ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ८१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ८१ ऋषि – गौतमो राहुगणः: देवता- इन्द्र । छंद - पंक्तिः इन्द्रो मदाय वावृधे शवसे वृत्रहा नृभिः । तमिन्महत्स्वाजिषूतेमर्भे हवामहे स वाजेषु प्र नोऽविषत् ॥१॥ हर्ष और उत्साहवर्धन की कामना से स्तोताओं द्वारा इन्द्रदेव के यश का विस्तार किया जाता है, अतः छोटे और बड़े सभी युद्धों में हम रक्षक, इन्द्रदेव का आवाहन करते हैं। वे इन्द्रदेव युद्धों में हमारी रक्षा करें ॥१॥ असि हि वीर सेन्योऽसि भूरि पराददिः । असि दभ्रस्य चिदृधो यजमानाय शिक्षसि सुन्वते भूरि ते वसु ॥२॥ हे वीर इन्द्रदेव ! आप सैन्यबलों से युक्त हैं। आप अनुचरों की वृद्धि करने वाले और उन्हें विपुल धन देने वाले हैं। आप सोमयाग करने वाले यजमान के लिये विपुल धन-प्राप्ति की प्रेरणा देने वाले हैं॥२॥ यदुदीरत आजयो धृष्णवे धीयते धना । युवा मदच्युता हरी कं हनः कं वसौ दधोऽस्माँ इन्द्र वसौ दधः ॥३॥ युद्ध प्रारम्भ होने पर शत्रुजयीं हीं धन प्राप्त करते हैं। हे इन्द्रदेव ! युद्धारम्भ होने पर मद टपकाने वाले (उमंग में आने वाले) अश्वों को आप अपने रथ में जोड़े। आप किसका वध करें, किसे धन दें ? यह आपके ऊपर निर्भर हैं। अत हे इन्द्रदेव! हमें ऐश्वर्यों से युक्त करें ॥३॥ क्रत्वा महाँ अनुष्वधं भीम आ वावृधे शवः । श्रिय ऋष्व उपाकयोर्नि शिप्री हरिवान्दधे हस्तयोर्वज्रमायसम् ॥४॥ भीषण शक्ति से युक्त इन्द्रदेव सोमरस पान कर अपने बल की वृद्धि करते हैं। तदनन्तर सौन्दर्यशाली, श्रेष्ठ शिरस्त्राण धारण करने वाले, रथ में अश्वों को नियोजित करने वाले, इन्द्रदेव दाहिने हाथ में लौह- निर्मित वज्र को अलंकार के रूप में धारण करते हैं॥४॥ आ पप्रौ पार्थिवं रजो बद्बधे रोचना दिवि । न त्वावाँ इन्द्र कश्चन न जातो न जनिष्यतेऽति विश्वं ववक्षिथ ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! आपने अपनी सामर्थ्य से पृथ्वी और अन्तरिक्ष को पूर्ण किया है। आपने आकाश में प्रकाशमान नक्षत्रों को स्थापित किया है। हे इन्द्रदेव ! उत्पन्न हुए या उत्पन्न होने वालों में आपके समान अन्य कोई नहीं हैं। आप ही सम्पूर्ण विश्व के नियामक हैं॥५॥ यो अर्यो मर्तभोजनं पराददाति दाशुषे । इन्द्रो अस्मभ्यं शिक्षतु वि भजा भूरि ते वसु भक्षीय तव राधसः ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! आप विदाता के लिए जो उपयोगी पदार्थ देते हैं, वह हमें भी प्रदान करें। आपके पास जो विपुल धनों के भण्डार हैं, वह हमें भी बाँटें । हम उस भाग का उपयोग कर सकें ॥६॥ मदेमदे हि नो ददिर्यूथा गवामृजुक्रतुः । सं गृभाय पुरू शतोभयाहस्त्या वसु शिशीहि राय आ भर ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! यज्ञ कार्यों में सोमरस से अत्यन्त प्रफुल्लित होकर आप हमें गौएँ आदि विपुल धनों को देने वाले हैं। आप हमें दोनों हाथों से सैकड़ों प्रकार का वैभव प्रदान करें। हम वीरता पूर्वक यश के भागीदार बनें ॥७॥ मादयस्व सुते सचा शवसे शूर राधसे । विद्मा हि त्वा पुरूवसुमुप कामान्त्ससृज्महेऽथा नोऽविता भव ॥८॥ हे इन्द्रदेव ! आप बल वृद्धि के लिए, हविष्यान्न ग्रहण करने के लिए और अभिषुत सोम का पान करने के लिए हमारे यज्ञस्थल में पधारें तथा सोमपान करके हर्षित हों। आप विपुल सम्पदाओं के स्वामी माने गये हैं। आप कामनाओं को पूरा करके हमारी रक्षा करने वाले हैं॥८॥ एते त इन्द्र जन्तवो विश्वं पुष्यन्ति वार्यम् । अन्तर्हि ख्यो जनानामर्यो वेदो अदाशुषां तेषां नो वेद आ भर ॥९॥ हे इन्द्रदेव ! ये सभी प्राणी आपके वरण करने योग्य पदार्थों की वृद्धि करने वाले हैं। हे स्वामी इन्द्रदेव! आप कृपणों के गुप्त धन को जानते हैं, उस धन को प्राप्त कर हमें प्रदान करें ॥९॥

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