ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ७४

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ७४ ऋषि – गौतम राहुगण:: देवता - अग्नि । छंद - गायत्री उपप्रयन्तो अध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्नये । आरे अस्मे च शृण्वते ॥१॥ हमारे कथन (भाव) को सुनने वाले अग्निदेव के निमित्त हम यज्ञ के समीप तथा सुदूर स्थान से भी उपस्थित होते हुए स्तुति मंत्र समर्पित करते हैं ॥१॥ यः स्त्रीहितीषु पूर्व्यः संजग्मानासु कृष्टिषु । अरक्षद्दाशुषे गयम् ॥२॥ सदैव जाज्वल्यमान वे अग्निदेव परस्पर स्नेह-सौजन्य युक्त प्रजाओं के एकत्र होने पर दाताओं के ऐश्वर्य की रक्षा करते हैं॥२॥ उत ब्रुवन्तु जन्तव उदग्निर्वृत्रहाजनि । धनंजयो रणेरणे ॥३॥ शत्रुनाशक, युद्ध में शत्रुओं को पराजित कर धन जीतने वाले अग्निदेव का प्राकट्य हुआ है, सभी लोग उनकी स्तुति करें ॥३॥ यस्य दूतो असि क्षये वेषि हव्यानि वीतये । दस्मत्कृणोष्यध्वरम् ॥४॥ हे अग्निदेव ! जिस यजमान के घर से दूत रूप में आप देवों के लिए हवि वहन करते हैं, उस घर (यज्ञशाला) को आप उत्तम प्रकार से दर्शनीय बनाते हैं ॥४॥ तमित्सुहव्यमङ्गिरः सुदेवं सहसो यहो । जना आहुः सुबर्हिषम् ॥५॥ हे बल के पुत्र (अरणि मन्थन द्वारा बल पूर्वक उत्पन्न होने वाले) अग्निदेव ! आप यजमान को सुन्दर हवि द्रव्य से युक्त, सुन्दर देवों से और श्रेष्ठ यज्ञ से पूर्ण करते हैं, ऐसा लोगों का कथन है॥५॥ आ च वहासि ताँ इह देवाँ उप प्रशस्तये । हव्या सुश्चन्द्र वीतये ॥६॥ हे तेजस्वी अग्निदेव ! उन देवों को हमारे यज्ञ में स्तुतियाँ सुनने और हवि ग्रहण करने के लिए समीप ले आयें ॥६॥ न योरुपब्दिरव्यः शृण्वे रथस्य कच्चन । यदग्न्ने यासि दूत्यम् ॥७॥ हे अग्निदेव ! आप जब कभी भी देवों के दूत बनकर जाते हैं, तब आपके गतिमान रथ के घोड़ों का कोई शब्द सुनाई नहीं पड़ता ॥७॥ त्वोतो वाज्यह्रयोऽभि पूर्वस्मादपरः । प्र दाश्वाँ अग्ने अस्थात् ॥८॥ हे अग्निदेव ! पहले असुरक्षित रहने वाला हविदाता यजमान आपकी सामर्थ्य द्वारा रक्षित होकर बल सम्पन्न बना तथा हीनता से मुक्त हुआ ॥८॥ उत द्युमत्सुवीर्यं बृहदग्ने विवाससि । देवेभ्यो देव दाशुषे ॥९॥ हे महान् अग्निदेव ! आप देवों को हवि प्रदान करने वाले यजमान को अतिशय तेज और श्रेष्ठ बल प्राप्त कराते हैं ॥९॥

Recommendations