ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ९३

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ९३ ऋषि – गौतमो राहुगणः: देवता-अग्निषौमौ । छंद-१-३ अनुष्टुप, ५-७, १२ त्रिष्टुप, ८ जगती त्रिष्टुव्या; ९-१२ गायत्री अग्नीषोमाविमं सु मे शृणुतं वृषणा हवम् । प्रति सूक्तानि हर्यतं भवतं दाशुषे मयः ॥१॥ हे शक्तिवान् अग्निदेव और सोमदेव ! आप हमारे आवाहन को सुनें और हमारे उत्तम वचनों से आप हर्षित हों। हम हविदाताओं के लिये सुखकारी हों ॥१॥ अग्नीषोमा यो अद्य वामिदं वचः सपर्यति । तस्मै धत्तं सुवीर्यं गवां पोषं स्वव्यम् ॥२॥ हे अग्निदेव और सोमदेव ! हम आज आपके निमित्त उत्तम वचनों को अर्पित करते हैं। आप उत्तम पराक्रम धारण कर हमारे निमित्त उत्तम अश्वों और उत्तम गौओं की वृद्धि करें ॥२॥ अग्नीषोमा य आहुतिं यो वां दाशाद्धविष्कृतिम् । स प्रजया सुवीर्यं विश्वमायुर्व्यश्नवत् ॥३॥ हे अग्निदेव और सोमदेव ! जो आपके निमित्त आहुतियाँ देकर हवन सम्पादित करता है, उसे आप सन्तान सुख के साथ उत्तम बलों और पूर्ण आयु से सम्पन्न करें ॥३॥ अग्नीषोमा चेति तद्वीर्यं वां यदमुष्णीतमवसं पणिं गाः । अवातिरतं बृसयस्य शेषोऽविन्दतं ज्योतिरेकं बहुभ्यः ॥४॥ हे अग्निदेव और सोमदेव ! आपका वह पराक्रम उस समय ज्ञात हुआ, जब आपने 'पणि' से गौओं का ह्रण किया और 'बृसप' के शेष रक्षकों को क्षत-विक्षत किया। असंख्यों के लिये सूर्य प्रकाश का प्राकट्य किया ॥४॥ युवमेतानि दिवि रोचनान्यग्निश्च सोम सक्रतू अधत्तम् । युवं सिन्धूरभिशस्तेरवद्यादग्नीषोमावमुञ्चतं गृभीतान् ॥५॥ हे सोमदेव और अग्निदेव! आप दोनों समान कर्म करने वाले हैं। हे अग्नि और सोमदेव ! आपने आकाश में प्रकाशित नक्षत्रों को स्थापित किया है और हिंसक वृत्र द्वारा प्रतिबन्धित नदियों को मुक्त किया हैं॥५॥ आन्यं दिवो मातरिश्वा जभारामथ्नादन्यं परि श्येनो अद्रेः । अग्नीषोमा ब्रह्मणा वावृधानोरुं यज्ञाय चक्रथुरु लोकम् ॥६॥ हे अग्निदेव और सोमदेव ! आप में से अग्निदेव को मातरिश्वा वायु द्युलोक से यहाँ (भृगुऋषि के लिए) ले आये और दूसरे सोम को श्येन पक्षी पर्वत शिखर से उखाड़कर लाया, इस प्रकार आपने स्तोत्रों से वृद्धि पाकर व्यापक क्षेत्र में यज्ञों का विस्तार किया ॥६॥ अग्नीषोमा हविषः प्रस्थितस्य वीतं हर्यतं वृषणा जुषेथाम् । सुशर्माणा स्ववसा हि भूतमथा धत्तं यजमानाय शं योः ॥७॥ हे बलवान् अग्निदेव और सोमदेव ! आप हमारी हवियों को ग्रहण करके हर्षयुक्त हों। आप हमें उत्तम सुख देने वाले और हमारी रक्षा करने वाले हों । इस यजमान के कष्टों को दूर कर सुख प्रदान करें ॥७॥ यो अग्नीषोमा हविषा सपद्दिवद्रीचा मनसा यो घृतेन । तस्य व्रतं रक्षतं पातमंहसो विशे जनाय महि शर्म यच्छतम् ॥८॥ हे अग्निदेव और सोमदेव ! जो साधक देवों के लिये भक्ति और मनोयोग पूर्वक घृतयुक्त हवियों को समर्पित करता है, उसके व्रत की आप रक्षा करें। उसे पापों से बचायें और उसके सम्बन्धी जनों को विपुल सुखों से युक्त करें ॥८॥ अग्नीषोमा सवेदसा सहूती वनतं गिरः । सं देवत्रा बभूवथुः ॥९॥ हे अग्निदेव ! हे सोमदेव ! आप दोनों ऐश्वर्य सम्पन्न हैं। यज्ञस्थल पर संयुक्त रूप से बुलाये जाते हैं। आप दोनों देवत्व से युक्त हैं। हमारे द्वारा संयुक्त रूप से की गई स्तुतियों को स्वीकार करें ॥९॥ अग्नीषोमावनेन वां यो वां घृतेन दाशति । तस्मै दीदयतं बृहत् ॥१०॥ हे अग्निदेव और सोमदेव ! जो आपको घृतयुक्त हविष्यान देते हैं, उनके लिये आप भरपूर अन्न और ऐश्वर्य प्रदान करें ॥१०॥ अग्नीषोमाविमानि नो युवं हव्या जुजोषतम् । आ यातमुप नः सचा ॥११॥ हे अग्निदेव और सोमदेव ! आप हमारी इन हवियों को स्वीकार करें। आप दोनों संयुक्त रूप से हमारे निकट आयें ॥११॥ अग्नीषोमा पिपृतमर्वतो न आ प्यायन्तामुस्रिया हव्यसूदः । अस्मे बलानि मघवत्सु धत्तं कृणुतं नो अध्वरं श्रुष्टिमन्तम् ॥१२॥ हे अग्निदेव और सोमदेव ! आप हमारे अश्वों को पुष्ट करें । दुग्ध-घृत रूप हवि देने वाली हमारी गौओं को पुष्ट करें। हे धनवान् ! आप हम याजकों को विविध बल धारण करायें। हमारे यज्ञों के यश को विस्तृत करें ॥१२॥

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