Garbh Upanishad (गर्भ उपनिषद)

॥ श्री हरि ॥ ॥अथ गर्भोपनिषत्॥ ॥ हरिः ॐ ॥ यद्गर्भोपनिषद्वेद्यं गर्भस्य स्वात्मबोधकम् । शरीरापह्नवात्सिद्धं स्वमात्रं कलये हरिम् ॥ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ १९॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ श्री हरि ॥ ॥ गर्भोपनिषत्॥ गर्भ उपनिषद ॐ पञ्चात्मकं पञ्चसु वर्तमानं षडाश्रयं षड्गुणयोगयुक्तम् । तत्सप्तधातु त्रिमलं द्वियोनि चतुर्विधाहारमयं शरीरं भवति ॥ पञ्चात्मकमिति कस्मात् पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशमिति । अस्मिन्पञ्चात्मके शरीरे का पृथिवी का आपः किं तेजः को वायुः किमाकाशम् । तत्र यत्कठिनं सा पृथिवी यद्रवं ता आपो यदुष्णं तत्तेजो यत्सञ्चरति स वायुः यत्सुषिरं तदाकाशमित्युच्यते ॥ तत्र पृथिवी धारणे आपः पिण्डीकरणे तेजः प्रकाशने वायुर्गमने आकाशमवकाशप्रदाने । पृथक् श्रोत्रे शब्दोपलब्धौ त्वक् स्पर्श चक्षुषी रूपे जिह्वा रसने नासिकाऽऽघ्राणे उपस्थश्चानन्दनेऽपानमुत्सर्गे बुद्धया बुद्धयति मनसा सङ्कल्पयति वाचा वदति । षडाश्रयमिति कस्मात् मधुराम्ललवणतिक्तकटुकषायरसान्विन्दते । षड्जर्षभगान्धारमध्यमपञ्चमधैवतनिषादाश्चेति । इष्टानिष्टशब्दसंज्ञाः प्रतिविधाः सप्तविधा भवन्ति शुक्लो रक्तः कृष्णो धूम्रः पीतः कपिलः पाण्डुर इति । ॥ १॥ शरीर पञ्चात्मक, पाँचों में वर्तमान, छः आश्रयोंवाला, छः गुणोंके योगसे युक्त, सात धातुओंसे निर्मित, तीन मलोंसे दूषित, दो योनियोंसे युक्त तथा चार प्रकारके आहारसे पोषित होता है। पञ्चात्मक कैसे है? पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश (-इनसे रचा हुआ होनेके कारण) शरीर पञ्चात्मक है। इस शरीरमें पृथिवी क्या है? जल क्या है? तेज क्या है? वायु क्या है? और आकाश क्या है? इस शरीरमें जो कठिन तत्त्व है, वह पथिवी है। जो द्रव है, वह जल है: जो उष्ण है। वह तेज है; जो सञ्चार करता है, वह वायु है; जो छिद्र है, वह आकाश कहलाता है। इनमें पृथिवी धारण करती है, जल एकत्रित करता है, तेज प्रकाशित करता है, वायु अवयवोंको यथास्थान रखता है, आकाश अवकाश प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त श्रोत्र शब्दको ग्रहण करनेमें, त्वचा स्पर्श करनेमें, नेत्र रूप ग्रहण करनेमें, जिह्वा रसका आस्वादन करनेमें, नासिका सूँघने में, उपस्थ आनन्द लेने में तथा पायु मलोत्सर्ग के कार्यमें लगा रहता है। जीव बुद्धिद्वारा ज्ञान प्राप्त करता है, मनके द्वारा सङ्कल्प करता है, वाक्-इन्द्रियसे बोलता है। शरीर छः आश्रयोंवाला कैसे है? इसलिये कि वह मधुर, अम्ल, लवण, तिक्त, कटु और कषायइन छः रसोंका आस्वादन करता है। षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद-ये सप्त स्वर तथा इष्ट, अनिष्ट और प्रणिधानकारक (प्रणवादि) शब्द मिलाकर दस प्रकारके शब्द (स्वर) होते हैं। शुक्ल, रक्त, कृष्ण, धूम्र, पीत, कपिल और पाण्डुर-ये सप्त रूप (रंग) हैं॥१॥ सप्तधातुमिति कस्मात् यदा देवदत्तस्य द्रव्यादिविषया जायन्ते ॥ परस्परं सौम्यगुणत्वात् ष‌ड्विधो रसो रसाच्छोणितं शोणितान्मांसं मांसान्मेदो मेदसः स्नावा स्त्राव्नोऽस्थीन्यस्थिभ्यो मज्जा मज्ज्ञः शुक्रं शुक्रशोणितसंयोगादावर्तते गर्भो हृदि व्यवस्थां नयति । हृदयेऽन्तराग्निः अग्निस्थाने पित्तं पित्तस्थाने वायुः वायुस्थाने हृदयं प्राजापत्यात्क्रमात् ॥ २॥ सात धातुओंसे निर्मित कैसे है? जब देवदत्तनामक व्यक्तिको द्रव्य आदि भोग्य-विषय जुड़ते हैं, तब उनके परस्पर अनुकूल होनेके कारण षट्-पदार्थ प्राप्त होते हैं जिनसे रस बनता है। रससे रुधिर, रुधिरसे मांस, मांससे मेद, मेदसे स्नायु, स्नायुसे अस्थि, अस्थिसे मज्जा और मज्जासे शुक्र-ये सात धातुएँ उत्पन्न होती हैं। पुरुषके शुक्र और स्त्रीके रक्तके संयोगसे गर्भका निर्माण होता है। ये सब धातुएँ हृदयमें रहती हैं, हृदयमें अन्तराग्नि उत्पन्न होती है, अग्निस्थानमें पित्त, पित्तके स्थानमें वायु और वायुसे हृदयका निर्माण सृजन-क्रमसे होता है॥२॥ ऋतुकाले सम्प्रयोगादेकरात्रोषितं कलिलं भवति सप्तरात्रोषितं बुद्बुदं भवति अर्धमासाभ्यन्तरेण पिण्डो भवति मासाभ्यन्तरेण कठिनो भवति मासद्वयेन शिरः सम्पद्यते मासत्रयेण पादप्रवेशो भवति । अथ चतुर्थे मासे जठरकटिप्रदेशो भवति । पञ्चमे मासे पृष्ठवंशो भवति । षष्ठे मासे मुखनासिकाक्षिश्रोत्राणि भवन्ति । सप्तमे मासे जीवेन संयुक्तो भवति । अष्टमे मासे सर्वसम्पूर्णो भवति । पितू रेतोऽतिरिक्तात् पुरुषो भवति । मातुः रेतोऽतिरिक्तात्स्त्रियो भवन्त्युभयोर्बीजतुल्यत्वान्नपुंसको भवति । व्याकुलितमनसोऽन्धाः खञ्जाः कुब्जा वामना भवन्ति । अन्योन्यवायुपरिपीडितशुक्रद्वैध्या‌द्विधा तनुः स्यात्ततो युग्माः प्रजायन्ते ॥ पञ्चात्मकः समर्थः पञ्चात्मकतेजसेद्धरसश्च सम्यग्ज्ञानात् ध्यानात् अक्षरमोङ्कारं चिन्तयति । तदेतदेकाक्षरं ज्ञात्वाऽष्टौ प्रकृतयः षोडश विकाराः शरीरे तस्यैवे देहिनाम् । अथ मात्राऽशितपीतनाडीसूत्रगतेन प्राण आप्यायते । अथ नवमे मासि सर्वलक्षणसम्पूर्णो भवति पूर्वजातीः स्मरति कृताकृतं च कर्म विभाति शुभाशुभं च कर्म विन्दति ॥ ३॥ ऋतुकालमें सम्यक् प्रकारसे गर्भाधान होनेपर एक रात्रिमें शुक्र- शोणितके संयोगसे कलल बनता है। सात रातमें बुद्बुद बनता है। एक पक्षमें उसका पिण्ड (स्थूल आकार) बनता है। वह एक मासमें कठिन होता है। दो महीनों में वह सिरसे युक्त होता है, तीन महीनोंमें पैर बनते हैं, पश्चात् चौथे महीने गुल्फ (पैरकी घुट्ठियाँ), पेट तथा कटि- प्रदेश तैयार हो जाते हैं। पाँचवें महीने पीठकी रीढ़ तैयार होती है। छठे महीने मुख, नासिका, नेत्र और श्रोत्र बन जाते हैं। सातवें महीने जीवसे युक्त होता है। आठवें महीने सब लक्षणों से पूर्ण हो जाता है। पिताके शुक्रकी अधिकतासे पुत्र, माताके रुधिरकी अधिकतासे पुत्री तथा शुक्र और शोणित दोनोंके तुल्य होनेसे नपुंसक संतान उत्पन्न होती है। व्याकुलचित्त होकर समागम करनेसे अन्धी, कुबड़ी, खोड़ी तथा बौनी संतान उत्पन्न होती है। परस्पर वायुके संघर्षसे शुक्र दो भागों में बँटकर सूक्ष्म हो जाता है, उससे युग्म (जुड़वाँ) संतान उत्पन्न होती है। पञ्चभूतात्मक शरीरके समर्थ-स्वस्थ होनेपर चेतनामें पञ्च ज्ञानेन्द्रियात्मक बुद्धि होती है; उससे गन्ध, रस आदिके ज्ञान होते हैं। वह अविनाशी अक्षर ॐकारका चिन्तन करता है, तब इस एकाक्षरको जानकर उसी चेतनके शरीरमें आठ प्रकृतियाँ (प्रकृति, महत्-तत्त्व, अहङ्कार और पाँच तन्मात्राएँ) तथा सोलह विकार (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच स्थूल भूत तथा मन) होते हैं। पश्चात् माताका खाया हुआ अन्न एवं पिया हुआ जल नाड़ियोंके सूत्रों द्वारा पहुँचाया जाकर गर्भस्थ शिशुके प्राणोंको तृप्त करता है। तदनन्तर नवें महीने वह ज्ञानेन्द्रिय आदि सभी लक्षणोंसे पूर्ण हो जाता है। तब वह पूर्व-जन्मका स्मरण करता है। उसके शुभ-अशुभ कर्म भी उसके सामने आ जाते हैं॥३॥ नानायोनिसहस्राणि दृष्ट्वा चैव ततो मया । आहारा विविधा भुक्ताः पीताश्च विविधाः स्तनाः ॥ जातस्यैव मृतस्यैव जन्म चैव पुनः पुनः । अहो दुःखोदधौ मग्नः न पश्यामि प्रतिक्रियाम् ॥ यन्मया परिजनस्यार्थे कृतं कर्म शुभाशुभम् । एकाकी तेन दह्यामि गतास्ते फलभोगिनः ॥ यदि योन्यां प्रमुञ्चामि सांख्यं योगं समाश्रये । अशुभक्षयकर्तारं फलमुक्तिप्रदायकम् ॥ यदि योन्यां प्रमुञ्चामि तं प्रपद्ये महेश्वरम् । शुभक्षयकर्तारं फलमुक्तिप्रदायकम् ॥ यदि योन्यां प्रमुञ्चामि तं प्रपद्ये भगवन्तं नारायणं देवम् । अशुभक्षयकर्तारं फलमुक्तिप्रदायकम् । यदि योन्यां प्रमुञ्चामि ध्याये ब्रह्म सनातनम् ॥ अथ जन्तुः स्त्रीयोनिशतं योनिद्वारि सम्प्राप्तो यन्त्रेणापीड्यमानो महता दुःखेन जातमात्रस्तु वैष्णवेन वायुना संस्पृश्यते तदा न स्मरति जन्ममरणं न च कर्म शुभाशुभम् ॥ ४॥ तब जीव सोचने लगता है-'मैंने सहस्रों पूर्वजन्मोंको देखा, उनमें नाना प्रकारके भोजन किये, नाना प्रकारके-नाना योनियोंके स्तनोंका पान किया। मैं बारम्बार उत्पन्न हुआ, मृत्युको प्राप्त हुआ। अपने परिवारवालोंके लिये जो मैंने शुभाशुभ कर्म किये, उनको सोचकर मैं आज यहाँ अकेला दग्ध हो रहा हूँ। उनके भोगोंको भोगनेवाले तो चले गये, मैं यहाँ दुःखके समुद्रमें पड़ा कोई उपाय नहीं देख रहा हूँ। यदि इस योनिसे मैं छूट जाऊँगा-इस गर्भके बाहर निकल गया तो अशुभ कर्मोका नाश करनेवाले तथा मुक्तिरूप फलको प्रदान करनेवाले महेश्वरके चरणोंका आश्रय लँगा। यदि मैं योनिसे छूट जाऊँगा तो अशुभ कर्मोका नाश करनेवाले और मुक्तिरूप फल प्रदान करनेवाले भगवान् नारायणकी शरण ग्रहण करूंगा। यदि मैं योनिसे छूट जाऊँगा तो अशुभ कर्मोंका नाश करनेवाले और मुक्तिरूप फल प्रदान करनेवाले सांख्य और योगका अभ्यास करूंगा। यदि मैं इस बार योनिसे छूट गया तो मैं ब्रह्मका ध्यान करूंगा।' पश्चात् वह योनिद्वारको प्राप्त होकर योनिरूप यन्त्रमें दबाया जाकर बड़े कष्टसे जन्म ग्रहण करता है। बाहर निकलते ही वैष्णवी वायु (माया) के स्पर्शसे वह अपने पिछले जन्म और मृत्युओंको भूल जाता है और शुभाशुभ कर्म भी उसके सामनेसे हट जाते हैं॥४॥ शरीरमिति कस्मात् साक्षादग्नयो ह्यत्र श्रियन्ते ज्ञानाग्निर्दर्शनाग्निः कोष्ठाग्निरिति । तत्र कोष्ठाग्निर्नामाशितपीतलेह्यचोष्यं ा पचतीति । दर्शनाग्नी रूपादीनां दर्शनं करोति । ा ज्ञानाग्निः शुभाशुभं च कर्म विन्दति । तत्र त्रीणि स्थानानि भवन्ति हृदये दक्षिणाग्निरुदरे गार्हपत्यं मुखमाहवनीयमात्मा यजमानो बुद्धि पत्नीं निधाय मनो ब्रह्मा लोभादयः पशवो धृतिर्दीक्षा सन्तोषश्च बुद्धीन्द्रियाणि यज्ञपात्राणि कर्मेन्द्रियाणि हवींषि शिरः कपालं केशा दर्भा मुखमन्तर्वेदिः चतुष्कपालं शिरः षोडश पार्श्वदन्तोष्ठपटलानि सप्तोत्तरं मर्मशतं साशीतिकं सन्धिशतं सनवकं स्नायुशतं सप्त शिरासतानि पञ्च मज्जाशतानि अस्थीनि च ह वै त्रीणि शतानि षष्टिश्चार्धचतस्रो रोमाणि कोट्यो हृदयं पलान्यष्टौ द्वादश पलानि जिह्वा पित्तप्रस्थं कफस्याढकं शुक्लं कुडवं मेदः प्रस्थौ द्वावनियतं मूत्रपुरीषमाहारपरिमाणात् । पैप्पलादं मोक्षशास्त्रं परिसमाप्तं पैप्पलादं मोक्षशास्त्रं परिसमाप्तमिति ॥ देह-पिण्डका 'शरीर' नाम कैसे होता है? इसलिये कि ज्ञानाग्नि, दर्शनाग्नि तथा जठराग्निके रूपमें अग्नि इसमें आश्रय लेता है। इनमें जठराग्नि वह है, जो खाये, पिये, चाटे और चूसे हुए पदार्थोंको पचाता है। दर्शनाग्नि वह है, जो रूपोंको दिखलाता है; ज्ञानाग्नि शुभाशुभ कर्मोको सामने खड़ा कर देता है। अग्निके शरीरमें तीन स्थान होते हैं-आहवनीय अग्नि मुखमें रहता है। गार्हपत्य अग्नि उदरमें रहता है और दक्षिणाग्नि हृदयमें रहता है। आत्मा यजमान है, मन ब्रह्मा है, लोभादि पशु हैं, धैर्य और संतोष दीक्षाएँ हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ यज्ञके पात्र हैं, कर्मेन्द्रियाँ हवि (होम करनेकी सामग्री) हैं, सिर कपाल है, केश दर्भ हैं, मुख अन्तर्वेदिका है, सिर चतुष्कपाल है, पार्श्वकी दन्तपङ्कियाँ षोडश कपाल हैं, एक सौ सात मर्मस्थान हैं, एक सौ अस्सी संधियाँ हैं, एक सौ नौ स्नायु हैं, सात सौ शिराएँ हैं, पाँच सौ मज्जाएँ हैं, तीन सौ साठ अस्थियाँ हैं, साढ़े चार करोड़ रोम हैं, आठ पल (तोले) हृदय है, द्वादश पल (बारह तोला) जिह्वा है, प्रस्थमात्र (एक सेर) पित्त, आढकमात्र (ढाई सेर) कफ, कुडवमात्र (पावभर) शुक्र तथा दो प्रस्थ (दो सेर) मेद है; इसके अतिरिक्त शरीरमें आहारके परिमाणसे मल- मूत्रका परिमाण अनियमित होता है। यह पिप्पलाद ऋषिके द्वारा प्रकटित मोक्षशास्त्र है, पैप्पलाद मोक्षशास्त्र है॥५॥ ॥ हरिः ॐ ॥ शान्तिपाठ ॥ हरिः ॐ ॥ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ १९॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ ॥ इति गर्भोपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ गर्भ उपनिषद समात ॥

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