ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ६२

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ६२ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः। १६-१८ जमदग्निर्वा देवता - १-३ इन्द्रवरुणौ, ४-६ बृहस्पति, ७-९ पूषा, १०-१२ सविता, १३-१८ मित्र वरुणौ । छंद - गायत्री, १-३ त्रिष्टुप इमा उ वां भृमयो मन्यमाना युवावते न तुज्या अभूवन् । क्व त्यदिन्द्रावरुणा यशो वां येन स्मा सिनं भरथः सखिभ्यः ॥१॥ हे इन्द्रावरुणों ! शत्रुओं को वश में करने वाले आपके गतिशील शस्त्र, सज्जनों की रक्षा करने वाले हों, थे किसी के द्वारा नष्ट न हों। आप जिससे अपने मित्रबन्धुओं को अन्नादि प्रदान करते हैं; वह यश, कहाँ स्थित है? ॥१॥ अयमु वां पुरुतमो रयीयञ्छश्वत्तममवसे जोहवीति । सजोषाविन्द्रावरुणा मरुद्भिर्दिवा पृथिव्या शृणुतं हवं मे ॥२॥ हे द्रावरुण धनेश्वर्य की कामना करने वाले थे महान् यजमान अपने क्षणार्थ (अन्न के लिए आप दोनों। का बार-बार आवाहन करते हैं। है मरुद्गण ! द्यावापृथिवी के साथ मिलकर आप हमारे निवेदन को सुनें ॥२॥ अस्मे तदिन्द्रावरुणा वसु ष्यादस्मे रयिर्मरुतः सर्ववीरः । अस्मान्वरूत्रीः शरणैरवन्त्वस्मान्होत्रा भारती दक्षिणाभिः ॥३॥ हे इन्द्र और वरुणदेवों! हमें वांछित धन की प्राप्ति हों। हे मरुद्गण ! आप हमें सर्व समर्थ वीर पुत्रों से युक्त ऐश्वर्य प्रदान करें। सबके द्वारा वरण किये जाने योग्य देवशक्तियों शरण देकर हम लोगों को संरक्षण प्रदान करें। होत्रा और भारती (अग्नि पत्नी और सूर्य पली) सद्भावपूर्ण वाणी द्वारा हमारा पालन-पोषण करें ॥३॥ बृहस्पते जुषस्व नो हव्यानि विश्वदेव्य । रास्व रत्नानि दाशुषे ॥४॥ परिपूर्ण दिव्यगुण सम्पन्न हे बृहस्पतिदेव ! आप हमारे द्वारा प्रदत्त पुरोट्टाश (हव्यों का सेवन करें। आप हविष्यान्न देने वाले दान-दाता यज्ञमानों को श्रेष्-उपयोगी धन प्रदान करें ॥४॥ शुचिमकैबृहस्पतिमध्वरेषु नमस्यत । अनाम्योज आ चके ॥५॥ हे विजों ! आप यज्ञों में अर्चन-योग्य, स्तोत्र वाणी द्वारा पवित्र बृहस्पतिदेव को नमन करें। हम उनसे शत्रुओं द्वारा अपराजेय बल- पराक्रम की कामना करते हैं॥५॥ वृषभं चर्षणीनां विश्वरूपमदाभ्यम् । बृहस्पतिं वरेण्यम् ॥६॥ मनुष्यों के मनोरथों को पूर्ण करने वाले, अनेक रूपों को धारण करने में समर्थं, किसी के भी दबाव में न आने वाले तथा वरण करने योग्य बृहस्पतिदेव की हम सब पूजा-अर्चना करते हैं॥६॥ इयं ते पूषन्नाघृणे सुष्टुतिर्देव नव्यसी । अस्माभिस्तुभ्यं शस्यते ॥७॥ हे पूषादेव ! ये नूतन और श्रेष्ठ स्तोत्र आपके लिए हैं। इन स्तुतियों का पाठ हम आपके निमित ही करते हैं॥७॥ तां जुषस्व गिरं मम वाजयन्तीमवा धियम् । वधूयुरिव योषणाम् ॥८॥ हे पूषादेव ! आप हमारी इस श्रेष्ठ वाणी का श्रवण करें और सामर्थ्य प्राप्ति की अभिलाषा करने वाली इस बुद्धि की उसी प्रकार रक्षा करें, जिस प्रकार कोई पुरुष अपनी वधू (स्त्री) की सुरक्षा करता हैं॥८॥ यो विश्वाभि विपश्यति भुवना सं च पश्यति । स नः पूषाविता भुवत् ॥९॥ जो पूषादेव विश्व-बह्माण्ड को विशिष्ट रीति से देखते हैं-निरीक्षण करते हैं, वे हम लोगों के संरक्षक हौं ॥९॥ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ॥१०॥ जो हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं, उन सविता देवता के वरण करने योग्य, विकारनाशक, दिव्यता प्रदान करने वाले तेज़ को हम धारण करते हैं॥१०॥ देवस्य सवितुर्वयं वाजयन्तः पुरंध्या । भगस्य रातिमीमहे ॥११॥ जगत् के उत्पादक प्रेरक, प्रकाशक सवितादेव के तेज़ को धारण करते हुए, उनसे वैभव की कामना करते हैं॥११॥ देवं नरः सवितारं विप्रा यज्ञैः सुवृक्तिभिः । नमस्यन्ति धियेषिताः ॥१२॥ सद्बुद्धि से प्रेरित होकर, सत्कर्मशील ज्ञानीजन श्रेष्ठ रीति से स्तोत्रों द्वारा सवितादेव की स्तुति करते हैं॥ १२ ॥ सोमो जिगाति गातुविद्देवानामेति निष्कृतम् । ऋतस्य योनिमासदम् ॥१३॥ सन्मागों के ज्ञाता सोमदेव सर्वत्र गतिशील हैं और देवों के लिए उपयुक्त श्रेष्ठ यज्ञस्थल पर पहुँचते हैं॥१३॥ सोमो अस्मभ्यं द्विपदे चतुष्पदे च पशवे । अनमीवा इषस्करत् ॥१४॥ सोमदेव हम स्तोताओं तथा द्विपदों और चतुष्पद-पशुओं के निमित्त आरोग्यप्रद श्रेष्ठअन्न प्रदान करें ॥१४॥ अस्माकमायुर्वर्धयन्नभिमातीः सहमानः । सोमः सधस्थमासदत् ॥१५॥ सोमदेव हमारे रोगों को दूर करके आयु को बढ़ाएँ, शत्रुओं को पराभूत करते हुए यज्ञस्थल पर प्रतिष्ठित हों ॥१५॥ आ नो मित्रावरुणा घृतैर्गव्यूतिमुक्षतम् । मध्वा रजांसि सुक्रतू ॥१६॥ हे मित्रावरुणदेव ! आप हमारी गौओं (इन्द्रियों) को घृत (स्नेह) से युक्त करें और हमारे आवासो-लोकों को मी श्रेष्ठ र (भाव) से सिंचित करें ॥१६॥ उरुशंसा नमोवृधा मह्ना दक्षस्य राजथः । द्राधिष्ठाभिः शुचिव्रता ॥१७॥ है पवित्रकर्मी मित्रावरुणों ! आप हविष्यान्न एवं स्तुतियों द्वारा पुष्ट होकर गरिमामय यश को प्राप्त करते हैं॥ १७॥ गृणाना जमदग्निना योनावृतस्य सीदतम् । पातं सोममृतावृधा ॥१८॥ जमदग्नि ऋषि द्वारा स्तुत हे मित्रावरुणों! आप यज्ञ स्थल पर विराजे और प्रस्तुत सोमरस का पान करें ॥१८॥ ॥ इति तृतीय मण्डलं ॥

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