Shandilyopanishad Chapter 1 Part 5 (शाण्डिल्योपानिषद प्रथम अध्याय - पाँचवां खण्ड)

प्रथमाध्याये-पंचम खण्डः प्रथम अध्याय-पाँचवां खण्ड यमनियमयुतः पुरुषः सर्वसङ्गविवर्जितः कृतविद्यः सत्यधर्मरतो जितक्रोधो गुरुशुश्रूषानिरतः पितृमातृविधेयः स्वाश्रमोक्तसदाचारविद्वच्छिक्षितः फलमूलोदकान्वितं तपोवनं प्राप्य रम्यदेशे ब्रह्मघोषसमन्विते स्वधर्मनिरतब्रह्मवित्समावृते फलमूलपुष्पवारिभिः सुसंपूर्णे देवायतने नदीतीरे ग्रामे नगरे वापि सुशोभनमठं नात्युच्चनीचायतमल्पद्वारं गोमयादिलिप्तं सर्वरक्षासमन्वितं कृत्वा तत्र वेदान्तश्रवणं कुर्वन्योगं समारभेत् ॥१॥ जिस पुरुष ने विद्या का अभ्यास किया हो, उसको यम-नियम से युक्त होकर सभी तरह की संगति का परित्याग करके सत्य रूपी धर्म में आरूढ़ होना चाहिए। क्रोध को वश में रखना, गुरु की सेवा सुश्रूषा में सतत लगे रहना, माता-पिता के आश्रित संरक्षण में रहना तथा पुनः अपने आश्रम में बताये गये श्रेष्ठ आचरण को समझने वाले के समीप में शिक्षा पाकर के फल, मूल तथा जल युक्त तपोवन में जाना चाहिए। वहाँ जाकर सुरम्य प्रदेश में ब्रह्मघोष से युक्त, अपने धर्म में परायण ब्रह्मवेत्ताओं के सान्निध्य में तथा फल-मूल, पुष्प एवं जल आदि से परिपूर्ण किसी भी देव-स्थल में या नदी के तट पर किसी गाँव या शहर में अनुपम श्रेष्ठ मठ बनाना चाहिए। वह स्थान न तो बहुत ऊँचा हो और न ही अत्यन्त नीचा ही हो, न तो बहुत लम्बा तथा न ही अति चौड़ा ही हो। छोटे दरवाजे वाला, गोमय आदि से लीपा हुआ एवं पूर्णरूपेण सुरक्षित होना चाहिए। वहाँ वेदान्त का श्रवण करते हुए पुरुष को निरन्तर योगाभ्यास आदि आरम्भ कर देना चाहिए ॥ १॥ आदौ विनायकं संपूज्य स्वेष्टदेवतां नत्वा पूर्वोक्तासने स्थित्वा प्राड्मुख उदङ्‌मुखो वापि मृद्वासनेषु जितासनगतो विद्वान्समग्रीवशिरोनासाग्रदृग्भ्रूमध्ये शशभृद्विम्बं पश्यन्नेत्राभ्याममृतं पिबेत्। द्वादशमात्रया इडया वायुमापूर्योदरे स्थितं ज्वालावलीयुतं रेफबिन्दुयुक्तमग्निमण्डलयुतं ध्यायेद्रेचयेत्पिङ्ग‌लया। पुनः पिङ्गलयाऽऽ पूर्य कुम्भित्वा रेचयेदिडया ॥२॥ देवों में प्रथम पूज्य गणपति का पूजन करने के पश्चात् अपने इष्टदेव को नमन-वंदन करके पूर्व में कहे गये आसन पर बैठना चाहिए। उस समय पूर्व अथवा उत्तर दिशा की तरफ मुख रखना और सुकोमल आसन पर आसीन होकर के आसन को सिद्ध करना चाहिए। तत्पश्चात् विद्वान् पुरुष को गर्दन और मस्तक को सीधा रखकर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखनी चाहिए। दोनों भौंहों के मध्य चन्द्रमण्डल को देखना तथा दोनों नेत्रों से अमृत तत्त्व का पान करना चाहिए। इसके बाद बारह मात्राओं से इड़ा नाड़ी के माध्यम से वायु खींचकर उसे पेट के अन्दर रहने वाले, ज्वालाओं से युक्त, रेफ और बिन्दु सहित अग्नि मण्डल से संयुक्त करने का चिन्तन करना चाहिए तथा इसके बाद पिंगला नाड़ी द्वारा अन्दर की वायु को बाहर निकालना चाहिए। तदनन्तर पिंगला से वायु भरकर अन्तः कुम्भक करके इड़ा नाड़ी से उसे बाहर निकालना चाहिए ॥२॥ त्रिचतुस्त्रिचतुःसप्तत्रिचतुर्मासपर्यन्तं त्रिसंधिषु तदन्तरालेषु च षट्कृत्व आचरेनाडीशु द्धिर्भवति। ततः शरीरे लघुदीप्तिवह्निवृद्धिनादाभिव्यक्तिर्भवति ॥३-४॥ इस तरह से ४३ दिन, तीन, चार या सात मास (त्रि चतुः सप्त) अथवा एक वर्ष (त्रिचतुः ३४४=१२ मास) पर्यन्त त्रिकाल सन्ध्या के साथ तीन- तीन अथवा चार-चार बार तथा उनके मध्य में छः बार तक अभ्यास करना चाहिए। इस अभ्यास से नाड़ी की शुद्धि हो जाती है। तदनन्तर इस अभ्यास से शरीर में हल्कापन, चेहरे में कान्ति, अग्नि की अभिवृद्धि तथा नाद श्रवण होने लगता है ॥ ३-४॥

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