Shandilyopanishad Chapter 2 (शाण्डिल्योपानिषद द्वितीय अध्याय)

द्वितीयोऽध्यायः द्वितीय अध्याय अथ ह शाण्डिल्यो ह वै ब्रह्मऋषिश्चतुषु वेदेषु ब्रह्मविद्यामलभमानः किं नामेत्यथर्वाणं भगवन्तमुपसन्नः पप्रच्छाधीहि भगवन् ब्रह्मविद्यां येन श्रेयोऽवाप्स्यामीति ॥१॥ तदनन्तर ब्रह्मर्षि शाण्डिल्य ने चारों वेदों में अर्थात चारों वेदों का अध्ययन करने पर भी ब्रह्म विद्या को प्राप्त न कर पाने से भगवान् अथर्वा की शरण में पहुँचकर प्रश्न किया- 'हे भगवन् ! आप हमें ब्रह्म विद्या का अध्ययन कराएँ, जिससे कि मुझे कल्याण की प्राप्ति हो ॥१॥ स होवाचाथर्वा शाण्डिल्य सत्यं विज्ञानमनन्तं ब्रह्म। ॥२॥ तत्पश्चात् अथर्वा मुनि ने कहना प्रारम्भ किया "हे शाण्डिल्य! ब्रह्म, सत्य, विज्ञान एवं अनन्त रूपों में संव्याप्त है ॥२॥ यस्मिन्निदमोतं च प्रोतं च। यस्मिन्निदं संच विचैति सर्वं यस्मिन्विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति । तदपाणिपादमचक्षुः श्रोत्रमजिह्वमशरीरमग्राह्यमनिर्देश्यम् ॥३॥ जिसमें यह सभी कुछ ओत-प्रोत है। जिसमें यह प्रादुर्भूत होता है तथा अस्त भी होता है, उसी तरह से जिसको समझ लेने से यह सभी कुछ समझ लिया जाता है, वह हाथ-पैर से विहीन, नेत्रों से रहित, कार्य विहीन, जिह्वा रहित, शरीर विहीन, स्वीकार न किए जाने योग्य तथा स्पष्ट रूप से बताये न जा सकने योग्य है ॥३॥ यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह। यत्केवलं ज्ञानगम्यम्। प्रज्ञा च यस्मात्प्रसृता पुराणी। यदेकमद्वितीयम्। आकाशवत्सर्वगतं सुसूक्ष्म निरञ्जनं निष्क्रियं सन्मानं चिदानन्दैकरसं शिवं प्रशान्तममृतं तत्परं च ब्रह्म। तत्त्वमसि तज्ज्ञानेन हि विजानीहि ॥४॥ जिसे प्राप्त किये बिना वाणी एवं मन पीछे की ओर वापस हो जाते हैं। जो मात्र ज्ञान से ही पाया जा सकता है, जिससे प्राचीन प्रज्ञा का प्रचार-प्रसार हुआ है, जो अनुपम एवं अद्वितीय है, आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त रहने वाले, अति सूक्ष्म, निरञ्जन, क्रियाविहीन, एकमात्र सत्य स्वरूप, चेतना से सम्पन्न, आनन्द स्वरूप, एकरस से सम्पन्न, मंगलमय, अत्यन्त शांत एवं अमर है, वही परम अविनाशी ब्रह्म है। वही तुम हो। ज्ञान के द्वारा तुम उसे जानो ॥४॥ य एको देव आत्मशक्तिप्रधानः सर्वज्ञः सर्वेश्वरः सर्वभूतान्तरात्मा सर्वभूताधिवासः सर्वभूतनिगूढो भूतयोनिर्योगैकगम्यः। यश्च विश्वं सृजति विश्वं बिभर्ति विश्वंभुङ्क्ते स आत्मा। आत्मनि तं तं लोकं विजानीहि ॥५॥ जो एक ही देव आत्मा की शक्ति के रूप में प्रमुख, सब प्रकार से ज्ञान सम्पन्न, सर्वेश्वर, समस्त प्राणियों को अन्तरात्मा, सभी प्राणियों में निवास करने वाले, सब प्राणियों में छिपे हुए, सभी प्राणियों का मूल उत्पत्ति स्थान, केवल योग के द्वारा ही जाने जा सकने योग्य है, जो विश्व की सृष्टि, पालन एवं विलय स्वयं करता है, वही आत्मा है। तुम आत्मा में ही उन सबको स्थित जानो ॥५॥ मा शोचीरात्मविज्ञानी शोकस्यान्तं गमिष्यसि ॥६॥ तुम शोक बिल्कुल न करो। आत्मा का विशिष्ट ज्ञान पाकर के तुम शोक का अन्त कर सकोगे ॥६॥

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