Mandal Brahman Upanishad Second Brahman (मण्डल ब्राह्मण उपनिषद) द्वितीय ब्राह्मण

॥ श्री हरि ॥ ॥ मण्डलब्राह्मणोपनिषत् ॥ ॥ मण्डल ब्राह्मण उपनिषद ॥ द्वितीयं ब्राह्मणम्-द्वितीय ब्राह्मण अथ ह याज्ञवल्क्य आदित्यमण्डलपुरुषं पप्रच्छ । भगवन्नन्तर्लक्ष्यादिकं बहुधोक्तम् । मया तन्न ज्ञातम् । तद्ब्रूहि मह्यम् । तदुहोवाच पञ्चभूत- कारणं तडित्कूटाभं तद्वच्चतुःपीठम् । तन्मध्ये तत्त्वप्रकाशो भवति । सोऽतिगूढ अव्यक्तश्च । तज्ज्ञानप्लवाधिरूढेन ज्ञेयम् । तद्वाह्याभ्यन्तर्लक्ष्यम् । तन्मध्ये जगल्लीनम् । तन्नादबिन्दुकलातीतमखण्डमण्डलम् । तत्सगुणनिर्गुणस्वरूपम् । तद्वेत्ता विमुक्तः । आदावग्निमण्डलम् । तदुपरि सूर्यमण्डलम् । तन्मध्ये सुधाचन्द्रमण्डलम् । तन्मध्येऽ खण्डब्रह्मतेजोमण्डलम् । तद्विद्युल्लेखावच्छुक्ल- भास्वरम् । तदेव शाम्भवीलक्षणम् । तद्दर्शने तिस्रो मूर्तय अमा प्रतिपत्पूर्णिमा चेति । निमीलितदर्शनममादृष्टिः । अर्धोन्मीलितं प्रतिपत् । सर्वोन्मीलनं पूर्णिमा भवति । तासु पूर्णिमाभ्यासः कर्तव्यः तल्लक्ष्यं नासाग्रम् । तदा तालुमूले गाढतमो दृश्यते । तदभ्यासादखण्डमण्डलाकार- ज्योतिर्दृश्यते । तदेव सच्चिदानन्दं ब्रह्म भवति । एवं सहजानन्दे यदा मनो लीयते तदा शान्तो भवी भवति । तामेव खेचरीमाहुः । तदभ्यासान्मनः स्थैर्यम् । ततो वायुस्थैर्यम् । तच्चिह्नानि । आदौ तारकवदृश्यते । ततो वज्रदर्पणम् । तत उपरि पूर्णचन्द्रमण्डलम् । ततो वह्निशिखामण्डलं क्रमादृश्यते ॥ १॥ इसके पश्चात् ऋषि याज्ञवल्क्य ने आदित्य मण्डल में स्थित पुरुष से प्रश्न किया-भगवन् ! अन्तर्लक्ष्य आदि के विषय में बहुत कुछ कहा गया। उसे मैं नहीं समझ सका। उसे अब आप स्वयं ही मुझे समझाएँ ॥ (यह सुनकर) सूर्यनारायण ने कहा-पञ्चभूतों का आदिकारण विद्युत् पुंज के समान है, उसमें एक चतुःपीठ है, जिसके बीच में तत्त्व का प्रकाश होता है, वह प्रकाश अतिगूढ़ और अव्यक्त है। वह (अव्यक्त प्रकाश) ज्ञानरूपी प्लव (नौका) में आरूढ़ व्यक्ति के लिए जानने योग्य है। वह बाह्य और आभ्यन्तर लक्ष्य है। उसी के मध्य जगत् लीन हो जाता है। वह नाद, बिन्दु और कला से परे अखण्ड मण्डल है। वह सगुण और निर्गुण स्वरूप है। उसको जानने वाला विमुक्त हो जाता है॥ सर्वप्रथम अग्नि मण्डल है। उसके ऊपर सूर्य मण्डल है। उसके बीच में सुधा स्वरूप चन्द्र मण्डल है। उसके बीच में अखण्ड ब्रह्म का तेजोमण्डल है। वह विद्युत् रेखावत् श्वेत और प्रकाशमान है। वही शाम्भवी मुद्रा का लक्षण है। उसका दर्शन करने से तीन स्वरूप दृष्टि में आते हैं। ये रूप-अमावस्या, प्रतिपदा और पूर्णिमा रूप हैं। निमीलित (पलक बन्द होने की स्थिति) दृष्टि अमावस्या स्वरूप है, अर्धनिमीलित दृष्टि प्रतिपदा स्वरूप है। और पूरी तरह खुली हुई दृष्टि पूर्णिमा स्वरूप है। इसलिए पूर्णिमा रूप दृष्टि का ही अभ्यास करना चहिए। उस (पूर्णिमारूप दृष्टि) का लक्ष्य नासिकाग्र है। जिस समय तालुमूल में प्रगाढ़ अन्धकार के दर्शन होते हैं, उस समय अभ्यास के द्वारा अखण्ड मण्डलाकार ज्योति दिखाई देती है। वही सच्चिदानन्द ब्रह्म है। इस प्रकार जब सहजानन्द में मन लीन हो जाता है, तब शाम्भवी मुद्रा (सिद्ध) होती है और उसे ही खेचरी मुद्रा कहते हैं। उसके अभ्यास से मन स्थिर हो जाता है, तत्पश्चात् बुद्धि स्थिर होती है। उसके चिह्न इस प्रकार हैं- सर्वप्रथम तारा के समान दिखाई देता है, तत्पश्चात् वज्र दर्पण (अर्थात् हीरे का दर्पण) जैसा दिखाई देता है, इसके पश्चात् पूर्ण चन्द्र मण्डल दिखाई देता है, इसके बाद नवरत्न प्रभा का मण्डल दृश्यमान होता है, इसके बाद मध्याह्न का सूर्य मण्डल परिलक्षित होता है, तत्पश्चात् क्रमशः अग्निशिखा मण्डल दिखाई देता है॥१॥ तदा पश्चिमाभिमुखप्रकाशः स्फटिकधूम्र- ा बिन्दुनादकलानक्षत्रखद्योतदीपनेत्रसवर्णनव- रत्नादिप्रभा दृश्यन्ते । तदेव प्रणवस्वरूपम् । प्राणापानयोरैक्यं कृत्वा धृतकुम्भको नासाग्र- दर्शनदृढभावनया द्विकराङ्‌गुलिभिः षण्मुखी- करणेन प्रणवध्वनिं निशम्य मनस्तत्र लीनं भवति । तस्य न कर्मलेपः । रवेरुदयास्तमययोः किल कर्म कर्तव्यम् । एवंविदश्चिदादित्यस्योदयास्तमयाभावा- त्सर्वकर्माभावः । शब्दकाललयेन दिवारात्र्यतीतो भूत्वा सर्वपरिपूर्णज्ञानेनोन्यान्यवस्थावशेन ब्रह्मक्यं भवति । उन्मन्या अमनस्कं भवति । तस्य निश्चिन्ता ध्यानम् । सर्वकर्मनिराकरणमावाहनम् । निश्चयज्ञानमासनम् । उन्मनीभावः पाद्यम् । सदाऽमनस्कमर्ध्यम् । सदादीप्तिरपारामृतवृत्तिः स्नानम् । सर्वत्र भावना गन्धः । दृक्स्वरूपावस्थान- मक्षताः । चिदाप्तिः पुष्पम् । चिदग्निस्वरूपं धूपः । चिदादित्यस्वरूपं दीपः । परिपूर्णचन्द्रामृतरसस्यैकीकरणं नैवेद्यम् । निश्चलत्वं प्रदक्षिणम् । सोहंभावो नमस्कारः । मौनं स्तुतिः । सर्वसन्तोषो विसर्जनमिति य एवं वेद । ॥ २॥ उस समय वह पश्चिमाभिमुख (आन्तरिक) प्रकाश दृष्टिगोचर होता है, जिसकी आभा धूम्र वर्णिक स्फटिकमणि तुल्य, बिन्दु (मनस्तत्त्व), नाद (बुद्धि तत्त्व), कला (महत्तत्त्व), नक्षत्र, खद्योत (जुगनू), दीप, नेत्र, सुवर्ण और नवरत्न आदि जैसी होती है। वही प्रणव (ॐ) का स्वरूप है॥ प्राण और अपान वायु को एक करके कुम्भक धारण करे, तत्पश्चात् नासिकाग्र पर दृष्टि को एकाग्र करके दृढ़ भावना से करद्वय (दोनों हाथों) की अँगुलियों से षण्मुखी मुद्रा धारण करके 'प्रणव' (ॐ) नाद का श्रवण करे, इसमें मन लीन हो जाता है। ऐसा अभ्यास करने वाले को कर्म लिप्त नहीं करते। रवि के उदय और अस्त के समय (प्रात:- सायं) कर्म (धर्मकृत्य) सम्पन्न किये जाते हैं, किन्तु चिदादित्य (चैतन्य स्वरूप आदित्य) का तो उदय-अस्त होता ही नहीं, इसलिए उसे जानने (अथवा दर्शन करने वाले के लिए कोई कर्म शेष नहीं रहते ॥ शब्द और काल के लय हो जाने से मनुष्य दिवा और रात्रि से अतीत होकर सभी का परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है, जिसके द्वारा उन्मनी अवस्था प्राप्त होती है और ब्रह्म के साथ एकत्व हो जाता है। उन्मनी अवस्था से व्यक्ति अमनस्क हो जाता है ॥ निश्चिन्त अवस्था ही उसका ध्यान है। समस्त कर्मों का निराकरण (दूर करना) ही उसका आवाहन है। निश्चय ज्ञान ही उसका आसन है। उन्मन भाव (मनरहित होना) ही उसका पाद्य है। सदैव अमनस्क भाव ही अर्घ्य है। सतत दीप्ति और अपार अमृतवृत्ति ही उसका स्नान है। सर्वत्र ब्रह्म भावना ही गन्ध है। दर्शन के स्वरूप का अवस्थान ही अक्षत है। चैतन्य की प्राप्ति ही पुष्प है। चैतन्य अग्नि का स्वरूप ही धूप है। चैतन्य आदित्य का स्वरूप ही दीप है। पंरिपूर्ण चन्द्र के अमृत का एकीकरण ही नैवेद्य है। निश्चलत्व ही प्रदक्षिणा है। 'सोऽहम्' भाव ही नमस्कार है। मौन ही स्तुति है। सभी प्रकार का सन्तोष ही उसका विसर्जन है। जो इस प्रकार जानता है (वह ब्रह्म स्वरूप हो जाता है) ॥२॥ एवं त्रिपुट्यां निरस्तायां निस्तरङ्ग समुद्रवन्निवात- स्थितदीपवदचलसम्पूर्णभावाभावविहीनकैवल्यद्योतिर्भवति । जाग्रन्निन्दान्तःपरिज्ञानेन ब्रह्मविद्भवति । सुषुप्तिसमाध्योर्मनोलयाविशेषेऽपि महदस्त्युभयो- भेदस्तमसि लीनत्वान्मुक्तिहेतुत्वाभावाच्च । समाधौ मृदिततमोविकारस्य तदाकाराकारिताखण्डाकार- वृत्त्यात्मकसाक्षिचैतन्ये प्र रपञ्चलयः सम्पद्यते प्रपञ्चस्य मनःकल्पितत्वात् । ततो भेदाभावात्कदाचि- द्वहिर्गतेऽपि मिथ्यात्वभानात् । सकृद्विभातसदानन्दा- नुभवैकगोचरो ब्रह्मवित्तदेव भवति । यस्य सङ्कल्पनाशः स्यात्तस्य मुक्तिः करे स्थिता । तस्माद्भावाभावौ परित्यज्य परमात्मध्यानेन मुक्तो भवति । पुनःपुनः सर्वावस्थासु ज्ञानज्ञेयौ ध्यानध्येयौ लक्ष्यालक्ष्ये दृश्यादृश्ये चोहापोहादि परित्यज्य जीवन्मुक्तो भवेत्। य एवं वेद ॥ ३॥ इस प्रकार जब (ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय स्वरूप) त्रिपुटी निरस्त (दूर) हो जाती है, तब तरंगहीन सागर के समान, वायुरहित स्थान में स्थित दीपक की तरह अचल, सम्पूर्ण भाव और अभाव से विहीन कैवल्य- ज्योति प्रकट होती है, अर्थात् मात्र कैवल्यज्योति शेष रहती है॥ मंडलब्राह्मणोपनिषद् जिसे जाग्रदवस्था और निद्रावस्था में भी अन्तर्ज्ञान बना रहता है, वह ब्रह्मविद् होता है। सुषुप्ति और समाधि की स्थिति में मनोलय समान होने पर भी दोनों में महान् भेद है। सुषुप्ति में मन अज्ञान में लय हो जाता है, जिससे मुक्ति की स्थिति नहीं बनती ॥ समाधि अवस्था में तमोविकार विनष्ट हो जाता है, जिसके कारण तदाकार और अखण्डाकार बने हुए वृत्ति रूप साक्षिचैतन्य में प्रपञ्च का विलय हो जाता है; क्योंकि प्रपञ्च मनः कल्पित होता है॥ तत्पश्चात् भेद के अभाव में समाधि से बाहर आने पर भी प्रपञ्च के मिथ्यात्व का बोध बना रहता है। एक बार सदानन्द का अनुभव हो जाने से वही प्रमुख विषय हो जाता है। इस प्रकार ब्रह्म को जानने वाला (ब्रह्मविद्) ब्रह्म ही हो जाता है। जिसके संकल्प विनष्ट हो गये हैं, उसी के हाथ में मुक्ति है। इसलिए (वह साधक) भाव और अभाव का परित्याग करके परमात्मा का ध्यान करने से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार समस्त अवस्थाओं में बारम्बार ज्ञान और ज्ञेय, ध्यान और ध्येय, लक्ष्य और अलक्ष्य, दृश्य और अदृश्य तथा ऊहापोह आदि का परित्याग करके मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है। (वह ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है) ॥३॥ पञ्चावस्थाः जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयतुरीयातीताः । जाग्रति प्रवृत्तो जीवः प्रवृत्तिमार्गासक्तः । पापफलनरकादिमांस्तु शुभकर्मफलस्वर्गमस्त्विति काङ्खते । स एव स्वीकृतवैराग्यात्कर्मफलजन्माऽलं संसारबन्धनमलमिति विमुक्त्यभिमुखो निवृत्तिमार्ग- प्रवृत्तो भवति । स एव संसारतारणाय गुरुमाश्रित्य कामादि त्यक्त्वा विहितकर्माचरन्साधनचतुष्टयसम्पन्नो हृदयकमलमध्ये भगवत्सत्तामात्रान्तर्लक्ष्यरूपमासाद्य सुषुप्त्यवस्थाया मुक्तब्रह्मानन्दस्मृतिं लब्ध्वा एक एवाहमद्वितीयः कञ्चित्कालमज्ञानवृत्त्या विस्मृतजाग्रद्वासनानुफलेन तैजसोऽस्मीति तदुभयनिवृत्त्या प्राज्ञ इदानीमस्मीत्यहमेक एव स्थानभेदादवस्थाभेदस्य परंतु नहि मदन्यदिति जातविवेकः शुद्धाद्वैतब्रह्माहमिति भिदागन्धं निरस्य स्वान्तर्विजृम्भितभानुमण्डलध्यान- तदाकाराकारितपरंब्रह्माकारितमुक्तिमार्गमारूढः परिपक्वो भवति । सङ्कल्पादिकं मनो बन्धहेतुः । तद्वियुक्तं मनो मोक्षाय भवति । तद्वांश्चक्षुरादिबाह्यप्रपञ्चरतो विगतप्रपञ्चगन्धः सर्वजगदात्मत्वेन पश्यंस्त्यक्ताहङ्कारो ब्रह्माहमस्मीति चिन्तयन्निदं सर्वं यदयमात्मेति भावयन्कृतकृत्यो भवति ॥ ४॥ पाँच अवस्थाएँ होती हैं-जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत ॥ इन पाँच अवस्थाओं में से जाग्रदवस्था में जीव प्रवृत्ति मार्ग में प्रवृत्त होता है, जिससे वह यह आकांक्षा करता है कि पाप का फल नरक मुझे न प्राप्त हो और शुभ कर्मों का फल स्वर्ग मुझे अवश्य प्राप्त हो॥ इस प्रकार वही जीव जब वैराग्य को स्वीकार कर लेता है, तब कर्मफल स्वरूप जन्म और संसार रूप बन्धन से मुक्ति प्राप्त करने का आकांक्षी होकर मुक्तिं की ओर अग्रसर होता है और निवृत्ति पथगामी होता है॥ (तत्पश्चात्) वही जीव संसार सागर से पार होने हेतु गुरु का आश्रय लेकर, कामादि (विकारों का) परित्याग करके विहित (वेदोक्त) कर्म का आचरण करता हुआ साधन चतुष्टय (विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व) से सम्पन्न होता है और हृदय कमल के मध्य एकमात्र भगवत्सत्ता को अन्तर्लक्ष्य करके एक उसी के रूप का आश्रय लेकर सुषुप्ति अवस्था से मुक्त ब्रह्मानन्द की स्मृति पाकर ऐसा विचारता है (अनुभव करता है) कि मैं एक और अद्वितीय ही हूँ; किन्तु कुछ काल पूर्व अज्ञान ग्रसित होकर आत्म स्वरूप को भूल गया था और जाग्रदवस्था में स्थित वासना के फलस्वरूप स्वप्न में मेरा यह मानना था कि 'मैं तैजस हूँ।' उसी प्रकार जाग्रत् और स्वप्न इन दोनों अवस्थाओं से निवृत्ति हो जाने पर (सुषुप्तावस्था में) 'मैं प्राज्ञ हूँ। ऐसा मानता था; किन्तु अब 'मैं एक ही हूँ' ऐसा अनुभव होता है। स्थान भेद के कारण वे अलग-अलग अवस्थाएँ थीं; किन्तु मुझसे अतिरिक्त कुछ भी नहीं था, ऐसा विवेक होने से 'मैं शुद्ध अद्वैत ब्रह्म हूँ' यह अनुभव होता है, जिसके कारण भेदभाव की समस्त वासनाएँ (आरोपित वृत्तियाँ) दूर हो जाती हैं। साधक अपने भीतर प्रकाशित तेजोमण्डल का ध्यान करने से तदाकार बनकर परब्रह्म के स्वरूप को पाकर मुक्तिपथारूढ़ होता है और परिपक्व हो जाता है॥ संकल्प आदि से युक्त मन बन्धन का और उससे रहित मन मोक्ष का कारण होता है। उससे सम्पन्न (जीवित अवस्था में ही मोक्ष प्राप्त कर लेने वाला) साधक चक्षु आदि बाह्य प्रपञ्चों से उपरत हो जाता है। उसमें प्रपञ्चों की गन्ध तक शेष नहीं रहती। वह सम्पूर्ण जगत् को आत्म स्वरूप में देखता है और त्यक्त अहंकार होकर 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा चिन्तन करता हुआ 'यह सब कुछ आत्मा ही है, ऐसी भावना करता हुआ कृतकृत्य हो जाता है ॥४॥ सर्वपरिपूर्णतुरीयातीतब्रह्मभूतो योगी भवति । तं ब्रह्मेति स्तुवन्ति । सर्वलोकस्तुतिपात्रः सर्वदेश- संचारशीलः परमात्मगगने बिन्दुं निक्षिप्य शुद्धाद्वैताजाड्यसहजामनस्कयोगनिद्राखण्डा- नन्दपदानुवृत्त्या जीवन्मुक्तो भवति । तच्चानन्द- समुद्रमग्ना योगिनो भवन्ति । तदपेक्षया इन्द्रादयः स्वल्पानन्दाः । एवं प्राप्तानन्दः परमयोगी भवतीत्युपनिषत् ॥ ५॥ सब प्रकार से परिपूर्ण होकर वह तुरीयातीत योगी ब्रह्म स्वरूप हो जाता है। यह ब्रह्म है, लोग इस प्रकार उसकी स्तुति करते हैं। वह समस्त लोकों की स्तुति का पात्र बनता है, समस्त लोकों में संचार करने वाला होता है और परमात्मा रूप गगन में बिन्दु स्थापित करके (चिदाकाश में मन को विलीन करके) शुद्ध, अद्वैत, जड़तारंहित, सहज और अमनस्क स्थिति रूपी योगनिद्रा में अखण्डानन्द का अनुसरण करके जीवन्मुक्त हो जाता है। उस आनन्द के समुद्र में मग्न रहने वाले (सिद्ध) योगी कहे जाते हैं। उन योगियों की अपेक्षा इन्द्रादि देवगण भी स्वल्प आनन्द प्राप्त करने वाले होते हैं। इस प्रकार परमानन्द प्राप्त करने वाला परम योगी होता है, यह (अद्भुत) रहस्य है॥५॥ ॥ इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥ २॥ ॥ द्वितीय ब्राह्मण समात ॥

Recommendations