ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ३८

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ३८ ऋषि – कण्वो घौरः देवता- मरुतः । छंद- गायत्री कद्ध नूनं कधप्रियः पिता पुत्रं न हस्तयोः । दधिध्वे वृक्तबर्हिषः ॥१॥ हे स्तुति प्रिय मरुतो ! आप कुश के आसनों पर विराजमान हों। पुत्र को पिता द्वारा स्नेहपूर्वक गोद में उठाने के समान, आप हमें कब धारण करेंगे? ॥१॥ क्व नूनं कद्वो अर्थं गन्ता दिवो न पृथिव्याः । क्व वो गावो न रण्यन्ति ॥२॥ हे मरुतो ! आप कहाँ हैं? किस उद्देश्य से आप द्युलोक में गमन करते हैं? पृथ्वी में क्यों नहीं घूमते ? आपकी गौएँ आपके लिए नहीं भाती क्या ? (अर्थात् आप पृथ्वी रूपी गौ के समीप ही रहें ।) ॥२॥ क्व वः सुम्ना नव्यांसि मरुतः क्व सुविता । क्को विश्वानि सौभगा ॥३॥ हे मरुद्गणो ! आपके नवीन संरक्षण साधन कहाँ हैं? आपके सुख - ऐश्वर्य के साधन कहाँ हैं? आपके सौभाग्यप्रद साधन कहाँ हैं? आप अपने समस्त वैभव के साथ इस यज्ञ में आएँ ॥३॥ ययूयं पृश्निमातरो मर्तासः स्यातन । स्तोता वो अमृतः स्यात् ॥४॥ हे मातृभूमि की सेवा करने वाले आकाशपुत्र मरुतो ! यद्यपि आर्ष मरणशील हैं, फिर भी आपकी स्तुति करने वाला अमरता को प्राप्त करता है॥४॥ मा वो मृगो न यवसे जरिता भूदजोष्यः । पथा यमस्य गादुप ॥५॥ जैसे मृग, तृण को असेव्य नहीं समझता, उसी प्रकार आपकी स्तुति करने वाला आपके लिये अप्रिय न हो (अर्थात् उस पर कृपालु रहें), जिससे उसे यमलोक के मार्ग पर न जाना पड़े ॥५॥ मो षु णः परापरा निर्ऋतिर्दुर्हणा वधीत् । पदीष्ट तृष्णया सह ॥६॥ अति बलिष्ठ पापवृत्तियाँ हमारी दुर्दशा कर हमारा विनाश न करें, प्यास (अतृप्ति) से वे ही नष्ट हो जायें ॥६॥ सत्यं त्वेषा अमवन्तो धन्वञ्चिदा रुद्रियासः । मिहं कृण्वन्त्यवाताम् ॥७॥ यह सत्य ही है कि कान्तिमान्, बलिष्ठ रुद्रदेव के पुत्र वे मरुद्गण, मरुभूमि में भी अवात (वायु शून्य) स्थिति से वर्षा करते हैं॥७॥ वाश्रेव विद्युन्भिमाति वत्सं न माता सिषक्ति । यदेषां वृष्टिरसर्जि ॥८॥ जब वह मरुद्गण वर्षा का सृजन करते हैं, तो विद्युत् इँभाने वाली गाय की तरह शब्द करती है (और जिस प्रकार) गाय बछड़ों को पोषण देती है, उसी प्रकार) वह विद्युत् सिंचन करती हैं॥८॥ दिवा चित्तमः कृण्वन्ति पर्जन्येनोदवाहेन । यत्पृथिवीं व्युन्दन्ति ॥९॥ मरुद्गण जल प्रवाहक मेघों द्वारा दिन में भी अँधेरा कर देते हैं, तब वे वर्षा द्वारा भूमि को आई करते हैं॥९॥ अध स्वनान्मरुतां विश्वमा सद्म पार्थिवम् । अरेजन्त प्र मानुषाः ॥१०॥ मरुतों की गर्जना से पृथ्वी के निम्न भाग में अवस्थित सम्पूर्ण स्थान प्रकम्पित हो उठते हैं। उस कम्पन से समस्त मानव भी प्रभावित होते हैं॥१०॥ मरुतो वीळुपाणिभिश्चित्रा रोधस्वतीरनु । यातेमखिद्रयामभिः ॥११॥ हे मरुतो ! (अश्वों को नियन्त्रित करने वाले) आप बलशाली बाहुओं से, अविच्छिन्न गति से शुभ नदियों की ओर गमन करें ॥११॥ स्थिरा वः सन्तु नेमयो रथा अश्वास एषाम् । सुसंस्कृता अभीशवः ॥१२॥ हे मरुतो ! आपके रथ बलिष्ठ घोड़ों, उत्तम धुरी और चंचल लगाम से भली प्रकार अलंकृत हों ॥१२॥ अच्छा वदा तना गिरा जरायै ब्रह्मणस्पतिम् । अग्निं मित्रं न दर्शतम् ॥१३॥ हे याजको ! आप दर्शनीय मित्र के समान ज्ञान के अधिपति अग्निदेव की, स्तुति युक्त वाणियों द्वारा प्रशंसा करें ॥१३॥ मिमीहि श्लोकमास्ये पर्जन्य इव ततनः । गाय गायत्रमुक्थ्यम् ॥१४॥ हे याजको ! आप अपने मुख से श्लोक रचना कर मेघ के समान इसे विस्तारित करें। गायत्री छन्द में रचे हुए काव्य का गायन करें ॥१४॥ वन्दस्व मारुतं गणं त्वेषं पनस्युमर्किणम् । अस्मे वृद्धा असन्निह ॥१५॥ हे ऋत्विज़ो ! आप कान्तिमान्, स्तुत्य, अर्चन योग्य मरुद्गणों का अभिवादन करें। यहाँ हमारे पास इनका वास रहे ॥१५॥

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