ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १३५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १३५ ऋषि - पुरूच्छेपो दैवोदासिः देवता- १-३, ९ वायुः, ४-८ इन्द्र वायु। छंद अत्यष्टि, ७-८ अष्टि स्तीर्ण बर्हिरुप नो याहि वीतये सहस्रेण नियुता नियुत्वते शतिनीभिर्नियुत्वते । तुभ्यं हि पूर्वपीतये देवा देवाय येमिरे । प्र ते सुतासो मधुमन्तो अस्थिरन्मदाय क्रत्वे अस्थिरन् ॥१॥ हे वायुदेव ! आपके लिए ही हमारे द्वारा कुशासन (कुश का आसन) बिछाया गया है, आप सहस्रों अश्वों से युक्त रथ द्वारा हविष्यान्न ग्रहण करने के लिए यहाँ आयें। शक्तिरूपी सैकड़ों अश्वों से युक्त वायुदेव के लिए ऋत्विजों ने यह सोमरस तैयार किया है। अभिषुत मधुर सोमरस यज्ञ में आपके आनन्द के लिए प्रस्तुत है॥१॥ तुभ्यायं सोमः परिपूतो अद्रिभिः स्पार्हा वसानः परि कोशमर्षति शुक्रा वसानो अर्षति । तवायं भाग आयुषु सोमो देवेषु हूयते । वह वायो नियुतो याह्यस्मयुर्जुषाणो याह्यस्मयुः ॥२॥ हे वायुदेव ! पत्थरों द्वारा कूटकर शोधित किया हुआ तथा वाञ्छित तेजस्विता को धारण किया हुआ सोमरस कलश में स्थित है। आप शुद्ध एवं कान्तिमान् सोम के हिस्से को सर्व प्रथम ग्रहण करते हैं। मनुष्यों द्वारा सर्व प्रथम देवरूप में आपका ही आवाहन किया जाता है। हे वायुदेव ! आप स्वयं ही अश्वों को प्रेरित कर हमारे पास आने की इच्छा करें ॥२॥ आ नो नियुद्भिः शतिनीभिरध्वरं सहस्रिणीभिरुप याहि वीतये वायो हव्यानि वीतये । तवायं भाग ऋत्वियः सरश्मिः सूर्ये सचा । अध्वर्युभिर्भरमाणा अयंसत वायो शुक्रा अयंसत ॥३॥ हे वायुदेव ! आप हमारे यज्ञ में सैकड़ों और हजारों अश्वों सहित सोमरस पीने के लिए (हविष्यान्न ग्रहण करने के लिए) पधारें। आपके निमित्त ही ऋतु के अनुसार यह सोमरस तैयार किया गया है। यह सोमरस सूर्य रश्मियों के सम्पर्क से सूर्यदेव की तरह ही तेजस्विता को धारण किये हुए है। हे वायुदेव ! ऋत्विजों द्वारा यह सोमरस आपकी शक्ति को बढ़ाने के लिए कलशपात्रों में भरकर रखा गया है॥३॥ आ वां रथो नियुत्वान्वक्षदवसेऽभि प्रयांसि सुधितानि वीतये वायो हव्यानि वीतये । पिबतं मध्वो अन्धसः पूर्वपेयं हि वां हितम् । वायवा चन्द्रेण राधसा गतमिन्द्रश्च राधसा गतम् ॥४॥ हे वायुदेव ! आप और इन्द्रदेव दोनों, घोड़ों से खींचे जा रहे रथ द्वारा, भलीप्रकार निष्पादित सोम रस रूपी हविष्यान्न को ग्रहण करने तथा हमारे संरक्षण के लिए यहाँ पधारें। यहाँ आकर हमारे द्वारा तैयार किये गये सोमरस का पान करें। हे वायुदेव! आप इन्द्रदेव के साथ आनन्दप्रद ऐश्वर्य हमें प्रदान करें ॥४॥ आ वां धियो ववृत्युरध्वराँ उपेममिन्दुं मर्मृजन्त वाजिनमाशुमत्यं न वाजिनम् । तेषां पिबतमस्मयू आ नो गन्तमिहोत्या । इन्द्रवायू सुतानामद्रिभिर्युवं मदाय वाजदा युवम् ॥५॥ हे इन्द्रदेव और वायुदेव ! आप दोनों की बुद्धि सदैव यज्ञीय कर्मों के साथ रहे । जैसे गतिशील घोड़े को चालक स्वच्छ करते हैं। उसी प्रकार बलवर्धक इस सोमरस को आपके लिए हम तैयार करते हैं। हे इन्द्रदेव और वायुदेव ! आप दोनों संरक्षण साधनों के साथ यहाँ पधारकर सोमरसों का पान करें। पत्थरों द्वारा कूटकर अभिघुत, शक्ति प्रदायक सोमरसों को आप दोनों आनन्द प्राप्ति के लिए पिएँ ॥५॥ इमे वां सोमा अप्स्वा सुता इहाध्वर्युभिर्भरमाणा अयंसत वायो शुक्रा अयंसत । एते वामभ्यसृक्षत तिरः पवित्रमाशवः । युवायवोऽति रोमाण्यव्यया सोमासो अत्यव्यया ॥६॥ (हे इन्द्रदेव और वायुदेव ऋत्विजों द्वारा अभिघुत यह सोमरस यज्ञों में आप दोनों को प्राप्त हो। हे वायुदेव! दीप्तिमान् और प्रवाहित होने वाला यह सोमरस आपके लिए तिरछी धारा से पात्र में डाला जाता हैं, इस प्रकार का सोमरस आपको प्राप्त हो। अखण्डित रोम तंतुओं से छनकर सोमरस अति संरक्षक गुणों से सम्पन्न हो जाता है॥६॥ अति वायो ससतो याहि शश्वतो यत्र ग्रावा वदति तत्र गच्छतं गृहमिन्द्रश्च गच्छतम् । वि सूनृता ददृशे रीयते घृतमा पूर्णया नियुता याथो अध्वरमिन्द्रश्च याथो अध्वरम् ॥७॥ हे वायुदेव ! आप सोये हुए आलसी मनुष्यों को त्यागकर आगे चले जाते हैं। आप दोनों हमेशा वहीं जाते हैं, जहाँ सोम को पत्थरों द्वारा कूटने की ध्वनि होती है, जहाँ वेद-मन्त्रों की ध्वनि सुनाई देती है और घृताहुतियों द्वारा यज्ञ सम्पन्न किया जाता है। इन्द्रदेव और आप दोनों ही प्राणऊर्जा देने के लिए बलशाली घोड़ों के साथ उस यज्ञस्थल पर पहुँचे ॥७॥ अत्राह तद्वहेथे मध्व आहुतिं यमश्वत्थमुपतिष्ठन्त जायवोऽस्मे ते सन्तु जायवः । साकं गावः सुवते पच्यते यवो न ते वाय उप दस्यन्ति धेनवो नाप दस्यन्ति धेनवः ॥८॥ हे इन्द्रदेव और वायुदेव ! जो सोम पुरुषार्थी लोगों द्वारा पर्वतों से ओषधिरूप में प्राप्त किया जाता है, उस सोमरस को आप दोनों यहीं ले आयें । इस सोम ओषधि को पुरुषार्थी लोग प्राप्त करने में सफल हों। आपके लिए गौएँ अमृतरूपी दुध प्रदान करती हैं तथा ॐ आदि अन्न भी आपके लिए ही सोमरस में डालने के लिए पकाये जाते हैं। हे वायुदेव ! आपके लिए दुधारूगौएँ कभी कम न हों, किसी के द्वारा गौओं का अपहरण न हो ॥८ ॥ इमे ये ते सु वायो बाह्वोजसोऽन्तर्नदी ते पतयन्त्युक्षणो महि व्राधन्त उक्षणः । धन्वञ्चिद्ये अनाशवो जीराश्चिदगिरौकसः । सूर्यस्येव रश्मयो दुर्नियन्तवो हस्तयोर्दुर्नियन्तवः ॥९॥ हे श्रेष्ठ वायुदेव ! आपके ये बहुत शक्तिशाली युवा अश्व आपको द्युलोक और पृथ्वी के मध्य में सहज ही ले जाते हैं, जो मरुस्थलों में भी उतनी ही तेजगति से भागते हैं। उन अति वेगशील अश्वों का वाणों द्वारा वर्णन करना असम्भव है। जिस प्रकार सूर्य किरणों को कोई नियन्त्रित नहीं कर सकता, उसी तरह वायु की गति को हाथों द्वारा रोकना सर्वथा असम्भव है ॥९॥

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