ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त १४

ऋग्वेद–चतुर्थ मंडल सूक्त १४ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - अग्नि । छंद - त्रिष्टुप, प्रत्यग्निरुषसो जातवेदा अख्यद्देवो रोचमाना महोभिः । आ नासत्योरुगाया रथेनेमं यज्ञमुप नो यातमच्छ ॥१॥ देवत्व सम्पन्न, सर्वज्ञाता अग्निदेव सूर्य रूप में अपने ओज द्वारा तेजयुक्त उषा को आलोकित करते हैं। हर प्रकार से प्रार्थनीय हे अश्विनीकुमारो ! आप भी अपने रथ द्वारा हमारे यज्ञ में पधारें ॥१॥ ऊर्ध्वं केतुं सविता देवो अश्रेज्ज्योतिर्विश्वस्मै भुवनाय कृण्वन् । आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं वि सूर्यो रश्मिभिश्चेकितानः ॥२॥ वे सवितादेव, सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करते हुए अपनी ऊर्ध्वमुखी रश्मियों का आश्रय लेते हैं। वे सबका अवलोकन करने वाले हैं। अपनी रश्मियों के द्वारा द्यावा-पृथिवी तथा अन्तरिक्ष को परिपूर्ण करते हैं ॥२॥ आवहन्त्यरुणीज्र्योतिषागान्मही चित्रा रश्मिभिश्चेकिताना । प्रबोधयन्ती सुविताय देव्युषा ईयते सुयुजा रथेन ॥३॥ ऐश्वर्य धारण करने वाली, रक्तवर्ण वाली, ज्योति से सम्पन्न रश्मियों के माध्यम से सुन्दर उषा प्रकट होती हैं। वे प्राणियों को जाग्रत् करती हुई उनका कल्याण करने के निमित्त अपने श्रेष्ठ रथ द्वारा सर्वत्र गम्न करती हैं ॥३॥ आ वां वहिष्ठा इह ते वहन्तु रथा अश्वास उषसो व्युष्टौ । इमे हि वां मधुपेयाय सोमा अस्मिन्यज्ञे वृषणा मादयेथाम् ॥४॥ हे अश्विनीकुमारो ! उषा के आलोकित होने पर, रथ को खींचने में अत्यन्त सक्षम आपके घोड़े हमारे इस यज्ञ में आप दोनों को ले आएँ । हे शक्तिशाली अश्विनीकुमारो ! यह सोमरस आपके लिए है, अतः इस यज्ञ में सोमरस पान करके आनन्दित हों ॥४॥ अनायतो अनिबद्धः कथायं न्य‌ङ्गुत्तानोऽव पद्यते न । कया याति स्वधया को ददर्श दिवः स्कम्भः समृतः पाति नाकम् ॥५॥ बिना आश्रय तथा बन्धन के सूर्यदेव किस शक्ति से ऊपर की ओर गमन करते हैं? वे नीचे क्यों नहीं पतित होते? इसे किसने देखा है ? द्युलोक के आश्रय रूप होकर वे सत्यरूप सूर्यदेव स्वर्ग की सुरक्षा करते हैं ॥५॥

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