ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १०९

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १०९ ऋषि - कुत्स अंगिरसः: देवता- इंद्राग्नि । छंद - त्रिष्टुप वि ह्यख्यं मनसा वस्य इच्छन्निन्द्राग्नी ज्ञास उत वा सजातान् । नान्या युवत्प्रमतिरस्ति मह्यं स वां धियं वाजयन्तीमतक्षम् ॥१॥ हे इन्द्राग्नि ! अभीष्ट कामना पूर्ति हेतु किन्हीं ज्ञानवान् एवं अनुकूल स्वभाव वाले बन्धुओं की खोज की हमारा विचार हैं। हमारे और आपके मध्य कोई विचार भिन्नता नहीं, अतएव आपकी सामर्थ्य, शक्ति, प्रभाव एवं क्षमता के परिचायक स्तोत्रों की हम रचना करते हैं॥१॥ अश्रवं हि भूरिदावत्तरा वां विजामातुरुत वा घा स्यालात् । अथा सोमस्य प्रयती युवभ्यामिन्द्राग्नी स्तोमं जनयामि नव्यम् ॥२॥ हे इन्द्रदेव और अग्निदेव (श्वसुर द्वारा) जमाता और शाले (द्वारा बहनोई को दिये जाने वाले दान) से भी अधिक दान देने में आप समर्थ हैं, ऐसा हमें ज्ञात हुआ है। अतएव आप दोनों के निमित्त सोमरस भेंट करते हुए नवीन स्तोत्र की रचना करते हैं॥२॥ मा च्छेद्म रश्मीरिति नाधमानाः पितॄणां शक्तीरनुयच्छमानाः । इन्द्राग्निभ्यां कं वृषणो मदन्ति ता ह्यद्री धिषणाया उपस्थे ॥३॥ हमारी सन्तान रूपी गृहश्मियों का हनन न करें। पितरों की शक्ति वंशानुगत (वंशजों में अनुकूलता युक्त) हो, ऐसी प्रार्थना से युक्त हमें, हे सामर्थ्यवान् इन्द्रदेव और अग्निदेव ! कृपा दृष्टि से सुखप्रदायक आनन्द की प्राप्ति हो। इन देवों को सोमरस प्रदान करने के लिए दो पत्थर (सोमरस निकालने का साधन सोमपात्रों के समीप स्थापित हों ॥३॥ युवाभ्यां देवी धिषणा मदायेन्द्राग्नी सोममुशती सुनोति । ा तावश्विना भद्रहस्ता सुपाणी आ धावतं मधुना पृङ्क्तमप्सु ॥४॥ है इन्द्रदेव और अग्निदेव ! आपकी प्रसन्नता के लिए सोमरस अभिषवण करके दिव्य सोमपात्र पूर्णरूप से भरे हुए स्थापित हैं। हे अश्विनीकुमारो ! उत्तम कल्याणकारी हाथों से युक्त आप दोनों शीघ्र आएँ और मधुर सोमरस को जलों से मिश्रित करें ॥४॥ युवामिन्द्राग्नी वसुनो विभागे तवस्तमा शुश्रव वृत्रहत्ये । तावासद्या बर्हिषि यज्ञे अस्मिन्प्र चर्षणी मादयेथां सुतस्य ॥५॥ हे इन्दाग्नि ! आप दोनों धन को वितरित करते समय और वृत्र को मारने के समय अति शीघ्रता का परिचय देते हैं, ऐसा हमने सुना है। हे स्फूर्तिवान् देवो ! इस यज्ञ स्थल पर श्रेष्ठ आसन पर विराजमान होकर आप दोनों सोमरस से आनन्द की प्राप्ति करें ॥५॥ प्र चर्षणिभ्यः पृतनाहवेषु प्र पृथिव्या रिरिचाथे दिवश्च । प्र सिन्धुभ्यः प्र गिरिभ्यो महित्वा प्रेन्द्राग्नी विश्वा भुवनात्यन्या ॥६॥ है इन्द्राग्नि ! युद्ध के लिए बुलाए गये वीर पुरुषों की अपेक्षा आप अधिक बलशाली हैं। पृथ्वी, दिव्यलोक, पर्वत तथा अन्य समस्त लोकों से भी अधिक आप दोनों की प्रभाव क्षमता है॥६॥ आ भरतं शिक्षतं वज्रबाहू अस्माँ इन्द्राग्नी अवतं शचीभिः । इमे नु ते रश्मयः सूर्यस्य येभिः सपित्वं पितरो न आसन् ॥७॥ वज्र के समान सशक्त भुजाओं से युक्त हे इन्द्राग्नि ! हमारे घरों को धन से भरपूर करें, हमें शिक्षित करें तथा अपने बलों से हमारी सुरक्षा करें। ये वही सूर्य रश्मियाँ हैं, जो हमारे पितरों को भी उपलब्ध थीं ॥७॥ पुरंदरा शिक्षतं वज्रहस्तास्माँ इन्द्राग्नी अवतं भरेषु । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥८॥ वज्र से सुशोभित हाथ वाले, शत्रुओं के दुर्ग को ध्वस्त करने वाले हे इन्द्राग्नि ! आप हमें युद्ध विद्या में प्रशिक्षित करें और संग्रामों में हमारा संरक्षण करें। मित्र, वरुण, अदित, सिंधु, पृथ्वी और द्युलोक सभी हमारी कामना पूर्ति में सहयोगी हों ॥८॥

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