ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ८५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ७७ ऋषि – गौतमो राहुगणः: देवता- अग्नि । छंद - त्रिष्टुप कथा दाशेमाग्नये कास्मै देवजुष्टोच्यते भामिने गीः । यो मर्येष्वमृत ऋतावा होता यजिष्ठ इत्कृणोति देवान् ॥१॥ इन अग्निदेव के लिए हम किस प्रकार हवि दें? इन्हें कौन सी देव- प्रिय स्तुति से प्रकाशित करें ? जो मनुष्यों के बीच रहकर देवों को हविष्यान्न पहुँचाते हैं, ऐसे ये अग्निदेव अविनाशी, पूज्य, यज्ञकर्म सम्पादक और होता रूप हैं॥१॥ यो अध्वरेषु शंतम ऋतावा होता तमू नमोभिरा कृणुध्वम् । अग्निर्यद्वर्मर्ताय देवान्त्स चा बोधाति मनसा यजाति ॥२॥ ये अग्निदेव यज्ञों में अत्यन्त सुख प्रदान करने वाले तथा होता रूप में यज्ञ करने वाले हैं। हे मनुष्यो ! उन अग्निदेव का श्राळ स्तोत्रों से अभिवादन करें। ये अग्निदेव मनुष्यों के हित के लिए देवों के पास जाते हैं। देवों को जानने वाले ये अग्निदेव मन से देवों का यजन करते हैं॥२॥ स हि क्रतुः स मर्यः स साधुर्मित्रो न भूदद्भुतस्य रथीः । तं मेधेषु प्रथमं देवयन्तीर्विश उप ब्रुवते दस्ममारीः ॥३॥ वे अग्निदेव निश्चय ही यज्ञ रूप हैं, वे ही साधु रूप पर हितकारी हैं। वे ही यजमान और मित्र के समान सहायक भी हैं। वे विलक्षण प्रकार के रथी वीर हैं। देवत्व प्राप्ति की कामना करने वाले लोग यज्ञों में उन दर्शनीय यज्ञदेव की सर्वप्रथम उत्तम स्तुतियाँ करते हैं॥३॥ स नो नृणां नृतमो रिशादा अग्निर्गिरोऽवसा वेतु धीतिम् । तना च ये मघवानः शविष्ठा वाजप्रसूता इषयन्त मन्म ॥४॥ ये अग्निदेव मनुष्यों में सर्वोत्कृष्ट और शत्रुओं का विनाश करने वाले हैं। वे विचारपूर्वक की गई हमारी स्तुतियों को स्वीकार करते हुए रक्षण साधनों द्वारा हमारी रक्षा करें। ये अत्यन्त ऐश्वर्यशाली और बलशाली अग्निदेव हमारी हविष्यान युक्त स्तुतियों को प्राप्त हों ॥४॥ एवाग्निर्गोतमेभिर्ऋतावा विप्रेभिरस्तोष्ट जातवेदाः । स एषु द्युम्नं पीपयत्स वाजं स पुष्टिं याति जोषमा चिकित्वान् ॥५॥ सत्य युक्त, सर्वज्ञ अग्निदेव की मेधा सम्पन्न गोतमों ने स्तुति की। यज्ञ में अग्निदेव ने हविष्यान्न को ग्रहण कर, दीप्तिमान् सोम का पान किया। र्घषया की भक्ति को जानकर उन्होंने उन्हें भली प्रकार पुष्ट किया ॥५॥

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