ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त २५

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त २५ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः । देवता - ब्रह्मणस्पतिः । छंद जगती इन्धानो अग्निं वनवद्वनुष्यतः कृतब्रह्मा शूशुवद्रातहव्य इत् । जातेन जातमति स प्र ससृते यंयं युजं कृणुते ब्रह्मणस्पतिः ॥१॥ जिसे ब्रह्मणस्पतिदेव सखा बना लेते हैं, वह अग्नि को प्रज्वलित करके शत्रुओं का संहार करने में समर्थ होता है तथा ज्ञानवान् बनकर हवि प्रदान करके समृद्धि प्राप्त करता है। पुत्र- पौत्रों, से उसकी वृद्धि होती है॥१॥ वीरेभिर्वीरान्वनवद्वनुष्यतो गोभी रयिं पप्रथद्बोधति त्मना । तोकं च तस्य तनयं च वर्धते यंयं युजं कृणुते ब्रह्मणस्पतिः ॥२॥ जिस यजमान को ब्रह्मणस्पतिदेव अपने सखा रूप में स्वीकार कर लेते हैं, वह अपने बलशाली पुत्रों के द्वारा हिंसक शत्रु के वीर पुत्रों को मारता है। वह गोधन से समृद्ध होता हुआ ज्ञानवान् बनता है । ब्रह्मणस्पतिदेव उसे पुत्र-पौत्रों से समृद्ध बनाते हैं॥२॥ सिन्धुर्न क्षोदः शिमीवाँ ऋघायतो वृषेव वीँरभि वष्ट्योजसा । अग्नेरिव प्रसितिर्नाह वर्तवे यंयं युजं कृणुते ब्रह्मणस्पतिः ॥३॥ जिस यजमान को ब्रह्मणस्पतिदेव अपने सखा रूप में स्वीकार कर लेते हैं, वह जिस प्रकार नदी तटबन्ध को तोड़ती है, साँड, बैल को पराजित करता है, उसी तरह अपनी सामर्थ्य से हिंसक शत्रुओं को पराजित करता है। ऐसा यजमान अग्नि की ज्वालाओं के समान किसी से रोका नहीं जा सकता ॥३॥ तस्मा अर्षन्ति दिव्या असश्चतः स सत्वभिः प्रथमो गोषु गच्छति । अनिभृष्टतविषिर्हन्त्योजसा यंयं युजं कृणुते ब्रह्मणस्पतिः ॥४॥ जिस यजमान को ब्रह्मणस्पतिदेव अपने सखा के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, उसे दैवी सामर्थ्य सतत मिलती रहती है। वह सत्यनिष्ठ व्यक्तियों के साथ सबसे पहले गोधन प्राप्त करता है। युद्ध में शत्रुओं का संहार करते हुए सदैव अजेय रहता है॥४॥ तस्मा इद्विश्वे धुनयन्त सिन्धवोऽच्छिद्रा शर्म दधिरे पुरूणि । देवानां सुम्ने सुभगः स एधते यंयं युजं कृणुते ब्रह्मणस्पतिः ॥५॥ जिस यजमान को ब्रह्मणस्पतिदेव अपने सखा के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, सारी नदियों का प्रवाह उसके अनुकूल होता है। वह सतत अनेकानेक सुखों का भोग करता है। वह सौभाग्यशाली यजमान देवों के द्वारा प्रदत्त सुख तथा समृद्धि प्राप्त करता है॥५॥

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