ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १२

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १२ ऋषि - मेधातिथिः देवता- इन्द्र । छंद- गायत्री अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥१॥ हे सर्वज्ञाता अग्निदेव ! आप यज्ञ के विधाता हैं, समस्त देवशक्तियों को तुष्ट करने की सामर्थ्य रखते हैं। आप यज्ञ की विधि-व्यवस्था के स्वामी हैं। ऐसे समर्थ आपको हम देव-दूत रूप में स्वीकार करते हैं॥१॥ अग्निमग्निं हवीमभिः सदा हवन्त विश्पतिम् । हव्यवाहं पुरुप्रियम् ॥२॥ प्रजापालक, देवों तक हवि पहुँचाने वाले, परमप्रिय, कुशल नेतृत्व प्रदान करने वाले हे अग्निदेव ! हम याजकगण हवनीय मंत्रों से आपको सदा बुलाते हैं॥२॥ अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे । असि होता न ईड्यः ॥३॥ हे स्तुत्य अग्निदेव ! आप अरणि मन्थन से उत्पन्न हुए हैं। आस्तीर्ण (बिछे हुए) कुशाओं पर बैठे हुए यजमान पर अनुग्रह करने हेतु आप (यज्ञ की) हवि ग्रहण करने वाले देवताओं को इस यज्ञ में बुलाएँ ॥३॥ ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दूत्यम् । देवैरा सत्सि बर्हिषि ॥४॥ हे अग्निदेव ! आप हवि की कामना करने वाले देवों को यहाँ बुलाएँ और इन कुशा के आसनों पर देवों के साथ प्रतिष्ठित हों ॥४॥ घृताहवन दीदिवः प्रति ष्म रिषतो दह । अग्ने त्वं रक्षस्विनः ॥५॥ घृत आहुतियों से प्रदीप्त हे अग्निदेव ! आप राक्षसी प्रवृत्तियों वाले शत्रुओं को सम्यक् रूप से भस्म करें ॥५॥ अग्निनाग्निः समिध्यते कविगृहपतिर्युवा । हव्यवाड्जुह्वास्यः ॥६॥ यज्ञ स्थल के रक्षक, दूरदर्शी, चिरयुवा, आहुतियों को देवों तक पहुँचाने वाले, ज्वालायुक्त आहवनीय यज्ञाग्नि को अरणि मन्थन द्वारा उत्पन्न अग्नि से प्रज्वलित किया जाता हैं॥६॥ कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे । देवममीवचातनम् ॥७॥ हे विजो ! लोक हितकारी यज्ञ में रोगों को नष्ट करने वाले, ज्ञानवान् अग्निदेव की स्तुति आप सब विशेष रूप से करें ॥७॥ यस्त्वामग्ने हविष्पतिर्दूतं देव सपर्यति । तस्य स्म प्राविता भव ॥८॥ देवगणों तक हविष्यान्न पहुँचाने वाले हे अग्निदेव ! जो याजक, आप (देवदूत) की उत्तम विधि से अर्चना करते हैं, आप उनकी भली-भाँति रक्षा करें ॥८॥ यो अग्निं देववीतये हविष्माँ आविवासति । तस्मै पावक मृळय ॥९॥ है शोधक अग्निदेवे ! देवों के लिए हवि प्रदान करने वाले जो यजमान आपकी प्रार्थना करते हैं, आप उन्हें सुखी बनायें ॥९॥ स नः पावक दीदिवोऽग्ने देवाँ इहा वह । उप यज्ञं हविश्च नः ॥१०॥ हे पवित्र, दीप्तिमान् अग्निदेव ! आप देवों को हमारे यज्ञ में हवि ग्रहण करने के निमित्त ले आएँ ॥१०॥ स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा । रयिं वीरवतीमिषम् ॥११॥ हे अग्निदेव ! नवीनतम गायत्री छन्द वाले सूक्त से स्तुति किये जाते हुए आप हमारे लिए पुत्रादि ऐश्वर्य और बलयुक्त अन्नों को भरपूर प्रदान करें ॥११॥ अग्ने शुक्रेण शोचिषा विश्वाभिर्देवहूतिभिः । इमं स्तोमं जुषस्व नः ॥१२॥ हे अग्निदेव ! अपनी कान्तिमान् दीप्तियों से देवों को बुलाने के निमित्त हमारी स्तुतियों को स्वीकार करें ॥१२॥

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