ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त २१

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त २१ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र । छंद - त्रिष्टुप, आ यात्विन्द्रोऽवस उप न इह स्तुतः सधमादस्तु शूरः । वावृधानस्तविषीर्यस्य पूर्वीर्यौर्न क्षत्रमभिभूति पुष्यात् ॥१॥ वे इन्द्रदेव द्युलोक की तरह तेजस् सम्पन्न हैं। उनके प्रभूत बल है। वे हमारी सुरक्षा के लिए पधारें। स्तुतियों से सन्तुष्ट होकर इस यज्ञ में हमें हर्ष प्रदान करें तथा रिपुओं को पराजित करने वाले बल को पुष्ट करें ॥१॥ तस्येदिह स्तवथ वृष्ण्यानि तुविद्युम्नस्य तुविराधसो नृन् । यस्य क्रतुर्विदथ्यो न सम्राट् साह्वान्तरुत्रो अभ्यस्ति कृष्टीः ॥२॥ जो इन्द्रदेव शासक के समान रिपुओं को पराजित तथा उनका विनाश करने वाले हैं, उनकी कुशलता और सामर्थ्य मनुष्यों पर नियन्त्रण करती है। हे याजको ऐसे ओजस्वी और प्रचुर ऐश्वर्य वाले देव की आप प्रार्थना करें ॥२॥ आ यात्विन्द्रो दिव आ पृथिव्या मधू समुद्रादुत वा पुरीषात् । स्वर्णरादवसे नो मरुत्वान्परावतो वा सदनादृतस्य ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! आप सभी मरुद्गणों के साथ दिव्यलोक से, भूलोक से, अन्तरिक्ष लोक से, जल से, सूर्यलोक से, दूर प्रदेश से तथा यज्ञस्थल से हमारी सुरक्षा के लिए पधारें ॥३॥ स्थूरस्य रायो बृहतो य ईशे तमु ष्टवाम विदथेष्विन्द्रम् । यो वायुना जयति गोमतीषु प्र धृष्णुया नयति वस्यो अच्छ ॥४॥ जो इन्द्रदेव समस्त महान् ऐश्वर्यों के अधिपति हैं, जो प्राणरूपी शक्ति के सहयोग से गौओं की प्राप्ति के निमित्त संग्राम में शत्रु की सेनाओं पर विजय प्राप्त करते हैं। जो याजकों को श्रेष्ट्र ऐश्वर्य प्रदान करते हैं, उन इन्द्रदेव की हम इस यज्ञमण्डप में स्तुति करते हैं ॥४॥ उप यो नमो नमसि स्तभायन्नियर्ति वाचं जनयन्यजध्यै । ऋञ्जसानः पुरुवार उक्थैरेन्द्रं कृण्वीत सदनेषु होता ॥५॥ जो इन्द्रदेव समस्त लोकों को आश्रय प्रदान करते हैं और यज्ञ करने वाले याजकों के निमित्त गर्जनापूर्वक जल बरसाते-अन्न उपलब्ध कराते हैं। जो स्तोत्रों द्वारा वंदनीय हैं तथा कर्मों को पूर्ण करने वाले हैं; उन इन्द्रदेव को याजकगण यज्ञों में हर्षित करते हैं ॥५॥ धिषा यदि धिषण्यन्तः सरण्यान्त्सदन्तो अद्रिमौशिजस्य गोहे । आ दुरोषाः पास्त्यस्य होता यो नो महान्त्संवरणेषु वह्निः ॥६॥ उशिक् वंशज के आवास पर स्तोतागण स्तुति करते हुए जब सोम कूटने के लिए तत्पर होते हैं, तब वे इन्द्रदेव आगमन करते हैं। वे संग्राम में हम मनुष्यों की सहायता करने वाले हैं। वे याजकों द्वारा आयोजित यज्ञ के सम्पादक हैं। उनका क्रोध अत्यन्त भयंकर है ॥६॥ सत्रा यदीं भार्वरस्य वृष्णः सिषक्ति शुष्मः स्तुवते भराय । गुहा यदीमौशिजस्य गोहे प्र यद्धिये प्रायसे मदाय ॥७॥ जगत् का पालन-पोषण करने वाले प्रजापति के पुत्र तथा अभीष्ट की वर्षा करने वाले इन्द्रदेव की सामर्थ्य स्तुति करने वाले याजकों की सुरक्षा करती है। वह सामर्थ्य याजकों का पोषण करने के लिए उनके गुफा रूप हृदय में प्रकट होती है। वह सामर्थ्य याजकों के अंतरंग तथा कर्म में विद्यमान रहती है। उनके हर्ष तथा कामनाओं की प्राप्ति के लिए पैदा होकर उनका सदैव पालन करती है ॥७॥ वि यद्वरांसि पर्वतस्य वृण्वे पयोभिर्जिन्वे अपां जवांसि । विदद्गौरस्य गवयस्य गोहे यदी वाजाय सुध्यो वहन्ति ॥८॥ इन्द्रदेव ने मेघों को आवरणरहित किया और सरिताओं के प्रवाह को जल से परिपूर्ण किया, उन शक्तिशाली इन्द्रदेव के लिए मेधावी यजमान जब यज्ञमण्डप पर सोमरस तैयार करते हैं, तब वे याजकों को गौ आदि धन-धान्य प्रदान करते हैं ॥८॥ भद्रा ते हस्ता सुकृतोत पाणी प्रयन्तारा स्तुवते राध इन्द्र । का ते निषत्तिः किमु नो ममत्सि किं नोदुदु हर्षसे दातवा उ ॥९॥ है इन्द्रदेव ! आपके हितकारी दोनों हाथ श्रेष्ठ कर्म करने वाले हैं तथा याजक को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं। हे इन्द्रदेव ! आपका निवास स्थान कहाँ है ? आप हमें हर्षित क्यों नहीं करते ? हमें ऐश्वर्य प्रदान करने के लिए आप शीघ्र ही प्रसन्न क्यों नहीं होते ? ॥९॥ एवा वस्व इन्द्रः सत्यः सम्राडून्ता वृत्रं वरिवः पूरवे कः । पुरुष्टुत क्रत्वा नः शग्धि रायो भक्षीय तेऽवसो दैव्यस्य ॥१०॥ इस प्रकार प्रशंसित होकर सत्यनिष्ठ, धन के स्वामी तथा वृत्र को मारने वाले, इन्द्रदेव याजकों को ऐश्वर्य प्रझन करते हैं। है बहुप्रशंसित इन्द्रदेव ! हम मनुष्यों की प्रार्थनाओं से सन्तुष्ट होकर आप हमें धन- धान्य प्रदान करें, जिससे हम श्रेष्ठ ऐश्वर्य का सेवन कर सकें ॥१०॥ नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः । अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः ॥११॥ हे इन्द्रदेव ! आप प्राचीन ऋषियों द्वारा स्तुत होकर तथा हमारे द्वारा प्रशंसित होकर हमें सरिताओं के सदृश अन्नों से परिपूर्ण करें। हे अश्ववान् इन्द्रदेव ! हम अपनी बुद्धि द्वारा आपके लिए अभिनव स्तोत्रों का गान करते हैं, जिससे हम रथों तथा दासों से सम्पन्न हों ॥११॥

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