ तृतीय अध्याय समाप्त ॥

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